महिलाओं की दुनिया और उनका मानस बहुत बदल गया है। महिलाएं आज अपनी शिनाख्त से लेकर कामकाज तक हर जगह अपने हिस्से की लिखावट खुद लिखने के जोश से भरी दिखती हैं। पर इस दौरान अगर कुछ नहीं बदली है तो वह मानसिकता जिसके खिलाफ संघर्ष करती हुई महिलाएं यहां तक पहुंची हैं। अफसोस से ज्यादा चिंता की बात है कि महिलाओं के प्रति इंसाफ का तराजू समाज में ही नहीं झुका है बल्कि यह गैरबराबरी अदालती दिशानिर्देशों और फैसलों तक पहुंच गई है। स्थिति की इस भयावहता से अवगत करा रही हैं मृणाल वल्लरी।

महिला संघर्ष के हिस्से हाल के दशकों में तर्क और विमर्श का एक बड़ा आयतन आया है। इंसाफपसंद आवाजों के साथ जब-तब लहराती मुट्ठियों ने औरतों की दुनिया को खूब हौसला दिया है। पर तर्क और हौसलों की यह कमाई तब काम नहीं आती जब परिवेश की जड़ता अपना साक्ष्य मामला दर मामला पेश करने लग जाती है। और फिर औरतों का संघर्ष और पेचीदा हो जाता है क्योंकि उसे अन्य के साथ इस तरह के विरोधाभासों से भी भिड़ना होता है। दिलचस्प यह कि विरोधाभास की ये इबारतें पढ़ने के लिए आपको हर जगह मिल जाएंगी, बस शर्त यह कि नैतिकता की शर्मनाक पराजय झेलने के लिए आप भीतरी तौर पर तैयार हों।

अपशब्द को कहना महज

कुछ साल पहले दिल्ली विश्वविद्यालय के दक्षिण परिसर से जुड़ा एक कॉलेज कई तरह की चर्चा और घटनाक्रम के केंद्र में था। कॉलेज की शिक्षिका ने अपने पुरुष सहयोगी के खिलाफ शिकायत की थी। शिकायत यह थी कि पुरुष साथी ने उसे अपशब्द कहे थे जो उसे अपनी अस्मिता के खिलाफ लगे। शिकायत के बाद कॉलेज में आंतरिक जांच समिति बैठी और पुरुष के खिलाफ यौन उत्पीड़न के सबूत मिले।

कायदे से तो इसके बाद शिक्षिका का मनोबल बढ़ना चाहिए था? पर नहीं, ऐसा नहीं हुआ। वजह था कॉलेज का माहौल। शिक्षिका के यौन उत्पीड़न की शिकायत के बाद ज्यादातर सहयोगी उसके खिलाफ हो गए और उसकी वजह थी उस पुरुष की सरकारी नौकरी। शिक्षिका के ज्यादातर सहयोगियों का तर्क था कि उसने गाली ही तो दी थी। चलो अब बहुत हुआ, माफ करो। अगर महज गाली देने के लिए पुरुष पर कार्रवाई होगी तो उसके बीवी-बच्चों का क्या होगा।

हौसले का संविधान

दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे उच्च अकादमिक संस्थान में यह माहौल अगर सामान्य मनोविज्ञान का हिस्सा बन चुका है कि गाली ही तो दी है, तो चिंता स्वाभाविक है। आखिर यह कौन सा न्याय या मानवीय तर्क है जिसमें एक पुरुष की सरकारी नौकरी का महत्व स्त्री की अस्मिता से ज्यादा बड़ा आंका जाए। यहां सवाल उठता है कि आखिर ऐसे पुरुषवादी माहौल में शिक्षिका को ऐसा मनोबल कहां से मिला कि वो अपनी गरिमा के खिलाफ आवाज उठाने के लिए तैयार हुई।

एक पुरुष उसके शरीर को गाली नहीं दे सकता, पुरुष की सरकारी नौकरी और स्त्री अस्मिता को एक तराजू में नहीं तौला जा सकता, यह समझ उसे मिली थी संवैधानिक प्रावधानों से, कार्यस्थलों में विशाखा जैसे दिशानिर्देशों से। अगर यह संवैधानिक हौसला नहीं होता तो वो शिक्षिका चुपचाप मर्दवादी गाली सुनते हुए अपना काम करती रहती। उसे भी लगता कि ऐसी शिकायत क्या करना कि जिससे किसी पुरुष की नौकरी चली जाए।

