पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्जी ने अचानक आगामी विधानसभा का जिक्र कर राजनीतिक हलके में खलबली पैदा कर दी है। इसके साथ उनके सिपहसलार भी उत्साह में आ गए हैं। दल के एक प्रभावशाली नेता सुब्रत बख्शी ने तो यह एलान तक कर दिया कि 2016 के विधानसभा चुनाव के बाद राज्य में किसी राजनीतिक दल का कोई अस्तित्व ही नहीं बचेगा। ममता जी के भतीजे और हाल ही में आपत्तिजनक बयान से चर्चा में आए सांसद अभिषेक बनर्जी ने तो अपनी बुआ में आगामी प्रधानमंत्री की संभावना भी तलाश ली।

गौरतलब है कि गए शनिवार को ममता बनर्जी ने एक ट्वीट के जरिए कहा था कि उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस पिछले चार साल में किए गए विकास कार्य के बूते अगले साल का विधानसभा चुनाव जीत लेगी। ऐसा राज्य की जनता की इच्छा के मुताबिक होगा। लोकतंत्र में आखिरी फैसला लोगों का होता है। सत्ता में आने के बाद एक भी कायदे का कारखाना लगाने या रोजगार के अवसर पैदा करने में नाकामी के बावजूद उनका कहना था कि विकास पर हमारे रिकॉर्ड इस बात का भरोसा दिलाते हैं कि हम 2016 में फिर से जीतेंगे।

वैसे, ममता सरकार का यह दावा तो है हीकि योजनागत खर्च और पूंजीगत खर्च में वृद्धि, भौतिक और सामाजिक ढांचे में बेहतरी जैसे घटनाक्रम हुए हैं। पर जमीनी स्तर पर ये दावे कहीं ठहरते नहीं हैं। राज्य सरकार पर कर्ज का दबाव बढ़ता ही गया है। उत्सवों-समारोहों में गैर-जरूरी खर्च का आरोप उनकी सरकार पर लगता रहा है। सारदा घोटाले में पार्टी की खासी बदनामी हुई है। एक मंत्री मदन मित्र इसी वजह से जेल की हवा खा रहे हैं, तो एक दल से निष्कासित सांसद कुणाल घोष भी न्यायिक हिरासत में हैं। सीबीआइ को मदद के लिए आने वाले सांसद व महासचिव मुकुल राय अलग-थलग कर दिए गए हैं। खबर है कि ईद के बाद राय नई पार्टी बनाएंगे।

राज्य में कानून-व्यवस्था की गिरती हालत का यह आलम है कि पुलिस वाले पिट रहे हैं। एक तरफ विपक्ष पुलिस पर सत्तारूढ़ दल के इशारे पर काम करने का आरोप लगाता आ रहा है तो दूसरी तरफ वे पीटे भी जा रहे हैं। बलात्कार, हत्या, मारपीट, विरोधी दलों के दफ्तरों, घरों, लोगों पर हमले थमने का नाम नहीं ले रहे हैं। यहां तक कि तृणमूल कांग्रेस में आपसी मनमुटाव हिंसा की परिणति तक पहुंच जा रहा है। ऐसे हालात में आगामी चुनाव जीतने के भरोसे का इजहार कोई कैसे कर सकता है।

ममता जी के इस ट्वीट पर भाजपा के राष्ट्रीय सचिव सिद्धार्थ नाथ सिंह ने कहा है कि उनका बयान उनकी घबराहट को जाहिर करता है। वे जानती हैं कि उनकी सरकार ने शासन के नाम पर ऐसा कुछ खास नहीं किया है कि जनता उन्हें फिर से गले लगाए। उन्होंने यह भी कहा कि विधानसभा केंद्रीय चुनाव आयोग और केंद्रीय सुरक्षा बल की देख-रेख में होगा, उसे निकाय चुनाव समझने की भूल नहीं करें ममता।

माकपा सांसद व पोलित ब्यूरो के सदस्य मोहम्मद सलीम ने कहा कि विश्वास में कमी के कारण ही वह ऐसा कह रही हैं। वह जानती हैं कि उनका कोई भी वादा पूरा नहीं हुआ है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अधीर चौधरी ने तो उनसे काम की परिभाषा बताने की ही मांग कर ली। उन्होंने पूछा कि क्या काम की परिभाषा पुलिसकर्मियों की पिटाई है? क्या काम का मतलब भ्रष्टाचार में संलिप्तता है? वाममोर्चा के अध्यक्ष विमान बोस ने कहा है कि उनसे कांग्रेस अलग हो गई, एसयूसीआइ अलग हो गई, उनके कई अपने बेगाने हो गए फिर वे किसके भरोसे चुनाव जीतने की बात कर रही हैं।

दरअसल, हकीकत तो यह है कि तृणमूल के बेलगाम नेताओं-कार्यकर्ताओं की बदजुबानी, अशोभनीय हरकतों और विकास की झूठी कहानी लोगों के गले उतर नहीं पा रही है। दल के अंदर की गुटबाजी भी सड़कों पर उतरती रही है। ये चिंता में डालने वाली बात है। दल के नेताओं-कार्यकर्ताओं-समर्थकों में उत्साह के संचार के लिए ही ममता ने चुनाव होने से एक साल पहले उसे जीत लेने की बात कही है। राजनीतिक प्रेक्षकों का यह आकलन है कि पिछले दोस्तों से कुट्टी हो जाने से आज के हालात में तृणमूल का सत्ता में वापसी करना आसान नहीं है।

गौरतलब है कि उसने पिछला चुनाव कांग्रेस और एसयूसीआइ से गठबंधन कर लड़ा था। तब कांग्रेस को 42 सीटें मिली थीं। बाद में ममता पर मनमानेपन के कारण अलगाव की हालत भी पैदा हो गई। तृणमूल ने कोई एक दर्जन कांग्रेसी विधायकों को तोड़ भी लिया। इससे नाराज कांग्रेसी नेतृत्व दुबारा उनके साथ की किसी भी संभावना को खारिज कर दिया है।

भाजपा से तालमेल की गुंजाइश अल्पसंख्यक वोटों की कीमत पर बनती नजर नहीं आती। सबसे प्रमुख बात यह है कि वह चुनाव वाममोर्चे के 34 साला कथित कुशासन और परिवर्तन के नाम पर लड़ा गया था। नंदीग्राम-सिंगुर ने भी हवा ममता के पक्ष में बना दी थी। लेकिन अब तो तृणमूल को ही जवाब देना है कि राज्य की हालत पहले से भी बुरी क्योंकर हो गई?

(शैलेंद्र)