यह वर्ष 2024 में पहला स्तंभ है और मैं खुशनुमा नववर्ष के लिए नए सिरे से सभी अपनी शुभकामनाएं देता हूं। कई हिस्सों में खुशियां हैं। भारत में 142 करोड़ लोग अलग-अलग वर्गों से संबंधित हैं। मैं सोचता हूं कि कौन खुश है और कौन नहीं। हाल के दिनों में, मैंने कई लेख पढ़े हैं जो सरकार के इस दावे का जोरदार समर्थन करते हैं कि हर कोई खुश है। लेखकों ने दावा किया है कि भारत ने अभूतपूर्व आर्थिक विकास देखा है और लाभ लोगों के हर वर्ग तक पहुंचा है। मैं इस बात से इंकार नहीं करता कि अर्थव्यवस्था ने वृद्धि दर्ज की है लेकिन यह निश्चित रूप से अभूतपूर्व नहीं है।

यूपीए के शासन में वर्ष 2005-2008 के बीच का तीन साल ‘विकास का स्वर्ण काल’ था। तब जीडीपी सालाना 9.5, 9.6 और 9.3 फीसद की दर से बढ़ी थी। प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में अर्थव्यवस्था पिछले नौ साल में औसतन 5.7 फीसद की दर से बढ़ी है। अगर हम 2023-24 में 7.3 फीसद की अनुमानित वृद्धि को जोड़ दें तो औसत दर अब भी 5.9 फीसद रहेगी। यह अभूतपूर्व या शानदार नहीं है; यह संतोषजनक वृद्धि है, लेकिन न तो इसका लाभ सभी तक पहुंच रहा है और न ही पर्याप्त है।

प्रसन्न लोग

सरकार की आर्थिक नीतियां, कम प्रत्यक्ष करों, कठोर उपायों के साथ उच्च और अक्सर दमनकारी अप्रत्यक्ष करों, सड़क, रेलवे, बंदरगाहों और हवाई अड्डों (शिक्षा और स्वास्थ्य देखभाल के लिए अपर्याप्त आवंटन के साथ) जैसे कठिन बुनियादी ढांचे में पूंजी निवेश और महिलाओं के लिए छूट की ओर झुकती हैं। संतोषजनक विकास दर ने कुछ वर्गों को खुश किया है। मैं संतुष्ट वर्गों की गिनती कर सकता हूं : बड़े और मध्यम कारपोरेट; बड़ी संपदा वाले लोग; बैंकर; शेयर बाजार निवेशक, व्यापारी और दलाल; संकटग्रस्त परिसंपत्तियों के खरीदार;   साफ्टवेयर पेशेवर; बड़े व्यापारी; न्यायाधीश, चार्टर्ड एकाउंटेंट, चिकित्सक और वकील जैसे पेशेवर; विश्वविद्यालय और कालेज के शिक्षक; सरकारी कर्मचारी; अमीर किसान; और साहूकार।

स्याह पहलू

तस्वीर का स्याह पक्ष यह है कि लोगों के कई वर्ग पीछे छूट गए हैं – कुछ तो छूट ही गए हैं – और इन वर्गों में लोगों का विशाल बहुमत है। पहले खंड में 82 करोड़ भारतीय शामिल हैं, जिन्हें प्रति व्यक्ति प्रति माह पांच किलोग्राम का मुफ्त राशन दिया जाता है। मुफ्त राशन योजना आर्थिक प्रगति या समृद्धि को चिह्नित करने के लिए सम्मान का बिल्ला नहीं है।

मुफ्त राशन व्यापक कुपोषण और कई स्थानों पर भूख का संकेत है। देश में आधे से अधिक परिवार चावल या गेहूं जैसे स्टेपल खरीदने में असमर्थ क्यों हैं? इसका जवाब कम आय और/या बेरोजगारी की वजह है। सरकार के पास इन दोहरे ज्वलंत मुद्दों के समाधान के लिए कोई नीति नहीं है। मनरेगा का उद्देश्य कम पारिवारिक आय वर्ग के लिए रास्ता निकालना था, और उनकी आय दुरुस्त करना था, लेकिन इस योजना के प्रति मौजूदा सरकार की उदासीनता शुरू से ही स्पष्ट रही है। अप्रैल 2022 के बाद से सरकार ने पंजीकृत श्रमिकों की सूची से 7.6 करोड़ श्रमिकों को हटा दिया है।

