अनिरुद्ध गौड़
दुबई में पिछले महीने भयंकर आंधी-तूफान, भारी बारिश और बाढ़ से हालात संभले भी नहीं थे कि इस महीने की शुरुआत में दूसरी बार हुई ओलावृष्टि और भारी बारिश ने हालात और बिगाड़ दिए। दुबई में बारह घंटे में बीस मिमी और अबुधाबी में चौबीस घंटे में चौंतीस मिमी बारिश हुई, जो अप्रैल-मई में होने वाली बारिश से चार गुना ज्यादा है। विशेषज्ञ और शोधकर्ता इन देशों में चरम वर्षा के पीछे जलवायु परिवर्तन को कारण बता रहे हैं। हालांकि कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि यह शोध का विषय है।
प्राकृतिक तूफान से दुबई का हाल ऐसा हुआ कि 15 और 16 अप्रैल की वर्षा से दुबई में भयानक बाढ़ जैसे हालात हो गए। आंधी-तूफान से ऊंची इमारतों की बालकनी में रखे सामान उड़ गए। लोगों की कारें जहां-तहां डूब गईं। माल, घर और बड़े-बड़े दफ्तरों की इमारतों में पानी घुस गया। दुनिया का बेहद व्यस्त दुबई अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा जलमग्न हो गया। तमाम अंतरराष्ट्रीय उड़ानें रद्द करनी पड़ीं और हवाई जहाजों को पार्क करने के लिए जलमग्न हवाई अड्डे पर ऊंचाई वाली जगहें तलाशनी पड़ीं। वहां कभी इतना पानी नहीं बरसा, इसलिए जल निकासी व्यवस्था भी इसके लिए तैयार नहीं थी।
पृथ्वी पर 71 फीसद पानी और 29 फीसद जमीन है। इस 29 फीसद जमीन पर एक तिहाई भाग ठंडा और गर्म रेगिस्तान है। अरब का उपोष्णकटिबंधीय रेगिस्तान 23.3 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला है। इसका अधिकतर भाग सऊदी अरब में है, जबकि बड़ा भाग जार्डन, इराक, कुवैत, कतर, संयुक्त अरब अमीरात, ओमान और यमन तक फैला हुआ है। रेगिस्तान में पूरे वर्ष में 250 मिमी से भी कम औसत वर्षा होती है। दुनिया के लोग खाड़ी के रेगिस्तानी देशों में इतनी बड़ी बारिश की तबाही का मंजर देख कर हैरान हैं। क्या यह जलवायु परिवर्तन का असर है या कुदरत के काम में मानव की दखलंदाजी है?
भयानक आंधी-तूफान से सऊदी अरब, बहरीन, कतर, ओमान में तबाही मच गई, जिसमें संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) में भारी वर्षा और तूफान से स्थिति गंभीर हो गई। राजधानी अबुधाबी सहित आधुनिक शहर दुबई में चारों तरफ पानी भर गया। सभी गतिविधियां रुक गईं। ओमान में तूफान और भारी बारिश का कहर हुआ, अनेक लोग मरे, तो बाढ़ से नदियां उफन गईं, जिनकी जद में कई शहर आ गए। इसी दौरान पाकिस्तान के बलूचिस्तान और खैबरपख्तूनख्वा सहित अफगानिस्तान के इलाकों में भी भारी बारिश की वजह से लोग त्राहिमाम कर उठे।
संयुक्त अरब अमीरात अपने रेगिस्तानी शहरों को हरा-भरा करने और घटते भूजल स्तर को सुधारने के लिए अक्सर वर्ष में कई बार ‘क्लाउड सीडिंग’ से वर्षा कराता है। इससे तीस से पैंतीस फीसद अधिक बारिश हो जाती है। हालांकि यह पूरी तरह स्पष्ट नहीं है कि इस घटना से पहले कृत्रिम बारिश के कितने प्रयास हुए, लेकिन दुबई में इस तरह की भारी वर्षा कभी नहीं हुई।
कृत्रिम बारिश की विधि विज्ञान ने ईजाद कर ली है। चीन में जब 2022 में ओलंपिक खेल हुए तो खबर थी कि बेजिंग में उद्घाटन से पहले छाए बादलों में क्लाउड सीडिंग कर पहले ही वर्षा कर उन्हें हल्का कर दिया गया, ताकि उद्घाटन के दिन बादल न बरसें। दुबई में राष्ट्रीय मौसम विज्ञान केंद्र (एनसीएम) कृत्रिम बारिश कराने के लिए हवाई यान के जरिए रसायन का छिड़काव कर क्लाउड सीडिंग करता रहता है। मगर इस तकनीक में अभी यह कहना मुश्किल है कि किस प्रयास से कितनी अधिक बारिश होगी। पर इतना तो जरूर है कि मौसम में बदलाव लाने की कोशिश प्रकृति से छेड़छाड़ का दुस्साहस है।
