Justice Murlidhar: सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने मद्रास हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस के पद के लिए अनुशंसित जस्टिस एस मुरलीधर के नाम को अभी तक केंद्र सरकार ने मंजूरी नहीं दी है। सरकार ने 28 सितंबर को एक प्रस्ताव से कॉलेजियम द्वारा ट्रांसफर के लिए बताए गए अन्य नाम को मंजूरी दे दी। जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस पंकज मिथल जल्द ही राजस्थान हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस के रूप में कार्यभार संभालेंगे। लेकिन जस्टिस मुरलीधर के बारे में अभी तक कुछ भी नहीं कहा गया है।
दिल्ली हाई कोर्ट से पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट में जस्टिस मुरलीधर के ट्रांसफर ने खूब सुर्खियां बटोरीं थीं जब आधी रात को दिल्ली के बार एसोसिएशन के कड़े विरोध के बावजूद उनका ट्रांसफर कर दिया गया था हालांकि बार एसोसिएशन ने इसकी निंदा भी की थी। फरवरी 2020 में उनका ट्रांसफर लेटर आया था, जिसके एक दिन बाद जस्टिस ने दिल्ली दंगों के दौरान भाजपा के अनुराग ठाकुर, परवेश वर्मा, अभय वेमा और कपिल मिश्रा द्वारा कथित भड़काऊ भाषणों पर पुलिस कार्रवाई का आदेश दिया।
‘CAA आंदोलन के समय हुआ था तबादला’
नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के खिलाफ दिल्ली में हुए हिंसक प्रदर्शनों के दौरान तत्कालीन केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने 12 फरवरी को जस्टिस मुरलीधर के तबादले की सिफारिश की थी। दिल्ली हाई कोर्ट के जस्टिस एस. मुरलीधर के तबादले के बाद सियासी गलियारों में बवाल शुरू हो गया था। विपक्षी दल लगातार इस तबादले पर सवाल उठाने लगे थे।
जानिए कौन हैं जस्टिस एस. मुरलीधर
जस्टिस एस. मुरलीधर ने दिल्ली यूनिवर्सिटी से साल 2003 में पीएचडी की डिग्री हासिल की थी। साल 2004 में उन्होंने ‘लॉ, पॉवर्टी एंड लीगल एड: एक्सेस टू क्रमिनिल जस्टिस’ नाम की एक किताब भी लिखी थी। दिल्ली हाईकोर्ट की आधिकारिक वेबसाइट के अनुसार, जस्टिस एस. मुरलीधर ने साल 1984 में चेन्नई से अपनी वकालत की प्रैक्टिस शुरू की थी। उन्होंने साल 1987 में सुप्रीम कोर्ट और दिल्ली हाई कोर्ट में भी प्रैक्टिस शुरू कर दी थी। साल 2006 में उन्हें दिल्ली हाईकोर्ट में जज नियुक्त किया गया था। इसके अलावा वो दो बार सुप्रीम कोर्ट की लीगल सर्विस कमेटी के सक्रिय सदस्य भी रहे।
समलैंगिकता को वैध बनाने वाले फैसले में भी थे शामिल
जस्टिस एस मुरलीधर के ऐतिहासिक फैसलों में 1984 के सिख विरोधी दंगों के लिए कांग्रेस नेता सज्जन कुमार के लिए आजीवन कारावास और हाशिमपुरा हत्याकांड के लिए पुलिसकर्मियों की सजा शामिल थी, जिसमें 1987 में 42 मुस्लिम समुदाय के लोगों को उठाकर मार दिया गया था। वह साल 2009 में पहली बार समलैंगिकता को वैध बनाने वाले उच्च न्यायालय की बेंच का भी हिस्सा रहे थे। यह पहली बार नहीं है जब सरकार ने सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम की सिफारिश को विभाजित किया है।