केरल के तटीय क्षेत्र में लाइबेरिया के एक मालवाहक जहाज के डूबने से उसमें रखे कंटेनर बह कर तट पर आ गए। इन कंटेनरों से दूर रहने की मुनादी पिटवा दी गई। दक्षिणी कोल्लम और तटीय अलप्पुझा जिलों में तटों पर ऐसे दस कंटेनर बह कर आए। यह जहाज पलटने के बाद डूब गया था। इस कारण बड़ी मात्रा में तेल का रिसाव होता रहा। करीब तीन किलोमीटर प्रति घंटे की गति से तेल बहने के कारण पूरे राज्य में सजग रहने की चेतावनी जारी की गई। क्योंकि, यह पारिस्थितिकी के लिहाज से केरल के संवेदनशील तटीय क्षेत्र को प्रभावित कर सकता है।
भारतीय तटरक्षक बल के अनुसार, डूबे हुए जहाज के टैंकों में 84.44 मीट्रिक टन डीजल और 367.1 मीट्रिक टन फर्नेस आयल था। इस जहाज में कुल 643 कंटेनर थे, जिनमें से 73 कंटेनर खाली थे और 13 कंटेनरों में खतरनाक सामग्री लदी हुई थी। इस सामग्री में कैल्शियम कार्बाइड भी शामिल था। यह कोई पहली घटना नहीं है, दुनिया भर में ऐसी कई बड़ी घटनाएं हो चुकी हैं।
पेट्रोलियम पदार्थ, कोयला और प्राकृतिक गैसों के लगातार बढ़ते उपयोग से पैदा हो रहा प्रदूषण समुद्र के पारिस्थितिकी-तंत्र के लिए बड़ा खतरा बन गया है। एक अनुमान के अनुसार, इससे भारत को लगभग 200 खरब रुपए का सालाना नुकसान उठाना पड़ रहा है। पेट्रोलियम पदार्थों का समुद्री जल में रिसाव और बढ़ते औद्योगिक कचरे के दुष्परिणाम समुद्री जीवों और मछुआरा समुदाय को सबसे ज्यादा झेलने पड़ते हैं।
25 फीसद कम हो गया है मछलियों का उत्पादन
भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया भर में समुद्री जल में पेट्रोलियम पदार्थों के रिसाव और औद्योगिक कचरे से पर्यावरणीय संकट लगातार बढ़ रहा है। आए दिन समुद्री तल पर हजारों मीट्रिक टन तेल फैलने और आग लगने की घटनाएं सामने आती रहती हैं। यदि राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान की रपट पर गौर करें तो केरल के तटीय क्षेत्रों में तेल से उत्पन्न प्रदूषण के कारण झींगा और अन्य मछलियों का उत्पादन 25 फीसद कम हो गया है।
कुछ वर्ष पहले डेनमार्क के बाल्टिक बंदरगाह पर 1900 टन तेल के फैलाव के कारण प्रदूषण संबंधी बड़ी चुनौती पैदा हो गई थी। इक्वाडोर के गैलापेगोस द्वीप समूह के पास समुद्र में लगभग साढ़े छह लाख लीटर डीजल और भारी तेल के रिसाव से समुद्री जीवों के लिए जोखिम पैदा हो गया था। टैंक से लगभग 2000 हजार मीट्रिक टन हानिकारक रसायन एकोनाइटिल एसीएन फैल जाने से तटवर्ती इलाकों के लोगों का जीवन भी संकट में पड़ गया था। इससे ठीक पहले कांडला बंदरगाह पर भी समुद्र में फैले लगभग तीन लाख लीटर तेल से जामनगर के पास कच्छ की खाड़ी के उथले पानी में समुद्री राष्ट्रीय उद्यान में दुर्लभ जीव-जंतुओं की कई प्रजातियां मारी गई थीं।
पर्यावरण में घुलता प्लास्टिक का जहर, वैश्विक स्तर पर हर साल हो रहा करोड़ों टन का उत्पादन
इसी तरह तोक्यो के पश्चिमी तट पर 317 किलोमीटर की पट्टी पर तेल के फैलाव से जापान के तटवर्ती शहरों में हाहाकार मच गया था। रूस में बेलाय नदी के किनारे बिछी तेल पाइप लाइन से 150 मीट्रिक टन तेल के रिसाव से क्षेत्रवासियों के सामने पेयजल का संकट खड़ा हो गया था। सैनजुआन जहाज के कोरल चट्टानों से टकरा जाने के कारण अटलांटिक तट पर करीब तीस लाख लीटर तेल का रिसाव होने से समुद्री जीव प्रभावित हुए थे। मुंबई के पास भी लगभग 1600 मीट्रिक टन तेल का रिसाव हुआ था। बंगाल की खाड़ी में क्षतिग्रस्त टैंकर ने निकोबार द्वीप समूह में तबाही मचाई थी। इससे जहां समुद्री जीवों को नुकसान हआ था, वहीं यहां रहने वाली जनजातियों को भी इसका खामियाजा भुगतना पड़ा था।
