PM Narendra Modi Meeting Xi Jinping: अमेरिका द्वारा शुरू किए गए टैरिफ की वैश्विक समस्या के बीच एससीओ समिट में शामिल होने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चीन के दौरे पर हैं। अब भारत और चीन अशांत अंतरराष्ट्रीय माहौल को स्थिर करने के लिए द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत करने की दिशा में तेजी से काम कर रहे हैं। इस दिशा में पीएम मोदी-शी जिनपिंग की मुलाकात काफी अहम है।
बता दें कि हाल ही में चीनी के विदेश मंत्री वांग यी दिल्ली के दौरे पर आए थे। इस यात्रा ने दोनों ही देशों के अहम मुद्दों की चर्चाओं को तेज कर दिया है। भारतीय मीडिया ने सामान्यीकरण और रुके हुए संबंधों की बहाली पर ध्यान केंद्रित किया, जबकि भारतीय नेताओं ने आपसी समझ बढ़ाने, सहयोग को मजबूत करने और आपसी सम्मान व साझा हितों पर आधारित संबंधों को प्रगाढ़ करने की प्रतिबद्धता दोहराई। उन्होंने स्थिरता और विश्वास के लिए सीमा की पुरानी स्थिति को भी महत्वपूर्ण बताया।
रिश्तों को सुधारने के लिए प्रयास?
भारत और चीन के बीच एक सिद्धांत बना है कि मतभेद संघर्ष में नहीं बदलने चाहिए और रिश्तों को संभालने और आगे बढ़ने के लिए बेहद अहम है। दूसरी ओर चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने “रणनीतिक समझ” को सुधारने और आपसी धारणाओं को मजबूत करने की ज़रूरत पर जोर दिया ताकि विश्वास कायम किया जा सके और लंबे समय से चले आ रहे सीमा विवाद को सुलझाया जा सके।
भारत की नीतियों पर क्यों उठाए थे सवाल?
असल में उन्होंने भारत के इरादों पर सवाल उठाया था कि खासकर चीन की क्षेत्रीय अखंडता को लेकर संशय जताया था। उनका इशारा यह था कि असल समस्या सीमा नहीं बल्कि 1950 के बाद से भारत के इरादों में आए बदलाव हैं जिन्हें सुधारने की ज़रूरत है। कुछ समय के लिए बीजिंग ने भारत के ‘वन-चाइना नीति’ (One-China Policy) दोहराने पर खुशी जताई, जो ताइवान को चीन का हिस्सा मानती है।
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वन चाइना पॉलिसी को लेकर बदला भारत रुख
वहीं बाद में भारतीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने इसे खारिज कर दिया। इसके बाद बीजिंग ने चिंता जताई कि “कुछ लोग चीन की संप्रभुता को कमजोर करने और चीन-भारत संबंधों को बिगाड़ने की कोशिश कर रहे हैं। भारत ने 2010 में ‘वन-चाइना नीति’ का समर्थन बंद कर दिया था। मोदी सरकार ने भारत की पुरानी स्थिति से और अधिक दूरी बना ली है और ‘वन-चाइना नीति’ को छोड़ने की मांगें और तेज हो गई हैं।
चीन के पास नहीं भारत की अखंडता को लेकर ठोस रणनीतिक समझ
वहीं चीन के पास भारत की क्षेत्रीय अखंडता को लेकर कोई ठोस रणनीतिक समझ नहीं रही। चीन के विस्तारवादी दावों की जड़ें 1947 तक जाती हैं, जब राष्ट्रवादी कुओमिंतांग (KMT) सरकार सत्ता में थी। उस समय तिब्बत एक स्वतंत्र इकाई के रूप में काम करता था, तिब्बत ने भारत से आग्रह किया था कि ब्रिटिश भारत के अधीन रहे सभी तिब्बती क्षेत्रों को वापस लिया जाए। ये क्षेत्र भारत की लगभग 10 प्रतिशत भूमि हैं, जो हिमालय के दक्षिण में स्थित हैं और 1914 के शिमला समझौते के विपरीत हैं।
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भारत की आज़ादी से पहले एक तिब्बती प्रतिनिधिमंडल नई दिल्ली पहुंचा। कहा जाता है कि उन्हें ब्रिटिश प्रतिनिधि ह्यूग रिचर्डसन ने भेजा था, ताकि तिब्बत की स्वतंत्रता के लिए समर्थन जुटाया जा सके, मैकमोहन रेखा को निष्प्रभावी किया जा सके और भारत में तिब्बती भाषी क्षेत्रों का महासंघ स्थापित किया जा सके, जो 1947 तक ब्रिटिश शासन के अधीन थे।
चीन ने किया तिब्बत पर कब्जा?
