केंद्र में सरकार चुनते वक्त चुनाव का मकसद एक सामान्य राष्ट्रीय उद्देश्य के लिए लोगों को एकजुट करने का होना चाहिए। लोगों के वोट का विभाजन पार्टी ‘क’ या पार्टी ‘ख’ के बीच हो सकता है- कभी-कभी दो से अधिक पार्टियों में भी- पर उद्देश्य समान होना चाहिए। ऐसा विभाजन स्वाभाविक और स्वस्थ माना जाता है, इससे कोई स्थायी घाव भी नहीं पहुंचता।
भारत में कुछ शुरुआती चुनावी मुकाबले असंतुलित थे: कांग्रेस एकमात्र संगठित राजनीतिक दल थी, जवाहरलाल नेहरू एक महान व्यक्ति थे, और कुछ ही ऐसे इलाके थे जो कांग्रेस के विजय रथ को रोकने का प्रयास कर रहे थे। दो प्रतिद्वंद्वियों और समान संरचनाओं के बीच पहला वास्तविक चुनाव 1977 में हुआ था। आपातकाल के बाद जयप्रकाश नारायण विपक्षी दलों को एक छतरी के नीचे ले आए थे। उस चुनाव में जनता पार्टी को निर्णायक जीत मिली थी, मगर उसने भारतीय मतदाता को विभाजित कर दिया था। उसमें उत्तरी और दक्षिणी राज्यों ने बिल्कुल अलग-अलग तरीके से मतदान किया था। उत्तर और दक्षिण के बीच का यह विभाजन 1977 से अब तक कायम है।
अनुचित विभाजन
कुछ अपवादों को छोड़ दें तो, बाद के चुनावों में भी उत्तरी राज्य एक तरह से मतदान करते रहे और दक्षिणी राज्य दूसरी तरह से। हिंदीभाषी और हिंदी जानने वाले उत्तरी राज्यों में मुकाबला मुख्य रूप से कांग्रेस और भाजपा के बीच था। धीरे-धीरे, लेकिन लगातार, कांग्रेस की कीमत पर भाजपा को फायदा मिला। दक्षिणी राज्यों की स्थिति बिल्कुल भिन्न थी। 1977 के बाद हुए चुनावों में, क्षेत्रीय दलों ने कांग्रेस को चुनौती दी: तमिलनाडु में द्रमुक और अन्नाद्रमुक, आंध्र प्रदेश में तेलुगु देशम और वाईएसआर कांग्रेस पार्टी, तेलंगाना में टीआरएस, कर्नाटक में जद (एस) और केरल में कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व वाले एलडीएफ ने। भाजपा इस भीड़ भरी लड़ाई के मैदान में घुसपैठ नहीं कर सकी। कर्नाटक में वह मैदान में उतरी, पर मिलेजुले नतीजे आए। क्षेत्रीय दलों की कामयाबी के चलते उत्तर और दक्षिण के बीच दूरियां बढ़ गई हैं।
दक्षिणी राज्यों की क्षेत्रीय पार्टियां भाजपा से सशंकित हैं। कांग्रेस से ज्यादा, क्षेत्रीय पार्टियां भाजपा को हिंदी, हिंदू और हिंदुत्व की पार्टी के रूप में दर्शाती हैं। क्षेत्रीय भाषा पर गर्व, सभी धार्मिक समूहों की स्वीकार्यता और समाज सुधारकों की विरासत ने दक्षिणी राज्यों के लोगों के सामने एक अलग रास्ता बनाया है। फिर, राजस्व के हस्तांतरण में कथित भेदभाव, क्षेत्रीय भाषाओं पर हिंदी के प्रभुत्व और मान्यताओं का एक ढर्रा (भोजन, वसन, संस्कृति, आदि) लागू करने से उनके संदेह को और बल मिलता है।
इसके अलावा, भाजपा ने राज्यों की स्वायत्तता को कम करने वाले कई कानून बनाकर केंद्र-राज्य संबंधों में ‘केंद्रवाद’ का जहर घोल दिया है। भाजपा ने कानूनों को हथियार बनाया और क्षेत्रीय दलों को वश में करने या बर्बाद करने के लिए उनका खुलेआम इस्तेमाल किया है। नतीजतन, दुर्भाग्य से, उत्तर और दक्षिण के बीच की दूरी अधिक बढ़ गई है।
खुला एजंडा
