पहली स्त्री को सड़क पर निकलते ही गिद्ध की तरह कैमरे और माइक से नोचा जाता है। उसके खिलाफ जिस तरह का माहौल बनाया गया उसमें आशंका है कि सड़क की भीड़ उसके साथ कुछ भी कर सकती है। दूसरी स्त्री, जो अपने घर में सुरक्षित और उच्च सत्ता द्वारा संरक्षित है उन्हें ‘वाई’ श्रेणी की सुरक्षा दी जाती है। यह दूसरी बात है कि दूसरी स्त्री को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के विद्यार्थी भारत के करदाताओं पर बोझ लगते थे।

उनसे सवाल करना था कि आखिर आधुनिक झांसी की रानी ने करदाताओं पर बोझ बनना क्यों स्वीकार किया? लेकिन दूसरी के लिए ‘प्रश्नकाल’ को स्थगित कर वही लोग पहली स्त्री की गरिमा को तार-तार करने लगे जिनकी जिम्मेदारी थी उसकी आवाज बन कर सत्ता से जुड़े संस्थानों से सवाल करने की। उन्हें राष्ट्रीय महिला आयोग से सवाल करना था कि टीवी पर किसी स्त्री को डायन और जादू टोने से जोड़ने वालों के खिलाफ आपने क्या किया?

उन्हें सवाल करना था कि रिया को जांच मुख्यालय तक सुरक्षित पहुंचाने की जिम्मेदारी किसकी थी? उन्हें बिहार पुलिस के अधिकारी से पूछना था कि आप किसी स्त्री को कैसे कह सकते हैं कि तुम्हारी औकात क्या है सवाल करने की। आपका तो काम सबको इंसाफ पाने का, अपनी बात कहने का मौका देना है। सुशांत का परिवार पक्ष संविधान के किस भाग से प्रेरित होकर बयान देता है कि रिया अब सलवार-कमीज क्यों पहन रही है?

मुश्किल है कि वे खुद से सवाल कैसे करें? जिन्हें सवाल करना था वे तो खबरों के नाम पर बवाल की बुनियाद हैं। इसका कारण इन दोनों महिलाओं के बीच राजनीति की महीन लकीर का भी फर्क है। यह लकीर अब बहुत मोटी होकर साफ-साफ दिख रही है जब कंगना के दफ्तर पर बृहन्नमुंबई महानगरपालिका काम रोकने का नोटिस चिपका जाती है।

दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहता है कि कानूनी विधानों द्वारा दोषी करार दिए जाने तक हर व्यक्ति निर्दोष है। अगर कोई दोषी करार होता भी है तो किसी को अधिकार नहीं मिल जाता है उसके साथ असंवैधानिक तरीके से व्यवहार करने का। दुखद यह था कि बड़ी संख्या में महिला पत्रकार सामंती भाषा में रिया की अस्मिता के साथ खिलवाड़ कर रही थीं। जिन महिला पत्रकारों को नागरिक के तौर पर रिया के हक की बात करनी थी वे भी रिया को बंगाल के जादू-टोने से जोड़ने और डायन जैसे शब्द बोलने वालों के साथ खड़ी थीं।

टीवी चैनलों पर इन दिनों दो तरह का ‘मच्छी बाजार’ लगता है। एक तरफ वक्ता कैमरे के सामने मां की गाली तक देते हैं वहीं दूसरी ओर रिपोर्टर कैमरा, माइक लेकर आइसीयू तक में घुस जाते हैं। आरुषि तलवार से लेकर रिया चक्रवर्ती तक टीवी मीडिया जेंडर को लेकर जहर परोसता रहा है। अभी एक पत्रकार ड्रग्स रैकेट के आरोपी के शयनकक्ष तक पहुंच गया। एक पत्रकार कैमरे के सामने सरेआम गाड़ी चला रहे व्यक्ति को गाली देता है। इसके बाद भी ये लोग पत्रकारिता का परिचय-पत्र लटका कर घूमते हैं। यह पत्रकारिता नहीं सर्कस है। जैसे जोकर की हरकतों पर दर्शक ताली बजाते हैं। पर सर्कस के जोकर समाज को कोई नुकसान नहीं पहुंचाते हैं। टीवी के ये करतबबाज हमारे पूरे लोकतांत्रिक बुनियाद को खोदने पर तुले हैं।

अभी भी हमारे कानों में वे शब्द गूंजते हैं जब कांग्रेस के एक नेता ने सीधे प्रसारित कार्यक्रम में एक पत्रकार को दलाल कहा। अभी हाल में अव्वल नंबर पर आने का दावा करने वाले नए चैनल के संस्थापक पत्रकार एक सार्वजनिक मंच पर बदतमीजी करने का नया पैमाना खड़ा करते हैं।

प्रदेश के मुख्यमंत्री से लेकर गृहमंत्री, वहां की बड़ी पार्टी के प्रवक्ता से लेकर पुलिस प्रमुख तक को ऐसे ललकारते हैं जैसे चैनल के नहीं खास पक्ष के प्रस्तोता हों। वो ऊंची आवाज में ललकारते हैं कि मुझे साक्षात्कार दो तो सामने वाला भी संदेशा भिजवाता है कि वह पत्रकार को दिया जाता है दलाल को नहीं। मां की गाली और दलाली जैसे शब्द जब जीवंत प्रसारण का नया सामान्य बन जाए तो फिर रिया के लिए क्या उम्मीद की जाए?

