भारत और चीन के संबंध सीमा विवाद विवाद को लेकर काफी पहले भी तल्ख रह चुके हैं। नेहरू काल में भारत की चीन के प्रति क्या और कैसी नीति थी, इसका अंदाजा पूर्व विदेश सचिव विजय गोखले की किताब से मिलता है।
‘दि लॉन्ग गेम: हाऊ चाइन नेगोशिएट्स विथ इंडिया’ नामक पुस्तक के जरिए उन्होंने दावा किया है कि नेहरू सरकार ने तब बगैर किसी तैयारी और बेमन से चीन के साथ बातचीत शुरू की थी। किताब के उन्होंने लिखा है कि नेहरू ने हाउ एन लाई के सियासी निहितार्थों को महसूस किए बिना उस प्रस्ताव को स्वीकार लिया था, जिसके तहत ल्हासा में भारतीय मिशन को एक कांसुलर पोस्ट में तब्दील करना था। बकौल गोखले, “भारत एडहॉक वाले अंदाज में तब पर्याप्त आंतरिक परामर्श के बिना बातचीत कर रहा था। तथ्यों पर आधारित दुरुस्त शोध पर भी तब ध्यान न दिया गया था।”
उनके मुताबिक, दूसरी ओर चीन की मोल-तोल की रणनीति बेहद प्रैक्टिकल और व्यवस्थित थी। चीनियों ने भारत को ग्यांत्से और यादोंग से अपने सैन्य अनुरक्षकों को वापस लेने के लिए “मनाया”। उनका कहना है कि भारत ने 1953 में हार मान ली।
गोखले आगे लिखते हैं- ल्हासा के इनपुट को नजरअंदाज करते हुए कि चीनी तिब्बत में भारत-चीन सीमा से संबंधित सभी दस्तावेजों का अध्ययन कर रहे थे…तीन दिसंबर, 1953 को प्रधानमंत्री के एक पॉलिसी नोट ने एक बार और सभी के लिए तय किया कि तिब्बत पर होने वाली आगे की भारत-चीन बातचीत में सीमा के प्रश्न को नहीं उठाया जाएगा या उसकी चर्चा नहीं की जाएगी, क्योंकि यह पहले से ही एक सुलझा हुआ मुद्दा था।
किताब बताती है, “भारत ने मई 1954 में जिनेवा सम्मेलन शुरू होने से पहले एक समझौता करने के बारे में चिंतित होकर खुद पर अधिक दबाव डाला…इसके लिए प्राथमिक विचार राष्ट्रीय सुरक्षा नहीं बल्कि भारत की अंतर्राष्ट्रीय छवि थी।” बाद में चीन ने और अधिक भारतीय रियायतों को मजबूर करते हुए वार्ता को आगे बढ़ाया था।