जवाहरलाल नेहरू ने तिब्बती मांग को खारिज कर दिया और भारतीय जनता से इस मुद्दे को छिपाए रखा। पूर्व पीएम पंडित नेहरू ने चीन की अधिराज्यता पर सवाल नहीं उठाया, 1949 में ‘वन-चाइना नीति’ स्वीकार की और ताइवान, तिब्बत और शिनजियांग को चीन का हिस्सा माना। 1949 में जब कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता में आई तो माओ ने बस कुओमिंतांग-तिब्बत रणनीति को सैन्य कार्रवाई में बदल दिया। चीनी आक्रामकता की असल कहानी 1951 में शुरू हुई, जब पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (PLA) ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया।
इसके अलावा 1954 में नक्शे पर आक्रामकता से चीन की शुरुआत हुई, 1957 में अक्साई चिन में गुप्त घुसपैठ हुई और 1958 में PLA खर्नक पार कर गया। इसके बाद चीन ने आधिकारिक तौर पर लद्दाख और नॉर्थ-ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी (NEFA) में 50,000 वर्ग मील क्षेत्र पर दावा किया।
भारत ने तवांग को कराया मुक्त तो भड़का चीन
फर्क यह है कि कुओमिंतांग-तिब्बत का दावा पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (PRC) के मौजूदा दावे से कहीं बड़ा था। 1951 में भारत ने तवांग को मुक्त कराया और चीन ने इसका विरोध मुश्किल से किया। संभवतः चीन ने इसे उसी वर्ष तिब्बत के अपने विलय के बदले की कार्रवाई समझा। भारत की रणनीति 1959 में बदली, जब नेहरू ने अमेरिका के आग्रह पर दलाई लामा को भारत में शरण दी। लेकिन इस घटना ने 1962 के युद्ध की राह खोली, जिसमें भारत ने अक्साई चिन का एक हिस्सा खो दिया।
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इसके अलावा, 1963 में चीन ने पाकिस्तान के साथ सीमा समझौते के जरिए शक्सगाम घाटी भी हासिल कर ली। 1962 में अरुणाचल प्रदेश से सैन्य वापसी के बाद, चीन ने 1980 के दशक के अंत में फिर से मुद्दा उठाया और “पैकेज डील” का प्रस्ताव रखा। इसमें चीन ने कहा कि वह पूर्वी सेक्टर (अरुणाचल) में भारत के दावों को मान लेगा, बदले में भारत अक्साई चिन पर चीन के दावे को स्वीकार करे। भारत ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया।
अरुणाचल प्रदेश पर शुरु किया विवाद
2003 के बाद से बीजिंग ने 90,000 वर्ग किमी अरुणाचल प्रदेश को भारत का हिस्सा मानना बंद कर दिया और इसे “कोर इंटरेस्ट” घोषित कर दिया, जिसे सैन्य बल से भी बचाया जाएगा। 2017 में चीन ने अरुणाचल प्रदेश के स्थानों का नाम बदलना शुरू कर दिया। भारतीय अधिकारी यह मानने से इनकार करते हैं कि हालिया रिश्तों में सुधार अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की व्यापारिक धमकियों की प्रतिक्रिया है। हालांकि, बीजिंग लंबे समय से भारत के पारंपरिक गुटनिरपेक्ष रुख से अमेरिका के नज़दीक जाने को लेकर चिंतित रहा है। चीन अपनी “रणनीतिक धैर्यता” के लिए जाना जाता है और घटनाओं को अपने हिसाब से मोड़ने के लिए इंतज़ार करता है।
