दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्रों में से एक में संप्रभु (राजा या रानी) शासन है। उसका कोई लिखित संविधान नहीं है, फिर भी उसे अन्य संवैधानिक लोकतंत्रों के लिए एक आदर्श शासन माना जाता है। ‘संविधान’ के अनुसार ब्रिटेन का शासन उन देशों से श्रेष्ठ है, जिनके पास लिखित संविधान है। एक ओर डेनमार्क, स्वीडन, नार्वे, स्विट्जरलैंड आदि देश हैं और दूसरी ओर चीन, ईरान, म्यांमा आदि देश हैं। वी-डेम इंस्टीट्यूट ने प्रथम उल्लिखित देशों को उदार लोकतंत्रों की सूची में सबसे ऊपर रखा है और बाद में उल्लिखित देशों को बंद निरंकुश देशों के रूप में वर्गीकृत किया है।

मुझे लगता है कि भारत इन दोनों के बीच में है। इसका एक लिखित और लंबा संविधान है। डॉ. आंबेडकर, मसविदा समिति और संविधान सभा में उनके सहयोगियों को मसविदा पूरा करने और संविधान को अपनाने में 2 साल, 11 महीने और 17 दिन लगे। संविधान सभा में हुई बहसें लोकतांत्रिक बहस, असहमति और निर्णय लेने का एक आदर्श रूप हैं।

लड़खड़ाए और संभले

हमने तिहत्तर सालों तक संविधान पर काम किया है। जब भी संसद को कमियां दिखीं- और कभी-कभी नहीं दिखीं तब भी- संसद ने संविधान में संशोधन किया। अब तक संविधान में 106 संशोधन हो चुके हैं। कई कानूनी विद्वानों का मानना है कि जब आपातकाल लागू था, तो संविधान को एक स्पष्ट और गंभीर चुनौती का सामना करना पड़ा। ऐसे अन्य उदाहरण भी हैं, जब संविधान को गुप्त चुनौतियों का सामना करना पड़ा: संविधान क्षतिग्रस्त हो गया, लेकिन यह बचा रहा।

गुप्त आक्रमण

जब ऐसे अवसरों पर भारत का सर्वोच्च न्यायालय शरीक हुआ, तो वह लड़खड़ा गया होगा, लेकिन समय रहते वह संभल गया। न्यायालय ने साबित कर दिया कि उसमें यह स्वीकार करने की विनम्रता थी कि वह गलत था। एके गोपालन, आईसी गोलकनाथ और एडीएम, जबलपुर के मामलों में न्यायालय लड़खड़ा गया था। दूसरी तरफ मेनका गांधी, एसआर बोम्मई, केशवानंद भारती और केएस पुट्टस्वामी के मामलों में न्यायालय ने खुद को सुधारा और एक उदार लोकतांत्रिक संविधान के मूलभूत सिद्धांतों पर जोर दिया।

हाल की कुछ घटनाओं ने चिंता पैदा कर दी है। मेरे विचार में, ये संविधान पर गुप्त आक्रमण हैं:

  • पिछले कुछ समय में जिन कदमों की वैधता पर सवाल उठाए गए, उनमें 5 अगस्त, 2019 को जम्मू और कश्मीर राज्य को विघटित कर दो केंद्र शासित प्रदेश बनाने का फैसला भी है। संविधान की एक विचित्र व्याख्या में, संसद ने संसद से परामर्श किया और संसद के ‘मत’ प्राप्त करने के बाद, संसद ने राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बदल दिया। इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि भविष्य में किसी अन्य राज्य के साथ ऐसा नहीं होगा।
  • दो मौकों पर, केंद्र सरकार ने केंद्र शासित प्रदेश दिल्ली (जीएनसीटीडी) को 1992 से प्राप्त शक्तियों से वंचित करने के इरादे से कानून पारित किए। दोनों अवसरों पर सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को फटकार लगाई। संसद के मानसून सत्र में सरकार ने एक कानून बनाकर सरकारी कर्मचारियों पर निर्वाचित मंत्रियों का नियंत्रण छीन लिया और यह शक्ति नियुक्त उपराज्यपाल को दे दी। मंत्रियों को सिविल सेवकों और उपराज्यपाल की दया पर छोड़ दिया गया।
  • भारत का निर्वाचन आयोग विशाल शक्तियों से संपन्न एक संवैधानिक निकाय है। यह स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव तथा हर पांच साल में लोकतंत्र के प्रति हमारी प्रतिबद्धता का नवीकरण कराता है। अनूप बरनवाल के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने एक तंत्र बनाया, जो यह सुनिश्चित करता था कि एक गैर-पक्षपातपूर्ण निकाय (प्रधानमंत्री, भारत के प्रधान न्यायाधीश और विपक्ष के नेता) चुनाव आयुक्तों का चयन करेगी। मगर एक क्रूर कदम उठाते हुए, केंद्र सरकार ने उस फैसले को अमान्य कर दिया। प्रधान न्यायाधीश के स्थान पर प्रधानमंत्री द्वारा नामित एक मंत्री को उसमें शामिल करने का कानून पारित कर दिया। अगर यह कानून कानूनी चुनौती से बच गया, तो यह भारत में लोकतंत्र की दिशा बदल सकता है।
  • राज्य विधानसभाएं विधेयक पारित करती हैं। संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत, राज्यपाल किसी विधेयक को अनुमति दे या नहीं दे सकता है या राष्ट्रपति के विचार के लिए सुरक्षित कर सकता है। कुछ राज्यपाल उपरोक्त में से कुछ भी नहीं करते हैं; वे बस विधेयकों पर बैठे रहते हैं। इसी प्रकार, विधान परिषद में व्यक्तियों को मनोनीत करने के प्रस्तावों पर राज्यपाल बैठ जाते हैं। संविधान की दसवीं अनुसूची का उल्लंघन करने पर किसी सदस्य को अयोग्य ठहराने की याचिकाओं पर विधानसभा अध्यक्ष बिना निर्णय लिए मामले पर बैठे रहते हैं। क्या शक्तियों का प्रयोग किए बिना विधेयकों या मामलों पर बैठे रहना संविधान को क्रियान्वित करने जैसा है?
  • संविधान पर हमले का ताजा उदाहरण मणिपुर की स्थिति है। राज्य को वास्तविक विभाजन का सामना करना पड़ रहा है। कोई भी कुकी इंफल घाटी में प्रवेश नहीं कर सकता और कोई मैतेई कुकी प्रभुत्व वाले जिलों में प्रवेश नहीं कर सकता। मुख्यमंत्री और उनके मंत्री अपने आवासीय परिसर से बाहर नहीं निकल सकते। अभी राज्यपाल ने विधानसभा को इंफल में बैठक के लिए बुलाया है, लेकिन दस कुकी सदस्य (साठ सदस्यों में से) सत्र में भाग ले पाने की स्थिति में नहीं हैं। अगर यह स्थिति संविधान का ‘विखंडन’ नहीं है (और मुख्यमंत्री को पद पर बने रहने की अनुमति है), तो अनुच्छेद 356 को संविधान से मिटा दिया जाना चाहिए।

आंबेडकर की चेतावनी

25 नवंबर, 1949 को, मतदान से एक दिन पहले डा. भीमराव आंबेडकर ने अपना समापन भाषण दिया था। उन्होंने कहा था-
‘‘कोई संविधान कितना भी अच्छा क्यों न हो, उसका खराब होना तय है, क्योंकि जिन लोगों को इसे लागू करने की जिम्मेदारी दी जाती है, वे बुरे लोग होते हैं। कोई संविधान चाहे कितना भी बुरा क्यों न हो, वह तब तक अच्छा साबित हो सकता है जब तक उसे लागू करने वाले लोग अच्छे होंगे। संविधान का कार्य पूरी तरह से संविधान की प्रकृति पर निर्भर नहीं करता है।’’ कृपया अपने आप से पूछें, क्या हम संविधान पर काम कर रहे हैं या संविधान को नष्ट कर रहे हैं?