कांग्रेस के प्रति भाजपा का दृष्टिकोण कोई छिपा हुआ नहीं है: वह ‘कांग्रेस मुक्त’ भारत चाहती है, यानी एक ऐसा भारत, जहां एक पार्टी के रूप में कांग्रेस का अस्तित्व ही न रहे। गैर-कांग्रेसी दलों के प्रति भी भाजपा का दृष्टिकोण अलग नहीं है। ऐसा लग सकता है कि वह कुछ समय के लिए किसी क्षेत्रीय पार्टी के साथ गठबंधन कर रही है, लेकिन उसका असल मकसद उस पार्टी को खत्म करना होता है। इसका प्रमाण जनता पार्टी, अकाली दल, इनेलो, बसपा और जद (एस) की दुर्दशा है। इसने पूर्वोत्तर राज्यों की क्षेत्रीय पार्टियों की पहचान लगभग खत्म कर दी है। एक वक्त में इसने टीएमसी, वाईआरएस कांग्रेस पार्टी और टीआरएस से दोस्ती की थी, लेकिन इसका मकसद क्रमश: पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना से उन्हें खत्म करना था- और है। महाराष्ट्र, ओड़ीशा, आंध्र प्रदेश और हरियाणा में भी लक्ष्य एक ही है। द्रमुक और अन्नाद्रमुक समय रहते चेत गए। शिवसेना, एनसीपी और जजपा काफी देर से जागीं। जल्द ही आरएलडी, बीजेडी और टीडीपी को अहसास हो जाएगा कि अगर केंद्र में भाजपा मजबूत हो गई, तो उनके लिए क्या होगा।
भाजपा अपने मूल एजंडे को आगे बढ़ाने के लिए लोगों से पार्टी को 370 सीटें देने की अपील कर रही है। इसका प्रखर हिंदुत्व अभियान अयोध्या और काशी तक सीमित नहीं रहेगा। हिंदू मंदिरों के पास और भी मस्जिदों को लेकर विवाद उठेंगे। अधिक से अधिक शहरों और सड़कों के नाम बदले जाएंगे। 11 मार्च, 2024 को नियमों की अधिसूचना के साथ नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 का क्रियान्वयन शुरू हो गया है। प्रयोग के तौर पर उत्तराखंड में लागू समान नागरिक संहिता को दोहराया और संसद में एक कानून पारित कर दिया जाएगा। संविधान में संशोधन करके ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ के विचार को कानून बनाया जाएगा। संघवाद और संसदीय लोकतंत्र और कमजोर हो जाएगा तथा भारत सरकार राष्ट्रपति प्रणाली के करीब पहुंच जाएगी, जिसमें सभी शक्तियां एक ही व्यक्ति में केंद्रित हो जाएंगी।
दुर्भाग्य से, बहुत से लोग केंद्रवाद का स्वागत करेंगे, क्योंकि दरअसल, सच्चे लोकतांत्रिक मूल्य अभी तक हमारे पारिवारिक, सामाजिक या राजनीतिक ढांचे में पूरी तरह आत्मसात नहीं किए जा सके हैं। विकास के नाम पर हम अमीरों को अधिक अमीर होते हुए स्वीकार करेंगे और निचले पचास फीसद लोगों से कहेंगे कि वे कुल संपत्ति के तीन फीसद हिस्से और राष्ट्रीय आय के तेरह फीसद हिस्से से संतुष्ट रहें। सामाजिक और सांस्कृतिक पराधीनता तथा उत्पीड़न जारी रहेगा। आर्थिक विषमताएं और बढ़ेंगी।
इतिहास से सबक
ये सब बातें कोई काल्पनिक डरावनी कहानी नहीं है। इतिहास हमें सिखाता है कि स्वतंत्रता और विकास सुनिश्चित करने के लिए समय-समय पर शासन को बदलते रहना चाहिए। यूरोपीय देश ऐसा हर समय करते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका में कार्यकाल की सीमाएं तय हैं। दक्षिण अमेरिका और अफ्रीका के कई देशों ने यह सबक नहीं सीखा, जिसका नतीजा है कि वे सत्तावादी सरकारों के अधीन पीड़ित हैं। भारत में हमने यह सबक तो सीखा था, लेकिन लगता है कि उसे भूल गए हैं। चीन, रूस, तुर्किए और ईरान के उदाहरण हमारे सामने हैं। भारत के चुनाव पर दुनिया की नजर है।