दक्षिण अफ्रीका के जोहानिसबर्ग में ब्रिक्स सम्मेलन के व्यावसायिक फोरम को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शिष्ट भाषा में चीन की खिल्ली उड़ाते हुए विश्वसनीय, टिकाऊ और सर्वसमावेशी आपूर्ति शृंखलाओं की अपरिहार्यता को रेखांकित किया और चीन पर अति-निर्भरता के प्रति विश्व की बढ़ती चिंताओं को अभिव्यक्ति दी। वे यहीं पर नहीं रुके। चीन का नाम लिए बिना यह जता दिया कि जहां तक वैश्विक दक्षिण (ग्लोबल साउथ) की आपूर्ति शृंखला के रूप में स्थापित होने व विश्वसनीयता अर्जित करने की बात है, भारत अपने हिमालयी पड़ोसी से इक्कीस होने की स्थिति में आ चुका है।
चीन के महाशक्ति होने का कोई यथार्थवादी विकल्प नहीं
चीन दशकों से भारत को एक भू-राजनीतिक नौसीखिया ही मानता रहा है। कुछ वर्ष पहले तक चीन को दुनिया की अगली और अनिवार्य महाशक्ति के रूप में देखा जा रहा था। अधिकांश बहस इसी के इर्द-गिर्द केंद्रित थी कि अमेरिका-रहित और चीन-शासित विश्व कैसा रहेगा। पिछले 20 वर्ष की सभी भविष्यवाणियों, अनुमानों और उद्घोषणाओं के बाद, जिसमें कहा गया था कि चीन जल्द ही संसार की प्रमुख महाशक्ति के रूप में अमेरिका से आगे निकल जाएगा। पर चीन अब दोहरी प्रतिकूल और अंतरहित परिस्थितियों का सामना कर रहा है और उनमें से किसी का भी मुकाबला करने के लिए उसके पास कोई यथार्थवादी विकल्प नहीं है।
दो अहम कारण
चीनी सरकारी जनगणना के अनुसार, पिछले कई दशकों से चीन का सर्वोच्च लाभदायक घटक ‘कामकाजी उम्र के मजदूरों की उसकी कभी न खत्म होने वाली आपूर्ति 2010 में लगभग एक अरब तक पहुंच गई थी। 2020 की जनगणना से पता चला कि 1970 के दशक में आर्थिक उदारीकरण के बाद पहली बार चीन के कामकाजी आयु वर्ग में 3 करोड़ से अधिक की कमी आई है। संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि यह समूह-विशेष सिकुड़ता रहेगा और 2050 तक घटकर 77.3 करोड़ रह जाएगा। दूसरे शब्दों में, अब और तब के बीच चीन में ब्राजील की आबादी की तुलना में बड़ी संख्या में श्रमिकों के खोने की संभावना है।
14 साल से कम उम्र की चीनी आबादी भी उसी अवधि में घट जाएगी, 2020 में 25 करोड़ से कुछ अधिक से लेकर 2050 में 15 करोड़ तक। न केवल श्रमिक गायब हो जाएंगे, बल्कि कोई उनकी जगह ले पाएगा, यह उम्मीद भी नहीं है। दोहरा बोझ कहानी केवल चीन की प्रतिकूल हो रही जनसंख्या तक सीमित नहीं है। चीन की ‘महाबली’ अर्थव्यवस्था, जिसने अब तक न जाने कितने उछाल, फिर बड़े उछाल, फिर सबसे तेज उछालऔर न जाने क्या-क्या कारनामे किए हैं। वही अर्थव्यवस्था बहुत बड़ी समस्या बनने जा रही है। बेशक, इस समस्या का अधिकांश हिस्सा जनसांख्यिकीय कमी की विशालता के कारण होगा। लेकिन ऐसे विशिष्ट विवरण हैं, जो उस संकट के प्रभाव को बढ़ा देंगे। चीनी घरेलू संपत्ति का 70 प्रतिशत हिस्सा रियल एस्टेट में रखा गया है।
श्रमिकों की बढ़ी-चढ़ी लागत से जूझ रह
जोहानिसबर्ग में शी जिनपिंग का बुझा हुआ रूप इस बात की ओर साफ संकेत है कि भारत में मौजूद उसके प्रशंसक चाहे जो राग अलापें पहले कभी ‘विश्व में सबसे ज्यादा श्रमिक’ की अपनी विशिष्टता को भरपूर भुनाने वाला चीन अब श्रमिकों की बढ़ी-चढ़ी लागत से जूझ रहा है। उसके अभिलाषित आर्थिक वर्चस्व के लिए उसे 17वीं, 18वीं और 19वीं शताब्दियों जैसा औपनिवेशिक संसार और बंधक बाजार चाहिए जो तब की यूरोपीय महाशक्तियों के पास था, किन्तु आज के विश्व में उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।
परिणामत: चीन की कम्युनिस्ट पार्टी वही कर सकती है, जो कोई भी क्रूर, गोपनीयता आधारित व असहिष्णु राजनीतिक व्यवस्था करने को बाध्य है-अपने ही लोगों का शोषण, बलपूर्वक दमन व पड़ोसियों सहित पूरे विश्व के लिए एक संकट बनना।