इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा किसी बाह्य या आंतरिक उथल-पुथल के कारण नहीं की थी। 1971 के बांग्ला युद्ध के दौरान ही बाह्य आपातकाल लग गया था। गुजरात, बिहार में उभरे युवाओं के आंदोलन का राष्ट्रव्यापी रूप लेना, जेपी जैसे महानायक का उसे नेतृत्व प्रदान करना, 12 जून, 1975 को गुजरात में कांग्रेस पार्टी की पराजय आदि कई प्रमुख कारण रहे।

जेपी स्वाधीनता संग्राम में गांधी और नेहरू के विश्वासपात्र साथियों में थे। लिहाजा, आपातकाल को लेकर उनकी पीड़ा अन्य नेताओं से भिन्न और मार्मिक थी। इंदिरा गांधी को जेल से लिखा जेपी का पत्र उनकी आत्मा की आवाज है- ‘कृपया उन बुनियादों को तबाह न करें, जिन्हें राष्ट्र के पिताओं ने, जिसमें आपके पिता भी शामिल हैं, अपने खून-पसीने से सींचने का काम किया है। आप जिस रास्ते पर चल पड़ी हैं, उस पर संघर्ष और पीड़ा के सिवाय और कुछ भी नहीं है। आपको एक महान परंपरा, महान मूल्य और कार्यरत लोकतंत्र विरासत में मिला है। जाते-जाते दुखी कर देने वाला मलबा छोड़कर मत जाइए, फिर से जोड़ने में काफी समय लग जाएगा। जिन लोगों ने ब्रिटिश साम्राज्य से लोहा लिया और उसे परास्त किया, वे अनिश्चितकाल तक अधिनायकवाद के अपमान और शर्म को बर्दाश्त नहीं कर सकते।’

जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा के फैसले से समूचे देश में भूचाल-सा आ गया था

25 जून, 1975 को दिल्ली के रामलीला मैदान में समूचे विपक्ष द्वारा आयोजित रैली बहुत विशाल थी। पहले इसका आयोजन 20 जून को तय था। जेपी उस दिन कोलकाता में थे। उनकी उपस्थिति को रोकने के लिए कोलकाता से दिल्ली की सभी उड़ानें रद्द कर दी गईं। लिहाजा, 25 जून की तिथि तय की गई थी। जनसंघ नेता मदनलाल खुराना मंच का संचालन कर रहे थे। लोकदल के प्रतिनिधि के रूप में सत्यपाल मलिक और मैं उपस्थित थे। इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा 12 जून को जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा के फैसले से समूचे देश में भूचाल-सा आ गया था।

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समाजवादी नेता राजनारायण ने 1971 में इंदिरा गांधी के विरुद्ध लोकसभा का चुनाव लड़ा और वे पराजित हो गए थे। उन्होंने उन नतीजों को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी। जस्टिस सिन्हा ने अपने फैसले में इंदिरा गांधी को चुनाव में सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग करने, भ्रष्ट हथकंडे अपनाने, डीएम, एसपी के पदों का दुरुपयोग करने, शराब और कंबल आदि बांटने का दोषी पाया और उनके चुनाव को रद्द कर उन्हें छह वर्ष के लिए अयोग्य घोषित कर दिया।

हालांकि बाद में उनके वकील डीपी खरे ने एक याचिका दायर कर बीस दिन की छूट की मांगी थी कि नए नेता का चुनाव करना होगा और इस बीच में कोई उथल-पुथल राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध हो सकती है। हालांकि नेता के चुनाव की बात तो दूर, समूची पार्टी ने एक बड़ी रैली 23 जून को कर उनके प्रति न सिर्फ आस्था का परिचय दिया, बल्कि तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने सभ्यता की सभी सीमाएं लांघते हुए नारा दिया कि इंदिरा ही भारत है और भारत ही इंदिरा है।

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आपातकाल के तमाम प्रसंगों और घटनाक्रम से एक बड़ी सीख मिलती है। जब कोई व्यक्ति या नेता अपने को पार्टी या फिर राष्ट्र का पर्याय मान लेता है, तो लोकतांत्रिक मूल्यों के पतन और तानाशाही की बुनियाद वहीं से शुरू हो जाती है। औपचारिक रूप से आपातकाल थोपना अब असंभव है, पर ऐसी आशंकाएं बनी रहती हैं, जो किसी व्यक्ति विशेष को संस्थागत तंत्रों और सिद्धांतों से ऊपर उठा देता है।