अटकलें लगाई जा रही हैं कि दुबई में क्लाउड सीडिंग ने इस भारी वर्षा में योगदान दिया है। लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि आंधी-तूफान और बारिश के पूर्वानुमान की सूचना देने वाली दुबई की व्यवस्था और एजंसियों ने पहले ही भारी आंधी-तूफान और बारिश की चेतावनी दे दी थी। प्रश्न है कि फिर ओमान और बहरीन ने तो क्लाउड सीडिंग नहीं की थी, फिर वहां क्यों भारी बारिश हुई।
समझा जा रहा है कि समुद्री इलाके में भारी दवाब के चलते तबाही की बारिश हुई है। प्रश्न है कि आखिर खाड़ी देशों में इस तरह आंधी-तूफान और बारिश क्यों हो रही है, जबकि वहां आमतौर पर इन दिनों बारिश नहीं होती। विशेषज्ञों का मानना है कि मध्यपूर्व में मौसम बदलने के पीछे की वजह दक्षिण पश्चिम की ओर से आया कम दबाव है और इसी वजह से बने बादलों ने मध्यपूर्व के इन देशों में कहर ढाया।
पिछले पचहत्तर वर्षों में दुबई में इतनी भारी बारिश नहीं हुई है। दो दिन में डेढ़-दो साल में होने वाली बारिश के बराबर पानी बरस गया। ‘द वाशिंगटन पोस्ट’ की एक खबर में दुबई अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के मौसम संबंधी आंकड़े बताते हैं कि उस दिन सोमवार को देर रात से सुबह तक लगभग 20 मिलीमीटर बारिश हुई। फिर मंगलवार सुबह शुरू हुई बारिश ने चौबीस घंटे में 142 मिलीमीटर (5.59 इंच) बारिश कर दी। जबकि वहां पूरे वर्ष में कुल 94.7 मिलीमीटर (3.73 इंच) बारिश होती है।
वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी और मौसम के बदलावों को लेकर संयुक्त राष्ट्र ने 1992 में चिंता जताई थी। फिर 1992 में रियो पृथ्वी शिखर सम्मेलन में इसका खाका तैयार किया गया। इस सम्मेलन के उप-महासचिव रहे नितिन देसाई ने एक पत्रिका को दिए गए एक साक्षात्कार में बताया कि उस समय अमेरिका जैसे कई देश इस बात को लेकर संशय में थे कि क्या वाकई इंसानों की वजह से जलवायु परिवर्तन हो रहा है।
संयुक्त राष्ट्र के अंतर-सरकारी प्रकोष्ठ की पहली रिपोर्ट में तो खुले तौर पर इसे जिम्मेदार नहीं माना गया था, लेकिन 2001 में अपनी तीसरी रिपोर्ट में उसने यह बात स्वीकार की थी कि इंसानों की वजह से भी जलवायु परिवर्तन हो रहा है। आज तो इस बात पर आम सहमति भी है।
समुद्र तल बढ़ रहा है, वैश्विक तापमान 1.5 डिग्री से ऊपर जा रहा है। सर्दी के मौसम में गर्मी और गर्मी के मौसम में सर्दी, तापमान ऊपर-नीचे, कई इलाके सूखा झेल रहे हैं, तो वनों में आग की घटनाएं बढ़ रही हैं। रेगिस्तानी इलाकों में भारी वर्षा और तबाही की चरम मौसमी घटनाएं जलवायु परिवर्तन का ही परिणाम हैं। जो घटनाएं पिछले पचहत्तर वर्ष में न हुई हों और एकाएक हो जाएं, तो यह बहुत चिंताजनक है।
संयुक्त राष्ट्र की ‘काप 28’ जलवायु वार्ता में, जो संयुक्त अरब अमीरात में ही हुई, बढ़ते तापमान और ‘ग्लोबल वार्मिंग’ की चिंताओं से निपटने के लिए रणनीति बनाई गई। अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजंसी ने भी कहा है कि अगर दुनिया ‘ग्लोबल वार्मिंग’ को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रखना चाहती है, तो जीवाश्म ईंधन परियोजनाओं को समाप्त करना होगा। यानी सभी देशों को अपनी पर्यावरणीय योजनाओं को बताने और उनके निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करने की जरूरत है। नहीं तो दुबई जैसी घटनाएं आम हो जाएंगी।