सद्दाम हुसैन के शासन द्वारा समुद्र में छोड़े गए थे तेल
लाइबेरिया के ही एक टैंकर से 85000 मीट्रिक टन तेल रिसने से स्काटलैंड में बड़ी संख्या में पक्षियों को नुकसान हुआ था। समुद्र में भयावह रूप से तेल का फैलाव अलास्का में हुआ था। यह रिसाव ‘प्रिंस विलियम साउंड’ टैंकर से हुआ था। इस तेल के फैलाव का असर छह माह तक रहा। इस दौरान क्षेत्र में 35000 पक्षियों सहित 15 व्हेल मछलियां मरी पाई गईं थीं। हालांकि, इस घटना का असर खाड़ी युद्ध में सद्दाम हुसैन के शासन द्वारा समुद्र में छोड़े गए तेल से कम था। यह तेल इसलिए छोड़ा गया था कि कहीं यह अमेरिका के हाथ न लग जाए। एक अनुमान के मुताबिक, इस कच्चे तेल की मात्रा 110 लाख बैरल थी। इस तेल के बहाव ने फारस की खाड़ी में जीव-जंतुओं को भारी नुकसान पहुंचाया था। इससे पैदा हुए प्रदूषण का असर मिट्टी, पानी और हवा तीनों पर रहा था। जानकारों का मानना है कि इराक युद्ध का पर्यावरण पर पड़ा दुष्प्रभाव हिरोशिमा-नागासाकी पर हुए परमाणु हमले, भोपाल गैस त्रासदी और चेरनोबिल दुर्घटना से भी ज्यादा था।
भारतीय विज्ञान कांग्रेस में गैर परंपरागत ऊर्जा स्रोत मंत्रालय के वरिष्ठ सलाहकार एसके चोपड़ा ने कुछ समय पहले चौंकाने वाली जानकारी दी थी। उनके मुताबिक, अकेले पेट्रोलियम पदार्थों के कारण बड़े पैमाने पर पर्यावरणीय क्षति उठानी पड़ती है। तेल के रिसाव से जो मिट्टी का क्षरण होता है, वह नुकसान करीब 200 अरब रुपए का है, जो कुल कृषि उत्पाद का 11 से 26 फीसद है। गौरतलब है कि भारत अपनी कुल पेट्रोलियम जरूरतों की आपूर्ति का करीब 70 फीसद तेल आयात करता है।
दुनिया में अभी करीब 164.4 करोड़ वाहन हैं, इनमें डीजल-पेट्रोल का उपयोग प्रदूषण का मुख्य कारण है। प्रदूषण रोकने के तमाम उपायों के बावजूद लाखों टन कार्बन मोनोआक्साइड और हाइड्रोकार्बन हर वर्ष वायुमंडल में बढ़ जाते हैं। जीवाश्म ईंधन के प्रयोग से सालाना करोड़ों टन कार्बन डाईआक्साइड पैदा होती है, जो ओजोन-परत के लिए खतरा बन रही है। विकसित देश वायुमंडल प्रदूषण के लिए 70 फीसद जिम्मेदार हैं, जबकि विकासशील देश 30 फीसद। पेट्रोलियम पदार्थों के जलने से उत्पन्न प्रदूषण फेफड़ों का कैंसर, दमा, ब्रोंकाइटिस, तपेदिक, हृदयरोग और अनेक त्वचा संबंधी रोगों का कारण बन रहा है।
स्वास्थ्य विशेषज्ञों के मुताबिक, कैंसर के मरीजों की संख्या में 80 फीसद रोगी वायुमंडल में फैले विषैले रसायनों के कारण पीड़ित होते हैं। दिल्ली में फेफड़ों के मरीजों की संख्या कुल आबादी का 30 फीसद है, जो दूषित वायु के शिकार हैं। यहां अन्य इलाकों की तुलना में सांस और गले की बीमारियों के रोगियों की संख्या 12 गुना अधिक है। विश्व बैंक ने जल प्रदूषण के कारण स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असर की कीमत 110 रुपए प्रति व्यक्ति आंकी है, जो समुद्र तटीय क्षेत्रों में रहते हैं। समुद्री खाद्य पदार्थों पर पेट्रोलियम अपशिष्टों का असर भी पड़ता है। अनजाने में लोग इन्हीं जीवों को आहार बना लेते हैं। बहरहाल, लगातार बढ़ती पेट्रोलियम पदार्थों की खपत और समुद्री जहाजों की दुर्घटनाओं से फैला तेल वायुमंडल तथा मानव जीवन को संकट में डालने का काम कर रहे हैं।