बहरहाल, रैली में सभी प्रमुख दलों के नेताओं के बाद जेपी बोलने को उठे, तो विशाल जनसमुदाय देर तक तालियां बजाकर उनका अभिवादन करता रहा। वातावरण सारगर्भित था और उत्तेजित भी। राष्ट्रकवि दिनकर की इस कविता का कई बार उल्लेख होता है कि- ‘सदियों की ठंडी-बुझी राख सुगबुगा उठी/ मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है/ दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो/ सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।’

जेपी ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के घटनाक्रम का जिक्र करते हुए इंदिरा गांधी के इस्तीफे की पुन: मांग की कि यह जन समर्थन के अभाव वाली सरकार है और वे इसे अस्वीकार करते हैं। उन्होंने सेना और पुलिस से अपील की कि वे किसी भी अवैध आदेश का पालन न करें, जैसा कि उनका मैन्युअल भी कहता है। इसी प्रकार का प्रस्ताव 1930 के दशक में मोतीलाल नेहरू ने भी पारित किया था कि पुलिस को चाहिए कि वह अवैध आदेशों का पालन न करे। उस समय के अंग्रेज जजों ने भी स्वीकार किया था कि अवैध आदेशों का पालन न करने की अपील करने में कुछ गलत नहीं है।

इंदिरा गांधी असुरक्षा के दौर से गुजर रही थीं। एक तबके द्वारा अदालत का फैसला आने तक किसी वरिष्ठ मंत्री को कार्यभार सौंपने की मांग भी उठने लगी। सरदार स्वर्ण सिंह और बाबू जगजीवन के नाम प्रमुखता से चर्चा में रहे, लेकिन इस दौर में इंदिरा गांधी का किसी नेता पर ऐतबार नहीं बचा था। उनकी मुसीबत को निरंतर बढ़ाने का काम चंद्रशेखर और उनके साथी कर रहे थे। मोहन धारिया, कृष्णकांत, लक्ष्मीकांत झा इस समूह के सदस्य थे, जो निरंतर टकराव टालने और जेपी से संवाद करने के पैरोकार थे। इन्हीं नेताओं के प्रयास से दो दौर की वार्ता इंदिरा गांधी और जेपी के बीच हो चुकी थी, जो बेनतीजा रही।

इसी असुरक्षा के दौर में आरके धवन, संजय गांधी और चौधरी बंसीलाल का त्रिगुट सक्रिय हुआ था। संजय गांधी को मारुति उद्योग के लिए 290 एकड़ जमीन आबंटित किए जाने पर संसद कई बार ठप हो चुकी थी। तीनों ने मिलकर सख्त कार्रवाई करने का दबाव बनाना शुरू कर दिया। इंदिरा गांधी के आवास पर 12 जून से निरंतर जनसमर्थन के नाम पर रैली आयोजित होने लगी।

युवा कांग्रेस में उपद्रवी किस्म के तत्त्वों की भरमार हो चली थी। तिगड़ी ने इंदिरा गांधी पर दबाव बनाना शुरू किया कि वे नरम रुख त्यागकर कड़ा रवैया अख्तियार करें। चंद्रशेखर के नार्थ एवेन्यू स्थित आवास पर 24 जून को जेपी के सम्मान में आयोजित भोज में दो दर्जन से अधिक कांग्रेसी सांसदों की उपस्थिति ने सबको आश्चर्यचकित कर दिया।

सिद्धार्थ शंकर रे जैसे कानूनविद आपातकाल का मसविदा तैयार करने लगे और संजय ब्रिगेड ने जेपी की पुलिस और सेना से की गई अपील को मुख्य मुद्दा बनाकर आपातकाल की योजना तैयार कर ली। रात को 11:45 पर राष्ट्रपति फखरुद्दीन अहमद से हस्ताक्षर करा कर इसकी घोषणा कर दी गई। सुबह छह बजे कैबिनेट की बैठक में सभी महत्त्वपूर्ण जानकारियां आदान-प्रदान होती रहीं। उस समय तक देश के लगभग डेढ़ लाख से ज्यादा नेता और कार्यकर्ता जेल जा चुके थे।

परिजनों को यातनाएं दी जा रही थीं। जमानत के लिए अदालतों पर दबाव बनाया गया और प्रेस पर सेंसरशिप लगाकर उसकी आजादी का गला घोंट दिया गया। हालांकि प्रेस क्लब दिल्ली से कुलदीप नैयर की अगुआई में सौ से ज्यादा पत्रकारों ने इसका विरोध किया, लेकिन इंदिरा गांधी के सत्ता के जुनून के सामने सब फीका पड़ गया।

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