अब बात सुशांत सिंह राजपूत की मौत पर। यह आम आदमी के लिए सदमे की तरह था कि आखिर उसका नायक खुदकुशी जैसा कदम कैसे उठा सकता है। मौत का कारण जानने की सहज जिज्ञासा को टीवी पत्रकारों ने अपनी तरह से भुनाना शुरू किया। ठीक उसी वक्त मुंबई पुलिस इस मामले को मानसिक अवसाद से जोड़ती है तो नायक के प्रशंसकों को चरित्र हनन जैसा लगने लगता है।

एक खास चैनल जो इसके पहले महाराष्ट्र सरकार और पुलिस के निशाने पर आया था इस पहलू को लेकर उसे पलटवार करने का मौका मिल गया। दूसरी तरफ सुशांत सिंह के प्रशंसकों को भी संतुष्ट करने का पर्याप्त मसाला था। इसके बाद पूरे संदर्भ को एक स्त्री के चरित्रहनन से जोड़ दिया जाता है।

इस पूरे मामले में सबसे अहम होता है सुशांत की निजता और उसके परिवार को सार्वजनिक मंच पर लाना। परिवार के हर सदस्य से बार-बार पूछताछ करना। हमारा समाज जिस सामंती मानसिकता का है, उसमें परिवार के बेटे की दिक्कत का कारण घर के बाहर ही खोजा जाता है। परिवार अपनी दिक्कतों का ठीकरा रिया पर फोड़ता है। अब सवाल है हमारी माससिकता पर जहां आज भी मन के मर्ज को कबूल करने के लिए कोई तैयार नहीं है। इसके साथ ही औरत के प्रति समाज का दकियानूसी नजरिया। इन संदर्भों से इस पूरे अध्याय को समझा जा सकता है।

भारतीय समाज का फिल्मों से आधुनिकता का नाता रहा है। यह समाज जब बहुत पारंपरिक था तब भी उसका फिल्मी समाज जीवनशैली को लेकर बहुत आगे बढ़ चुका था। फिल्मी दुनिया जेंडर, जाति, मजहब से लेकर आपसी रिश्तों तक में उदार रुख के लिए जानी जाती रही है। ऐसी में यह दुनिया, आम दुनिया को चकाचौंध करती रही है। फिल्मी दुनिया में सहजीवन का रिश्ता सहज और स्वाभाविक हो चुका है। लेकिन जब इस पूरे मामले में मृत नायक अपने घर के बच्चे और पूरे बिहार के बेटे की तरह देखा जाने लगा तो नजरिया बदल दिया गया। अब उसके रिश्ते का पैमाना आधुनिक फिल्मी दुनिया नहीं सामंती पृष्ठभूमि वाला परिवार था। नायक एक भोला बच्चा, षड्यंत्र का शिकार था जिसे एक स्त्री बहका कर कुछ भी करवा सकती है।

पहले आप आधुनिक पक्ष को देख चकाचौंध होते थे। लेकिन अब परंपरावादी पक्ष लेकर उस दुनिया पर हमला कर रहे हैं कि आधुनिकता से खराब कुछ नहीं है। यहीं से एक आधुनिक जीवनशैली जी रही लड़की का चरित्रहनन शुरू होता है। पहले यह आदर्श ‘ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार’ जैसा चमकदार था और युवक-युवती उस जैसा चमकना चाह रहे थे। लेकिन बिहार की अस्मिता के साथ जोड़ने के बाद देश के सबसे आधुनिक कोने के रिश्ते की पड़ताल पटना के मोहल्ले के मानक से होने लगी।

स्त्री स्वतंत्रता का सवाल, रिश्ते बनाने के उसके ऐच्छिक अधिकार को विखंडित करने का ठान लिया गया है। फिल्मी दुनिया की जीवनशैली जी रही स्त्री का जीवन पटना के पारंपरिक परिवार के लिए ‘कुकृत्य’ बना दिया गया। नैतिकता और नैतिक मूल्य को संविधान नहीं सामंती मानसिकता के साथ तौला जाने लगा। तमाम संस्थाएं अपने नकाब उतार कर सामंती पितृसत्ता का विषाणु फैलाने लगीं।

चौबीस गुणे सात वाले टीवी की सफलता यही है कि ऐसी हालत पैदा कर दो जिसमें सबका हस्तक्षेप करना मजबूरी हो जाए। आज हम भी इस मुद्दे पर लिखने के लिए मजबूर क्यों हुए? नायक मरा है तो खलनायक कौन, इस सहज जिज्ञासा को मानवाधिकार हनन के जिस मोड़ पर लाया गया है उससे अगर बिहार चुनाव में लोकतंत्र के प्रबंधन का दावा किया जाए तो इससे खतरनाक समय और कुछ नहीं हो सकता है।

अब पत्रकारिता के नाम पर जोर-जबर्दस्ती का ही मानक खड़ा किया जा रहा। मसला है कि कौन सबसे पहले पीड़ित को माइक से मार सकता है। जिस तरह से मुंह में माइक ठूंसा जाता है वो मारने जैसा होता है पूछने जैसा नहीं। इस जबरकारिता से बदला दृश्य विधान हमारे संविधान तक को चोट पहुंचा रहा यह समझना उतना मुश्किल भी नहीं होना चाहिए।