हाल ही में आस्ट्रेलिया में सोलह वर्ष तक के बच्चों के लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल प्रतिबंधित करने के लिए विधेयक पास किया गया है। यह पहली बार है जब किसी देश में बच्चे फेसबुक, इंस्टाग्राम, स्नैपचैट और टिकटाक जैसे सोशल मीडिया मंच इस्तेमाल नहीं कर पाएंगे। अगर सोशल मीडिया कंपनियां ऐसा नहीं कर पाईं, तो उन पर भारी जुर्माना लगाया जा सकता है। उसके बाद से विश्व के अनेक देशों सहित भारत में भी यह विषय चर्चा का बना हुआ है कि बच्चों के लिए सोशल मीडिया प्रतिबंधित होना चाहिए या नहीं। यह सच है कि आज की डिजिटल दुनिया में बच्चे छोटी आयु में ही इंटरनेट का इस्तेमाल करना शुरू कर देते हैं। उसी में वे खोए रहते हैं। आंकड़ों के मुताबिक भारत में उनचालीस करोड़ अस्सी लाख युवा सोशल मीडिया का इस्तेमाल करते हैं।
नाबालिग बच्चों की सोशल मीडिया पर उपस्थिति
एक राष्ट्रीय सर्वेक्षण में पाया गया कि नौ से सत्रह वर्ष की आयु के साठ फीसद बच्चे सोशल मीडिया या गेमिंग मंच पर प्रतिदिन तीन घंटे से ज्यादा समय बिताते हैं। ‘इंटरनेशनल जर्नल आफ पीडियाट्रिक रिसर्च’ में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार 87.82 फीसद बच्चे सोशल मीडिया का उपयोग कर रहे थे, जिनमें से वाट्सऐप 81.14 फीसद, फेसबुक 54.94 फीसद, ट्विटर 10.5 फीसद, यूट्यूब 70.61 फीसद, ईमेल 65.34 फीसद और नौ फीसद अन्य सोशल मीडिया माध्यमों का उपयोग कर रहे थे। यह एक तथ्य है कि सूचना क्रांति के बाद तेजी से उभरे डिजिटल युग ने समाज के हर वर्ग, विशेष रूप से बच्चों और किशोरों के सामने एक गंभीर चुनौती उत्पन्न कर दी है। सवाल है कि क्या सोशल मीडिया को बच्चों के लिए प्रतिबंधित कर इस चुनौती का सामना किया जा सकता है। सवाल यह भी है कि क्या वास्तव में इसे प्रतिबंधित किया भी जा सकता है या नहीं।
मशीनों पर निर्भर हो गई है जिंदगी
आनलाइन शापिंग, आनलाइन फूड डिलीवरी, आनलाइन चिकित्सीय सलाह, आनलाइन लेन-देन, आनलाइन पासपोर्ट आदि, यहां तक कि अब मंदिरों में दर्शन और प्रसाद भी आनलाइन संभव हो गया है। जब परिवार और समाज की हर आवश्यकता आनलाइन पूरी की जाने लगी हो, तो उस पर रोक लगाना कैसे संभव हो सकता है। क्या मनुष्य कभी आधुनिक समाज से पुराने दौर में लौटना स्वीकार कर सकता है, क्या कभी मशीनों के स्थान पर अब फिर से बैलगाड़ी या हल से खेती करने को प्राथमिकता दी जा सकती है। संभवत: ऐसा किसी भी तरह संभव नहीं हो सकता। इसलिए नई तकनीक को प्रतिबंधित करने के स्थान पर यह सोचना होगा कि इस चुनौतीपूर्ण परिवर्तन का सामना कैसे किया जा सकता है।
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इसमें कोई दो मत नहीं कि सोशल मीडिया का आवश्यकता से अधिक उपयोग न केवल मानसिक स्वास्थ्य, बल्कि शारीरिक समस्याओं का भी कारण बन सकता है। यही वजह है कि दुनिया भर में सोशल मीडिया कंपनियों की जिम्मेदारियां बढ़ाने की मांग जोर पकड़ रही है। खासकर बच्चों की आनलाइन सुरक्षा पर कई देश नए कानून बनाने की कवायद कर रहे हैं। मगर जिस दौर में सब कुछ डिजिटल होता जा रहा है, दुनिया में ऐसा कोई क्षेत्र नहीं बचा है, जहां विकसित तकनीक का प्रयोग नहीं हो रहा है। ऐसे में इसे प्रतिबंधित कैसे किया जा सकेगा।
कोरोना के बाद शिक्षा का एकमात्र विकल्प बना स्मार्ट फोन
