अभिषेक कुमार सिंह

उत्तर प्रदेश में पुलिस भर्ती परीक्षा, रद्द होने के कारण चर्चा का विषय बन गई है। इस परीक्षा में पचास लाख से ज्यादा युवाओं ने हिस्सा लिया था। परीक्षा से पहले पर्चा बाहर आ जाने की वजह से इसे रद्द कर दिया गया। व्यवस्था को कोसते हताश-निराश युवाओं के पास अब इसके सिवा कोई चारा नहीं है कि वे इसके लिए फिर से मेहनत करें और दूसरी परीक्षाओं में बैठने की उम्र निकल जाने का पछतावा करें।

अहम प्रतियोगी परीक्षाओं और प्रतिष्ठित पाठ्यक्रमों की प्रवेश परीक्षाओं के पर्चे अगर ‘लीक’ हो जाएं, भर्तियों में पैसे लेकर धांधली की जाए या सांठगांठ कर नकल कराते हुए परीक्षार्थियों को उत्तीर्ण करा लिया जाए, तो सबसे ज्यादा कष्ट उन परीक्षार्थियों और उम्मीदवारों को होता है, जो प्रतिभा के बल पर किसी परीक्षा में अपनी योग्यता साबित करने का जतन करते हैं। कुछ ऐसा ही यूपी पुलिस भर्ती परीक्षा में हुआ है।

इस घटना ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि हमारे परीक्षा तंत्र में ऊपर से नीचे तक घुन कितने गहरे तक लगे हुए हैं और वे किस तरह पूरी व्यवस्था को खोखला कर रहे हैं। सरकार कह रही है कि वह प्रतिभाशाली और मेहनती युवाओं के साथ अन्याय नहीं होने देगी। मगर क्या सच में इंसाफ होगा! अब भी इसकी कोई गारंटी नहीं कि पर्चा बाहर होने जैसी घटना दोबारा नहीं होगी।

पर्चे बाहर होने का सिलसिला हाल के वर्षों में इतना बढ़ा है कि शायद ही कोई प्रतिष्ठित परीक्षा इसकी आंच से बच पाई हो। यूपी-पीसीएस, यूपी कंबाइंड प्री-मेडिकल टेस्ट, यूपी-सीपीएमटी, एसएससी, ओएनजीसी और रेलवे भर्ती बोर्ड की परीक्षाओं के पर्चे बड़े पैमाने पर लीक हुए हैं। यह भी पता चला है कि कई-कई लाख रुपए में बिके प्रश्नपत्र और उनके उत्तर सोशल मीडिया पर मुहैया कराए गए।

यह भी संभव है कि जिन मामलों का खुलासा नहीं हुआ, वहां ऐसे चोर रास्तों से शायद सैकड़ों लोग नौकरी या प्रतिष्ठित पाठ्यक्रमों में दाखिला पा गए हों। ऐसे में यह सवाल बना हुआ है कि क्या कभी हमारी प्रतियोगी परीक्षाएं इस बीमारी से निजात पा सकेंगी। हाल में, संसद के बजट सत्र में लोकसभा में सार्वजनिक परीक्षा (अनुचित साधनों की रोकथाम) विधेयक, 2024 पारित किया गया।

सरकार का दावा है कि इससे देश में हर किस्म की परीक्षाओं में नकल और पर्चाफोड़ आदि पर पूरी तरह पाबंदी लग जाएगी। इस विधेयक में पर्चा ‘लीक’ जैसे कारनामों के दोषियों को तीन से दस साल की सजा और न्यूनतम एक करोड़ रुपए के जुर्माने के प्रावधान किए गए हैं। मगर इस प्रस्तावित कानून के बावजूद यह आश्वस्ति नहीं बन पा रही कि परीक्षाओं को सच में कदाचार से मुक्त कराया जा सकता है।

आज देश का शायद ही कोई ऐसा कोना बचा हो, जहां पर्चाफोड़ कराने वाले गिरोहों ने कोई कारनामा न किया हो। राज्य बोर्ड ही नहीं, सीबीएसई जैसे विश्वसनीय शैक्षणिक संगठन में भी पर्चाफोड़ गिरोह सेंध लगा चुके हैं। पर्चा बाहर कराने वाले कुछ लोगों की गिरफ्तारी भी हुई है। बताते हैं कि कुछ गिरोह मेडिकल प्रवेश परीक्षा के पर्चे दस-बारह लाख रुपए तक में बेचा करते थे।

ये घटनाएं योग्यता का मापदंड तय करने वाली परीक्षा प्रणाली के लुंजपुंज हो जाने का प्रमाण हैं। इससे यह भी साबित होता है कि शासक वर्ग पर्चाफोड़ की घटनाओं को बहुत हल्के में लेता है, अन्यथा अब तक इस समस्या का समाधान हो चुका होता। इन घटनाओं के कुछ कारण स्पष्ट हैं। ऐसी ज्यादातर परीक्षाओं में कुछ सौ या हजार पदों के लिए आवेदकों की संख्या लाखों में होती है।

