वसुंधरा राजे जहां अपनी अनदेखी से लगातार असंतुष्ट चल रही हैं वहीं उनके खेमे में माने जाने वाले पार्टी के सबसे बुजुर्ग दलित नेता कैलाश मेघवाल ने भी बगावत की राह पकड़कर भाजपा को कुछ माह पहले वाली कांग्रेस की गत में पहुंचा दिया है। खरगे ने जहां पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट की खुली जंग को ठंडा करने में कामयाबी हासिल की है वहीं भाजपा की गुटबाजी और तेज हुई है। कैलाश मेघवाल ने अपनी ही पार्टी के अपने ही सूबे के दलित नेता और केंद्रीय मंत्री अर्जुनराम मेघवाल पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाकर सियासी बम विस्फोट कर दिया है। लेकिन पार्टी ने उनकी मांग मंजूर करने के बजाए उन पर अनुशासनहीनता का आरोप जड़ते हुए उन्हें नोटिस भेज दिया है। अर्जुनराम मेघवाल राजनीति में आने से पहले नौकरशाह थे।
अर्जुनराम मेघवाल पर आरोप लगाने वाले कैलाश मेघवाल वसुंधरा खेमे के हैं
इसके उलट 89 वर्ष के कैलाश मेघवाल राजस्थान में भैरो सिंह शेखावत के समकालीन नेता हैं। वे वकील भी थे और आपातकाल में जेल में भी रहे। सांसद से लेकर राज्य सरकार और केंद्र सरकार दोनों जगह मंत्री रह चुके हैं। पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और राजस्थान विधानसभा के अध्यक्ष भी रहे हैं। उन्हें वसुंधरा खेमे में माना जाता है।
उधर, वसुंधरा राजे ने शुक्रवार को अपनी एक दिन की देव दर्शन यात्रा से आलाकमान को परोक्ष रूप से चुनौती दे दी। पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा की हार का बड़ा कारण वसुंधरा विरोधी खेमे को पार्टी आलाकमान की शह ही माना जाता है। तब भाजपाइयों ने ही चुनाव में नारा लगाया था-वसुंधरा तेरी खैर नहीं, पर मोदी से कोई बैर नहीं। वसुंधरा समर्थकों ने तब भी शिकायत की थी कि आलाकमान अगर वसुंधरा को उम्मीदवारों के चयन में छूट देता तो वे फिर सत्ता में वापसी करती।
भाजपा ने राजस्थान में सामूहिक नेतृत्व से चुनावी जंग में कूदने की अपनाई रणनीति
बहरहाल अब भाजपा ने राजस्थान में सामूहिक नेतृत्व से चुनावी जंग में कूदने की रणनीति अपनाई तो वसुंंधरा का रूठना तय था। पार्टी दो, तीन, चार और पांच सितंबर को जो चार परिवर्तन यात्राएं शुरू कर रही है, उन्हें जेपी नड्डा, अमित शाह, राजनाथ सिंह और नितिन गडकरी रवाना करेंगे। वसुंधरा किसी यात्रा में शामिल होंगी या नहीं, यह तो अभी तक स्पष्ट नहीं है पर एक दिन पहले अपनी देव दर्शन यात्रा के जरिए उन्होंने एक तरफ तो अपने विरोधी पार्टी के सूबेदार सीपी जोशी के मेवाड़ क्षेत्र में शक्ति प्रदर्शन कर दिखाया, दूसरी तरफ आलाकमान को भी संदेश दे दिया कि उन्हें हाशिए पर धकेलना पार्टी को महंगा पड़ सकता है।
मध्यावधि की आहट!
संसद के अचानक बुलाए जा रहे विशेष सत्र ने अटकलों को सरगर्म कर दिया है। इस सत्र के एजंडे का अपनी तरफ से सरकार ने कोई खुलासा नहीं किया है। ऐसे में कोई कह रहा है कि सरकार इस सत्र में एक देश-एक चुनाव का कानून लाना चाहती है। कोई समान नागरिक संहिता की संभावना जता रहा है। कोई महिलाओं के आरक्षण के लिए कानून बनाने की बात कर रहा है। जनसंख्या नियंत्रण कानून लाने की संभावना भी जताई जा रही है। विशेष सत्र में न शून्यकाल होता है और न प्रश्नकाल। शुक्रवार का सदस्यों के निजी विधायी कार्यों का दिन भी नहीं होता।
मध्यावधि चुनाव का फायदा और नुकसान
बहरहाल यह शिगूफा तो काफी दिनों से चल रहा है कि केंद्र सरकार पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के साथ ही लोकसभा का मध्यावधि चुनाव करा सकती है। इस फैसले के पीछे विपक्ष की एकता में निरंतर हो रही प्रगति को कुंद करने की मंशा बताई जा रही है। विपक्षी दल के नेता मध्यावधि चुनाव की आशंका जता रहे हैं। याद कीजिए, 2004 में भी ‘शाइनिंग इंडिया’ नारे के दम पर वाजपेयी सरकार ने भी कार्यकाल पूरा होने से छह महीने पहले ही लोकसभा चुनाव कराया था। चुनाव के लिए बजट प्रावधान भी इस विशेष सत्र का प्रयोजन हो सकता है। मध्यावधि चुनाव का जोखिम सबसे पहले इंदिरा गांधी ने 1971 में उठाया था। पर गरीबी हटाओ नारे के बूते वे बहुमत के साथ सत्ता में लौटी थी। अटल बिहारी वाजपेयी को ऐसा जोखिम लेना महंगा पड़ा था और वे सत्ता से बेदखल हो गए थे।
आयकर जांच के घेरे में चंद्रबाबू नायडू
चंद्रबाबू नायडू की भी केंद्रीय एजंसियों ने घेराबंदी शुरू कर दी है। शुरुआत आयकर जांच से हुई है। नायडू पिछले कई माह से भाजपा के साथ आने को आतुर दिखते रहे हैं। दिल्ली में भाजपा के शिखर नेतृत्व से उनकी बातचीत भी हुई थी। भाजपा तेलंगाना में अपना जनाधार पुख्ता करने के लिए उनसे तालमेल की इच्छुक भी थी। पर, अचानक इरादा बदल दिया। इसके पीछे कई वजहें गिनाई जा रही हैं। पर हैं ये सब अटकलें।
मसलन कोई कह रहा है कि आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री और पिछले पांच वर्ष से राज्यसभा में भाजपा के संकट मोचक माने जाने वाले जगनमोहन रेड्डी के दबाव में नायडू को भंवर में फंसाया गया है। तो कोई 2018 में नायडू द्वारा राजग छोड़कर यूपीए में शामिल होने को कारण मान रहा है। ऐसा मानने वालों का तर्क है कि भाजपा का शिखर नेतृत्व नायडू को धोखा देने का मजा चखा रहा है। नायडू भाजपा के चक्कर में इंडिया गठबंधन में भी शामिल नहीं हुए और अब भाजपा ने भी उनसे किनारा कर लिया। अब साफ है कि नायडू की चुनावी नैया पूरी तरह से चुनावी भंवर में फंस चुकी है। देखते हैं, निकलने का कोई रास्ता मिलता है या नहीं।
(संकलन : मृणाल वल्लरी)