इंसाफ के दर पर

जिस संवैधानिक संस्था से एक महिला अपने अधिकार के लिए बोलने की हिम्मत पाती है, आज वहीं अगर उसे निराश होना पड़े तो आप इसे क्या मानेंगे। क्या यह महिला संघर्ष का कमजोर पड़ना है या कि यह कहें कि यह संघर्ष अब आगे कदम बढ़ाने के बजाय पीछे जा रहा है। अन्य न्यायिक टिप्पणियों और फैसलों को छोड़ हाल के ही एक मामले को लें तो जाहिर हो जाएगा कि महिला अस्मिता का संघर्ष किस तरह के असंवेदनशील नजरियों का सामना करने को विवश है। इंसाफ की कुर्सी से बलात्कार के आरोपी से सवाल पूछा जाता है कि क्या वह पीड़िता से शादी करने को राजी है।

गौरतलब है कि यह सवाल कोई और नहीं पूछ रहा बल्कि यह सुप्रीम कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश की अगुआई वाली बेंच पूछ रहा है उस सरकारी मुलाजिम से, जो 16 साल की किशोरी का लगातार पीछा करने और बलात्कार का आरोपी है। उसने किशोरी की मां पर दबाव डाला कि वह पुलिस में शिकायत न करे तो वो उसकी लड़की से शादी कर लेगा। आरोपी बांबे हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ अग्रिम जमानत याचिका के लिए सुप्रीम कोर्ट गया था। अदालत ने आरोपी से पूछा कि क्या वो शादी कर सकता है। बाद में पता चला कि वो तो पहले से शादीशुदा है, इसलिए शादी नहीं कर सकता है। लेकिन उसे जमानत मिल गई।

पूर्वग्रह का विधान

सुप्रीम कोर्ट के मंच से जब बलात्कार के आरोपी से शादी की बात पूछी जाती है तो यह उस मानसिकता को वैधानिकता देना है कि स्त्री के शरीर पर उसका खुद का हक नहीं है। आप बलात्कार के बदले में शादी की बात कर उसे वैधानिकता दे रहे हैं। एक तरह से आपने महिला की सत्ता को ही नकार दिया। जिस नागरिक की निजता की निशानदेही करनी थी, राज्य को उसके शरीर की स्वतंत्रता की सुरक्षा करनी चाहिए थी, उसके बजाए अगर राज्य की सबसे बड़ी संस्था अपना मर्दवादी नजरिया रखती है तो इससे भयानक कुछ नहीं हो सकता है।

समाज और जनता के बीच वो जहालत आज भी काबिज है जो सामंती मूल्यों की मजबूती चाहती है। वो तो संवैधानिक संस्थाएं ही हैं जिनके पास नागरिकों की स्वतंत्रता को सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी है। खासकर महिलाओं से लेकर जाति के मसले पर संवैधानिक संस्थाओं के जरिए ही सामाजिक सशक्तीकरण हुआ है। लेकिन अब उस स्वतंत्रता की जगह पर भी पुरुषवादी आधिपत्य जमाया जा रहा है। बलात्कारी से शादी का सवाल उसी मानसिकता की देन है। स्त्रियों की दी गई संवैधानिक स्वतंत्रता का इस तरह से अधिग्रहण भविष्य के लिए महिला संघर्ष की राह और मुश्किल बना रहा है।

संघर्ष को आघात

पुलिस और हर तरह का प्रशासन होते हुए हम देख सकते हैं कि आम जनता के जीवन में खाप पंचायतों की क्या भूमिका रही है। कितने संघर्षों के बाद इस सामंती व्यवस्था को थोड़ा कमजोर कर पाने की हालत में महिलाएं पहुंच पाई हैं। पूरे हरियाणा, राजस्थान से लेकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक ‘आॅनर किलिंग’ के सवाल पर नारी सशक्तीकरण आंदोलन की बड़ी भूमिका रही है। लेकिन न्यायिक व्यवस्था द्वारा इस तरह के प्रतिगामी फैसले देकर नारी मुक्ति के लंबे संघर्ष को एक झटके में पीछे धकेल दिया जाता है।

2015 में मध्य प्रदेश सरकार बनाम मदनलाल के मामले में अदालत ने साफ-साफ टिप्पणी की थी- ‘बलात्कार या बलात्कार की कोशिश के मामले में किसी भी हालत में, किसी भी तरह के समझौते की बात सोची भी नहीं जा सकती है। कभी-कभी संतोष देने के लिए ये कहा जा सकता है कि जिसने जुर्म किया है वो शादी कर सकता है तो यह दबाव देने का एक चालाक तरीका भर है।

हम जोर देकर कहना चाहेंगे कि अदालत ऐसे छल-प्रपंच से दूर ही रहेगी।’ जब देश की ही अदालत में बलात्कारी के शादी के प्रस्ताव को छल-प्रपंच करार दिया जा चुका है तो आज इंसाफ के नाम पर जो कहा-सुना या समझाया जा रहा है उसे देखकर तो यही लगता है कि स्त्री मुक्ति आंदोलन को पीछे धकेल एक छल के तहत उसके देह पर पुरुषवादी आधिपत्य जमाने की एक सायास वैधानिक कोशिश शुरू हो चुकी है।