2022 में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (CCP) की 20वीं कांग्रेस में राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने “संकट से अवसर निकालने” पर जोर दिया। यह रणनीति दिखाती है कि चीन विरोधियों की कमजोरियों से लाभ उठाने की कोशिश करता है। अब जब नई दिल्ली अमेरिका के साथ अपने रिश्तों में झिझक दिखा रही है, तो बीजिंग ने भारत को ट्रंप की धमकियों के खिलाफ “मजबूत समर्थन” देने का वादा किया है। यह भू-राजनीतिक परिदृश्य में अहम मोड़ है।
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तिब्बत को लेकर फैसला बना ज्यादा बड़ी दिक्कत
बीते समय में तिब्बत इस बात का उदाहरण रहा है कि भारत ने अनजाने में चीन के लक्ष्यों को कैसे आसान बनाया। चीन ने भारत “कार्ड” का हमेशा अपने फायदे के लिए इस्तेमाल किया है, और नई दिल्ली से मुश्किल से ही विरोध झेला है। संभव है कि यह तरीका आज भी चल रहा हो, लेकिन भारत में कई लोग इसे समझ नहीं पा रहे। भारत ने भी अमेरिका से रणनीतिक संकेत लेना शुरू कर दिया है, खासकर तिब्बत और ताइवान जैसे मुद्दों पर यह अहम हो गया। अमेरिकी नेताओं जैसे नैन्सी पेलोसी का ताइवान के लिए समर्थन भारतीय नेताओं — जैसे शशि थरूर — को “ताइवान कार्ड” इस्तेमाल करने के लिए प्रेरित करता है, ताकि चीन पर दबाव बनाया जा सके। खास बात यह है कि चीन ने अब तक भारत की इन कार्रवाइयों का कड़ा विरोध नहीं किया है, शायद इसलिए कि वह अपनी व्यापक रणनीतिक धैर्यता दिखाना चाहता है।
सीमा विवादों को सुलझाने के लिए दो नए समूह बनाए गए हैं, जो वांग यी की यात्रा से बने 10 सूत्री “अर्ली हार्वेस्ट” समझौते के तहत सीमांकन और प्रबंधन पर ध्यान देंगे। लेकिन यह व्यावहारिक तरीका चीन की विस्तारवादी महत्वाकांक्षाओं को रोकने में सक्षम नहीं दिखता। चीन के नजरिए से, सीमा विवाद हल करना भारत की तिब्बत और ताइवान को लेकर ताकत को खत्म नहीं करेगा, क्योंकि नई दिल्ली दलाई लामा को अब भी एक अहम रणनीतिक संपत्ति मानता है।
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चीन व्यापारिक रिश्तों की रणनीतिक में बदलाव
इसी बीच, चीन अपने व्यापारिक रिश्तों में रणनीतिक बदलाव कर रहा है और जरूरी सामग्रियों पर निर्यात प्रतिबंध आसान कर रहा है। भारत के लिए यह अवसर है कि जहां हित मिलते हैं वहां सहयोग करे, मतभेदों को सावधानी से संभाले और धैर्य से काम ले। यी ने मोदी की तियानजिन SCO शिखर सम्मेलन में भागीदारी को अहम बताया, जहां मोदी, शी और पुतिन ट्रंप के खिलाफ एकजुट दिखेंगे।
पीएम मोदी के लिए अच्छा होगा कि वे 2003 में अटल बिहारी वाजपेयी की कूटनीति से सबक लें, जब उन्होंने तिब्बत पर भारत का रुख स्पष्ट किया और बदले में चीन से सिक्किम पर रियायत हासिल की। तियानजिन SCO सम्मेलन मोदी को यह मौका देता है कि वे घरेलू दबावों से ऊपर उठकर सीमा विवादों का ठोस समाधान निकालें, भले ही इसके लिए बड़े समझौते करने पड़ें।