नव-उदारवादी व्यवस्था के उभार के बाद ही तो निगरानीमूलक समाज अस्तित्व में आया है, जहां हर कोई हर समय कैमरे की नजर में है। क्या आधुनिक तकनीक के बिना इस तरह की निगरानी रखना संभव हो सकता है? आए दिन ‘डिजिटल अरेस्ट’ और आर्थिक फर्जीवाड़े के मामले सामने आ रहे हैं। क्या हम उनको रोक पा रहे हैं? जब साइबर अपराध जैसी घटनाओं को रोक नहीं पा रहे तो सोचा जा सकता है कि बच्चों को इनके उपयोग से कैसे रोका जाएगा। यह चिंता का विषय है।
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कोरोना महामारी के बाद से तो जैसे शिक्षा का एकमात्र विकल्प ‘स्मार्ट फोन’ ही बन कर रह गया है। नई शिक्षा नीति में तो स्मार्ट फोन का उपयोग जरूरी-सा हो गया है। आनलाइन सेमिनार-सम्मेलन, कार्यशाला-प्रशिक्षण, लाइब्रेरी, ई-कक्षाएं वर्तमान शिक्षा पद्धति का महत्त्वपूर्ण हिस्सा बन गए हैं। इसलिए सोशल मीडिया को प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता, क्योंकि ऐसा करने से वे ज्ञान और सूचना से भी दूर हो जाएंगे। यह जरूर है कि बच्चों को उसके सही उपयोग के लिए जागरूक किया जा सकता है। स्मार्ट फोन में ‘पैरेंटल कंट्रोल’ या अभिभावकीय नियंत्रण की सुविधा के माध्यम से बच्चों के ‘स्क्रीन टाइम’ और गतिविधि पर नियंत्रण किया जा सकता है, उनके द्वारा देखे जाने वाली दृश्य-सामग्री को भी प्रतिबंधित किया जा सकता है। साथ ही यह भी पता लगाया जा सकता है कि बच्चे किस वेबसाइट या ऐप पर कितना समय बिता रहे हैं या क्या देख रहे हैं।
बच्चों को बताएं सोशल मीडिया का लाभ और हानि
इसलिए बच्चों को सोशल मीडिया के लाभ और हानि के बारे में भी बताना जरूरी है। परिवार के साथ समय बिताएं, घूमने जाएं और घर से बाहर खेलने के लिए बच्चों को प्रेरित करें। उन्हें बताएं कि सोशल मीडिया पर अपनी निजी जानकारी और फोटो साझा न करें, किसी अपरिचित से मित्रता आग्रह स्वीकार न करें। हानिकारक सामग्री को ब्लाक करें। बच्चों का ‘स्क्रीन टाइम’ सुनिश्चित करें। अधिकांश बच्चे ‘आनलाइन गेमिंग’ के दौरान हैकरों को अपने यंत्र तक की पहुंच दे देते हैं, जिससे वे डिजिटल ठगी का शिकार हो सकते हैं। उन्हें सिखाना होगा कि किसी भी अपरिचित लिंक पर क्लिक न करें या ऐसे किसी भी ऐप को डाउनलोड न करें।
आजकल बच्चे जहां भी जाते हैं, जो खाते हैं, पहनते हैं या खरीदते हैं, उसे सोशल मीडिया पर तुरंत अपलोड कर देते हैं, जिससे उनकी सुरक्षा को खतरा हो सकता है। इसलिए बच्चों को समझाना होगा कि वे अपना स्थान सोशल मीडिया पर साझा न करें। डिजिटल सुरक्षा के उपायों को जानें, समझें और आवश्यकता होने पर ही आनलाइन रहें। मनोरंजन के लिए भौतिक संसाधनों का प्रयोग करें, दोस्तों के साथ समय बिताएं या खेलें, आभासी के बजाय वास्तविक संबंधों को समय दें। स्कूल के गृहकार्य या ‘प्रोजेक्ट’ के लिए गूगल या अन्य आनलाइन मंचों का उपयोग केवल सूचना प्राप्त करने के लिए करें। उस पर निर्भर न बनें।
बच्चों को बनाएं सृजनात्मक
बच्चों को आभासी समाज से वास्तविक समाज की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित करना होगा। ऐसा करने में राज्य, प्रशासन, समाज, परिवार, अकादमिक संस्थानों और नीति निर्माताओं सभी को अपनी भूमिका निभानी होगी, क्योंकि बच्चों को आभासी समाज की ओर धकेलने में कहीं न कहीं ये सभी जिम्मेदार हैं। मीडिया की भूमिका भी इस दिशा में कोई कम महत्त्वपूर्ण नहीं है, क्योंकि मीडिया के पास लोगों, खासकर बच्चों को आकर्षित और प्रभावित करने की शक्ति होती है। वह बच्चों के व्यक्तित्व को सृजनात्मक और विध्वंसात्मक दोनों ही तरह से प्रभावित करता है। आज के दौर में मनुष्य को ‘स्मार्ट’ बनाने की जरूरत है जबकि मनुष्य मशीन को ‘स्मार्ट’ बनाने में लगा है।