राकेश सिन्हा
मेघालय का एक छोटा सा गांव कांगथोंग जिसे 2019 से पूर्व अपने ही राज्य के लोग नहीं जानते थे, उसे सितंबर 2023 में भारत सरकार के पर्यटन मंत्रालय द्वारा सर्वोत्तम गांव का सम्मान मिला। इतना ही नहीं भारत सरकार ने 2021 में संयुक्त राष्ट्र पर्यटन संगठन के समक्ष इसका नाम सर्वोत्कृष्ट पर्यटन गांव के रूप में प्रस्तावित किया है।
सात सौ की आबादी वाला यह गांव अपनी ऐसी विरासत और वैशिष्ट्य को संजोए हुए है जिसे जानकर मन में कौतूहल और आकर्षण पैदा होता है। सदियों से एक परंपरा चली आ रही है जिसका उनकी खासी भाषा में नाम है ‘जिंगरबई लावबेई’। इसका अर्थ है ‘मां का प्यारा धुन’। प्रत्येक मां अपने बच्चे के लिए एक धुन तैयार करती है जिसका उपयोग अपनी अलग पहचान के लिए और एक दूसरे को बुलाने में करते हैं।
इस प्रकार का यह संसार का दूसरा गांव है। इसी तरह का एक गांव तुर्किये में है जिसका नाम कास्कोव है। हालांकि कांगथोंग और कास्कोव में फर्क है। जहां कास्कोव यूनेस्को की अगोचर सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा है वहीं यह भूला बिसरा रहा। इस विडंबना के कारण हैं।
औपनिवेशिक काल से भारत की विविधता को सामाजिक-राजनीतिक दायरे में ही आंकने की कोशिश होती रही। इसने स्थानीयता के सभ्यताई महत्त्व को पीछे छोड़ दिया और राजनीतिक महत्त्व को उस पर आरोपित कर दिया। भारतीय राष्ट्र एक सभ्यता के गर्भ से उपजा है। अत: विविधता इसका स्वभाव है।
यदि विविधता का स्वर कान को अप्रिय लगने लगे और उसका स्वरूप आंख को अरुचिकर तब मान लेना चाहिए कि हमारे मन-मस्तिष्क का फलक न सिर्फ लघुता संकीर्णता का का शिकार हो गया है। ऐसी स्थिति में हमारा विचार और व्यवहार दोनों ही अपरिवर्तनीय और असहिष्णु बनकर रह जाता है। कांगथोंग का हमारी आंखों से ओझल रहना अपवाद नहीं है। ऐसे अनंत उदाहरण मिल जाएंगे।
इस परिस्थिति से निकलना ही सभ्यताई परिवेश को पुनर्जीवित करना होगा। भारत की सभी स्थानीयताओं का अपना इतिहास, अपनी विरासत, अपनी परंपरा, बोली, खान-पान और व्यवहार शैली है। यह हमारी समृद्धि और जीवंतता का लक्षण है। उसे जानना और जीना, समझना और उसमें गोता लगाना ही सभ्यता के पुनरुत्थान में योगदान होगा।
वर्ष 2019 में मैंने कांगथोंग के वैशिष्ट्य का उल्लेख राज्यसभा में किया। यह मेरे स्वयं की खोज नहीं थी। मेरे एक मित्र ने इसकी जानकारी दी थी। फिर मैंने वहां की यात्रा की। शिलांग से साठ किलोमीटर की दूरी तय करने में साढ़े तीन घंटे लग गए। इससे कुछ दूरी पर चेरापूंजी है। कांगथोंग अकल्पनीय पिछड़ेपन का शिकार था। 14 अगस्त 2019 को सांसद आदर्श ग्राम योजना के अंतर्गत मैंने गोद ले लिया।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस योजना की शुरुआत 2014 में की थी। सांसदों से अपेक्षा होती है कि भारत के छह लाख चालीस हजार नौ सौ तीस गांवों में से किसी एक गांव को गोद लेकर उसे मानक या आदर्श ग्राम में परिवर्तित करें। यह चुनौती और अवसर दोनों होता है। ग्राम विकास के साथ-साथ एक सांसद के व्यक्तित्व एवं विश्व दृष्टि का भी विस्तार होता है।
ग्राम विकास के संबंध में मैंने महात्मा गांधी, विनोबा, जयप्रकाश के प्रयासों को पढ़ा था। कांगथोंग की परिस्थिति विषम और जटिल थी। लोगों में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण, तम्बाकू का प्रयोग, कुपोषण, गरीबी जानने के लिए शोध की जरूरत नहीं थी। स्थानीय उत्पाद का उचित दाम उन्हें नहीं मिलता था। शोषण के शिकार थे। और ‘जिंगरबेई लावबेई’ मृतप्राय था। जिलाधिकारी और जनप्रतिनिधि तो दूर किसी सामान्य कर्मचारी ने भी वहां पैर नहीं रखा था।