यूपी में ट्यूबवेल आपरेटर के पद 3200 हैं, पर इसके लिए दो लाख से ज्यादा आवेदक थे। अन्य सरकारी नौकरियों और मेडिकल तथा इंजीनियरिंग कालेजों की प्रवेश परीक्षा में तो आठ-दस लाख परीक्षार्थी शामिल होते हैं। इसका मतलब यह है कि चाहे पेशेवर पाठ्यक्रम की बात हो या नौकरी की- हर जगह स्थिति एक अनार-सौ बीमार वाली है। मांग ज्यादा है, आपूर्ति कम। जहां भी ऐसे हालात पैदा होते हैं, वहां पैसे और अवैध हथकंडों की भूमिका स्वाभाविक रूप से बढ़ जाती है।

इस गोरखधंधे के फूलने-फलने का एक पहलू यह भी है कि ज्यादातर घटनाओं में तंत्र में शामिल लोगों की ही भूमिका होती है। यूपी की पुलिस भर्ती परीक्षा का पर्चा छापेखाने से ही बाहर हुआ बताया जा रहा है। जाहिर है, इसमें वहां के किसी कर्मचारी-अधिकारी की भूमिका रही होगी। छापेखाने में कड़े सुरक्षा इंतजाम के बीच मौजूद पर्चों तक आम अपराधी की पहुंच हो पाना असंभव है।

यह भी एक वजह है कि ज्यादातर पर्चाफूट कांडों में पकड़े गए लोगों को नाममात्र सजाएं हुईं। कुछ महीने की जेल काटने के बाद ये लोग फिर उसी धंधे में लग जाते हैं। मगर कुछ कारण समाजशास्त्रीय भी हैं, जो इस तंत्र से बाहर आम लोगों के नजरिए का खुलासा करते हैं। असल में, हमारे आम समाज के भीतर पर्चाफोड़ और नकल आदि कदाचार में सबसे बड़े अपराधी छिपे हुए हैं, पर समस्या यह है कि न तो पुलिस इनकी धर-पकड़ कर सकती है और न कानून में ऐसे लोगों के लिए कोई सजा मुकर्रर है।

ये लोग वे हैं जो पैसे के बल पर अपनी संतानों को नौकरी और सामाजिक प्रतिष्ठा दिलाने के लिए वैध-अवैध हर हथकंडा अपनाना चाहते हैं। देश का संपन्न वर्ग पैसा खिलाकर या तो पर्चाफोड़ करवा कर या भारी-भरकम डोनेशन देकर इंजीनियरिंग या मेडिकल कालेज की वह सीट खरीद लेता है, जिस पर कायदे से किसी प्रतिभावान और योग्य उम्मीदवार का हक होना चाहिए था। हालांकि इससे तंत्र में मौजूद उन लोगों का अपराध कम नहीं हो जाता, जो चंद पैसों के लिए नकल और पर्चाफोड़ माफिया को प्रश्नपत्र मुहैया कराते या परीक्षा प्रणाली में सेंध लगाते हैं।

अहम सवाल है कि आखिर समस्या सुलझाई कैसे जाए। दरअसल, बात चाहे प्रतियोगी परीक्षाओं की हो या भर्ती बोर्डों के जरिए मिलने वाली नौकरियों के लिए प्रतियोगी परीक्षाओं की, बेरोजगारी और जनसंख्या का असंतुलित अनुपात इन सब पर भारी दबाव बनाए हुए है। रोजगार और शिक्षा में यह असंतुलन भी पर्चाफोड़ की समस्या को गहरा करता है। जब तक कथित तौर पर मलाईदार नौकरियों के लिए मारामारी होती रहेगी, पर्चाफोड़ जैसे चोर रास्तों का दरवाजा हमेशा खुला रहेगा।

इसलिए दोषियों की धर-पकड़ के साथ-साथ समस्या के सही निदान का प्रयास भी करना होगा। पिछले कुछ दशकों में जिस तरह शिक्षा सीधे-सीधे रोजगार से जुड़ गई है, उसमें ऐसे नैतिक पतन की गुंजाइशों के लिए भी काफी बड़ी जगह बन गई है। शिक्षा को अब सिर्फ रोजगार से जोड़कर न देखा जाए, बल्कि उसे समाज से भी जोड़ा जाए। यह काम सिर्फ समाजसेवक नहीं करेगा, बल्कि नेताओं, शिक्षाविदों, प्रशासकों और अभिभावकों को भी मिलकर करना होगा।