मौजूदा सूची में से एक तिहाई से अधिक पंजीकृत श्रमिक (8.9 करोड़) और सक्रिय श्रमिकों का आठवां हिस्सा (1.8 करोड़) आधार आधारित भुगतान प्रणाली लागू करने के कारण अमान्य हो गया है। मनरेगा योजना से सहयोग के बिना, वे लोग और उनके परिवार न जाने जीवन का सामना कैसे कर रहे हैं? उनके लिए जीवन बेहद कठिन है और निश्चित रूप से वे खुश नहीं हैं।

नौकरी के बिना, मुद्रास्फीति के साथ

दूसरा बड़ा वर्ग जो नाखुश है, वह है बिना नौकरी वाले लोग। सरकार अब रोजगार सृजन की बात नहीं करती। उसका मानना है कि वह स्वरोजगार में कथित वृद्धि की बात करके लोगों को बहका सकती है। एक ऐसे देश में जहां एक बच्चा स्कूल में औसतन सात-आठ साल खर्च करता है, और वह भी बिना किसी कौशल प्रशिक्षण के, स्व-रोजगार का मतलब बेरोजगारी है।

तथाकथित स्व-नियोजित युवक या युवती को अनियमित रूप से और जिस आय पर काम मिलता है, वह मुद्रास्फीति के लिहाज से सपाट या कम होता है (नियमित रोजगार की तुलना में)। उसे कोई अन्य लाभ या सुरक्षा नहीं मिलती। युवा बेरोजगारी दर 10.0 फीसद है और 25 वर्ष से कम आयु के स्रातकों में यह दर 42 फीसद है। निश्चित रूप से वे खुश नहीं हैं।

नाखुश लोगों का एक और समूह मुद्रास्फीति की मार झेल रहा है। इसमें शीर्ष 10 फीसद को छोड़कर वह हर कोई शामिल है जो देश की 60 फीसद संपदा का मालिक है और राष्ट्रीय आय का 57 फीसद कमाता है। वर्ष 2022 में औसत मुद्रास्फीति 6.7 फीसद थी। वर्ष 2023 में मुद्रास्फीति 12 महीनों में से चार में दो से छह फीसद की ऊपरी सीमा को पार कर गई। नवंबर 2023 में मुद्रास्फीति 5.55 फीसद थी।

खाद्य मुद्रास्फीति इस समय 7.7 फीसद है। आरबीआइ के दिसंबर 2023 के मासिक बुलेटिन के अनुसार, ‘मुद्रास्फीति लक्ष्य के सापेक्ष उच्च बनी रहेगी।’ मुद्रास्फीति के परिणामस्वरूप उपभोग और घरेलू बचत में कमी आई है, और घरेलू देनदारियां बढ़ी हैं। सरकार ने मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने की अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया है और यह काम आरबीआइ पर छोड़ दिया है।

यह अप्रत्यक्ष करों को कम करने (गरीबों पर कीमतों के बोझ को कम करने के लिए) के उलट है, क्योंकि मुझे संदेह है, यह निश्चित नहीं है कि यह राजकोषीय घाटे के लक्ष्य को पूरा करने में सक्षम होगा या नहीं। मोदी के दौर में हासिल की गई मामूली वृद्धि का प्रभाव एक बड़े वर्ग में नहीं दिखा, क्योंकि सरकार की नीतियां मुद्रास्फीति और बेरोजगारी से निपटने में विफल रही हैं।

इसके अलावा, सरकार की नीतियां धनवानों की, धनवानों के द्वारा और धनवानों के लिए हैं। ये नीतियां संपदा के केंद्रीयकरण और एकाधिकार नहीं तो अल्पाधिकार की पक्षधर हैं। मुझे लगता है कि नया साल कुछ ही लोगों को खुश कर सकता है, लेकिन लोगों के बड़े वर्ग को दुखी कर देगा।