इसलिए पहली चुनौती थी उनको अपनी धरोहर के प्रति जागरूक करना। यह काम तभी संभव होता है जब उनमें पराएपन का भाव नहीं आए। उनकी भाषा और जीवनशैली से जुड़ना पहला कदम होता है। ‘मुख्यधारा में लाना’, ‘आधुनिकता से जोड़ना’, ‘सभ्य बनाना’ ये सब औपनिवेशिक शब्दावली और सिद्धांत हैं, जो स्थानीयता पर प्रहार की तरह होता है।
बार-बार आने जाने से परिचय बढ़ता है। मन मिलने लगता है और साझेपन का बोध होता है। स्वास्थ्य, स्कूल, स्वच्छता आदि के क्षेत्रों में कार्य शुरू हुआ। उनके उत्पादों झाड़ू, शहद, कसैली, पान, फूल का उचित दाम मिले इसके लिए वर्गीय चेतना को जगाना जरूरी होता है। यह परिणामकारी सिद्ध हुआ। शोषण पर लगाम लगा।
कांगथोंग के लोगों को दाम मिलने लगे। दूसरी ओर, उनकी धुन के प्रयोग से एक दूसरे को संबोधित करने की कला को सम्मान मिलने लगा। पर्यटक आने लगे। आमदनी तो बढ़ी ही अपने होने का अहसास भी हुआ। लेकिन चुनौती संगरवासी और इसाई समुदायों के बीच कटुता और ध्रुवीकरण समाप्त करने की थी। साझापन की शून्यता बड़ी रुकावट थी।
कांगथोंग में जैसे-जैसे सामुदायिकता का बोध बढ़ता गया, ध्रुवीकरण पिघलता गया। और इसका चरमोत्कर्ष 2022 में हुआ। वहां परंपरागत ग्राम सभा को ‘दरबार’ कहते हैं। कांगथोंग में उसके प्रधान (सरदार) के लिए सेंगरवासी और इसाई दोनों ही दावेदार होते थे। परिणामस्वरूप दरबार निष्प्रभावी था। सेंगरवासी के अपने पूजा स्थान को लेकर दशकों से संघर्ष चल रहा था। परंतु 2022 में पूर्ण सहमति बनी। इस परस्परता का कायम होना कांगथोंग की बड़ी उपलब्धि रही।
विकास का तात्पर्य सिर्फ भौतिक उन्नति नहीं होता। मानसिक उन्नति के बिना भौतिकता भस्मासुर बन जाती है। दोनों में संतुलन बिगड़ते ही सभ्यता या समुदाय आंतरिक विरोधाभास का शिकार हो जाता है। कांगथोंग के लोगों ने अपनी मौलिकता को नष्ट नहीं होने दिया। सहयोग और परोपकार भारत के अंतर्मन में निहित है। बस उसे भरोसे के साथ जगाने की जरूरत होती है।
गांधी, विनोबा, जयप्रकाश नारायण, मालवीय, नानाजी देशमुख ने यही किया था। कांगथोंग में लोगों के सहयोग से विकास के अनेक कार्य हुए। अमृत महोत्सव में यहां की तिरंगा यात्रा मेघालय में सर्वोत्कृष्ट थी और अमृत महोत्सव द्वार का निर्माण हुआ, जिसे खासी समुदाय के स्वतंत्रता सेनानी, जिन्हें इतिहास की पुस्तकों में उचित स्थान नहीं मिला, यू टिरीट सिंग को समर्पित किया गया।
समाज का सृजन सबसे सबल काम होता है। इसके लिए व्यक्तित्व में सूक्ष्म गांधी, सूक्ष्म विनोबा और सूक्ष्म जयप्रकाश को आत्मसात करने की दुष्कर चुनौती होती है। प्रधानमंत्री मोदी की सांसद आदर्श ग्राम योजना की पहल के पीछे की भावना कानून निर्माताओं को समुदाय पुनरुत्थान की प्रयोगशाला का पात्र बनाने की भी है। चुनावी स्वार्थ से हटकर की गई पहल ज्यादा परिणाम देती है।
आज कांगथोंग जिले से लेकर केंद्र के अधिकारियों से मुखातिब हो रहा है। आसपास के गांवों के लिए मानक बन गया है। स्वागत और धन्यवाद के इन शब्दों ‘खुबलई शिवुम’ के साथ जीवन प्रवाह चल रहा है। एक 91 वर्ष की, वृद्धा का यह स्वर मेरे कानों गूंजता रहता है, ‘तुम इस गांव छोड़कर क्यों जाते हो?’
(लेखक भाजपा के राज्यसभा सांसद हैं)