देश के मीडिया से अपने अच्छे कामकाज की अनदेखी करने की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की शिकायत सनातन है। आंबेडकर स्मारक के शिलान्यास के मौके पर मोदी ने फिर ताना मारा कि उनकी सरकार अनेक अच्छे काम कर रही है पर मीडिया उन्हें नहीं देखता। उसे तो केवल सरकार की खामियां ही नजर आती हैं। हो सकता है कि मोदी की शिकायत पूरी तरह निराधार न हो पर अगर उनकी सरकार के अच्छे काम का मीडिया संज्ञान नहीं ले रहा तो इसमें कसूर उनका अपना भी कम नहीं। साथ ही प्रचार-प्रसार का जिम्मा संभालने वाली सरकारी व्यवस्था भी इस कसौटी पर पूरी तरह नाकाम दिखती है।
शुरुआत प्रधानमंत्री दफ्तर से ही करें। मोदी ने किसी को अपना मीडिया सलाहकार बनाया ही नहीं। अलबत्ता गुजरात के एक रिटायर बुजुर्ग अफसर जेएम ठक्कर को अपना पीआरओ जरूर बना रखा है, जो मीडिया से दूरी बनाने में माहिर हैं। इसके उलट पूर्व के प्रधानमंत्रियों ने सरकारी अमले के अलावा मीडिया के अनुभवी लोगों को अपना सलाहकार रखा। मनमोहन सिंह के साथ हरीश खरे, संजय बारू और पंकज पचौरी जैसे अनुभवी पत्रकारों ने काम किया तो अटल बिहारी वाजपेयी के समय अशोक टंडन और एचके दुआ जैसे नामचीन पत्रकार उनका मीडिया प्रबंधन संभालते थे।
हालांकि मीडिया से जुड़ी अलग-अलग वजहों से कांग्रेस के राज में सलाहकारों पर गाज गिरती रही है। दरअसल मोदी खुद भी मीडिया के बजाए ट्वीटर, व्हाट्स ऐप और फेसबुक जैसे सोशल मीडिया के मुरीद हैं। यही कारण है कि सरकार के प्रचार-प्रसार के नाम पर हर साल अरबों रुपए के खर्च पर पलने वाला प्रेस सूचना ब्यूरो (पीआइबी) भी सरकार की उपलब्धियों के प्रचार-प्रसार को लेकर खासा उदासीन है। पीआइबी के अधिकारी खुद मीडिया के लोगों से संपर्क बढ़ाने के बजाए उनसे बातचीत में अफसरी झाड़ते हैं। रायसीना रोड स्थित नेशनल मीडिया सेंटर के अपने दफ्तर से ज्यादातर अधिकारी नदारद रहते हैं। उनके मातहतों के मुंह से रटारटाया जवाब मिलता है। कभी यह कि साहब मंत्रालय गए हैं तो कभी यह कि वे शास्त्री भवन गए हैं।
पीआइबी ही सरकार के मीडिया प्रचार-प्रसार का सबसे बड़ा अमला है। वैसे तो यह काम प्रसार भारती के अधीन चलने वाले आॅल इंडिया रेडियो और दूरदर्शन का भी सरकार की उपलब्धियों से लोगों को अवगत कराना ही है पर यहां भी कुशल, अनुभवी और व्यापक मीडिया संपर्क वाले लोगों के बजाए सरकार ने संघी अतीत वाले या विवेकानन्द फाउंडेशन से जुड़े लोगों को ही बुलाया है, जो सरकार की छवि बनाने से ज्यादा चिंता अपने चहेतों को रेवड़ियां बांटने की कर रहे हैं।
सूचना प्रसारण मंत्रालय का जिम्मा वैसे भी मोदी ने अरूण जेटली को ही सौंप रखा है। जो वित्त जैसे भारी भरकम मंत्रालय की अपनी व्यस्तताओं के कारण सूचना-प्रसारण मंत्रालय के लिए वक्त निकाल ही नहीं पाते। उनके चहेते पत्रकारों की एक टोली जरूर है। जो जेटली से आॅॅफ द रिकार्ड तमाम अंदरूनी जानकारियां मिलने की डींग हांकते रहते हैं।
जहां तक लोकसभा और राज्यसभा टीवी चैनलों का सवाल है, वे भी सरकार के प्रचार-प्रसार से कोई सरोकार नहीं दिखा रहे। लोकसभा टीवी पर नियंत्रण अध्यक्ष सुमित्रा महाजन का है। यहां एक तो पर्याप्त स्टाफ नहीं है, ऊपर से बजट का संकट अलग लगता है। जबकि राज्यसभा टीवी चैनल उपराष्ट्रपति की सरपरस्ती में चल रहा है।
वजह – राज्यसभा के सभापति वही होते हैं। राज्यसभा चैनल पर सरकार के अच्छे कामकाज के प्रचार-प्रसार के बजाए आलोचना ही ज्यादा दिखाई पड़ती है। मजे की बात तो यह है कि चैनल के लोग मीडिया के लोगों की नवीनतम जानकारी से भी अनभिज्ञ ही नजर आते हैं। मसलन विशेषज्ञ के रूप में चर्चा के लिए आमंत्रित पत्रकारों का वे सही परिचय भी नहीं जानते। आलम तो यह है कि निष्पक्ष होने की बजाए इन चैनलों पर भी खेमेबाजों का ही कब्जा है।
साफ है कि जिम्मेवार और निष्पक्ष मीडिया के प्रति प्रधानमंत्री के उदासीन नजरिए का ही नतीजा है कि सरकारी एजंसियां सरकार की उपलब्धियों के प्रचार-प्रसार के अपने वास्तविक दायित्व को अंजाम देने में नाकाम हैं। इसके बावजूद प्रधानमंत्री को शिकायत मीडिया से ही है।