इरशाद कामिल का कहना है कि साहित्य का काम किसी तरह की राजनीतिक नारेबाजी करना नहीं है। समाज, राजनीति के साथ साहित्य भी बदला है। साहित्य ने अपनी पीठ से परिवर्तन का बोझ उतार दिया है। सिनेमा में किसी तरह के राजनीतिक विभाजन को साफ तौर पर खारिज करते हुए कहते हैं कि फिल्म उद्योग में अगर आप किसी की जरूरत हैं तो फिर वह आपसे ही काम लेगा, फिर चाहे आप किसी भी विचारधारा के हों। फिल्म उद्योग वह शुद्ध जगह है जहां काबिलियत के बल पर टिके होने की गुंजाइश कभी खत्म नहीं होती है। उन्होंने एलान किया कि गजल गायकी को समर्पित एक नाम जल्द ही सामने आने वाला है। चंडीगढ़ में मकबूल गीतकार के साथ कार्यकारी संपादक मुकेश भारद्वाज की विस्तृत बातचीत के चुनिंदा अंश।
प्रश्न: हमारी मुलाकात चंडीगढ़ में हो रही है, जो आपके बौद्धिक निर्माण का केंद्र रहा है। आप अपनी प्रतिभा से ‘मायानगरी’ को मोह चुके हैं। कैसे आत्मसात किया वहां की संस्कृति में खुद को?
उत्तर: बौद्धिक निर्माण का केंद्र…ये अहम बात है। एक बात मैंने हमेशा महसूस की है कि जब आप हास्टल जैसी जगह पर रहते हैं तो आपके व्यक्तित्व का विस्तार होता है। हास्टल में रहते वक्त न चाहते हुए भी आपकी इतनी लोगों के साथ सुबह-शाम की नजदीकी होती है जो आम कालेज या विश्वविद्यालय परिसर में संभव नहीं होता। जिंदगी के बहुत सारे चरित्र आप उनके जरिए देख चुके होते हैं। साहित्य का विद्यार्थी होने के नाते मैं गहनता से पढ़ता रहा। इससे चीजों को लेकर परिपक्व समझ बनती है। रही बात मुंबई की जिंदगी की, वहां रोज फिल्में बनती हैं या रोज एक अलग तरीके का काम होता है। रोज खुद को नए तरीके से खोज पाना ही इस शहर को आत्मसात करना था।
प्रश्न: आपने कहा कि आपके निर्माण में साहित्य की अहम भूमिका रही है। साहित्य पर भरोसा जताते हुए उसे राजनीति के आगे चलने वाली मशाल कहा गया। साहित्य के लिए इस उपमा को बार-बार दोहराया जाता है। क्या आप इस बात से सहमत हैं कि सियासत और समाज में साहित्य अपनी पहले जैसी भूमिका नहीं निभा पा रहा है?
उत्तर: मुझे लगता है कि साहित्य का काम किसी भी तरह की नारेबाजी करना नहीं है। चार्ल्स डिकेंस ने ‘ग्रेट एक्सपेक्टेशन’ लिखी। उनसे किसी ने पूछा कि आप इससे क्या संदेश देना चाहते हैं? उन्होंने कहा कि मैं लिखना पसंद करता हूं, इसलिए लिखता हूं। मैं कोई डाकिया नहीं हूं जो संदेश देने जैसा बेकार का बोझ ढोऊं। साहित्यकार को लगता है कि मैं समाज को बदलने की कोशिश कर रहा हूं, या मैं बहुत बड़ी क्रांति करने वाला हूं तो क्रांति ऐसे नहीं होती है। जरूरी नहीं है कि हर साहित्यकार खास राजनीतिक सोच से भी लैस रहे।
उसके अपने रिश्तों की उधेड़बुन, घरेलू मसाइल उसका विषय हो सकता है। जैसे मेरे जेहन में बात आई थी, ‘कुछ रिश्तों का नमक ही दूरी होता है, ना मिलना भी बहुत जरूरी होता है’। जरूरी नहीं है कि इसे किसी खास अंदाज से ही कहा जाएगा। हर कोई अपने तरीके से बात कह सकता है। समाज में हर तरफ देखिए, अभिव्यक्ति के तरीके किस कदर बदल रहे हैं। साहित्य या साहित्यकार को इस तरह से नहीं देखा जा सकता कि उसे कोई जिम्मेदारी निभानी चाहिए या उसकी कोई खास राजनीति होनी चाहिए। हां, कोई खास व्यक्ति राजनीति का हिस्सा हो सकता है, फिर वह पूरे साहित्य का मूल्यांकन अपनी राजनीतिक विचारधारा के आधार पर करता है। अब समय पूरी तरह से बदल चुका है। यह बदला हुआ आत्मस्वर से सशस्त्र वाला समय भी सबसे ज्यादा साहित्य में ही दिख रहा है।
प्रश्न: आपने फिल्म उद्योग में खुद को स्थापित किया है। इस पर इल्जाम है कि भाई-भतीजावाद के कारण बाहरी प्रतिभा स्थापित नहीं हो पाती है। कंगना रनौत सहित कई लोग इस इल्जाम को लेकर मुखर रहे हैं। क्या आपको लगता है कि वहां प्रतिभा के बल पर स्थापित होने की गुंजाइश है?
उत्तर: फिल्म उद्योग ऐसी जगह है जहां काबिलियत की गुंजाइश कभी खत्म नहीं हुई थी और न होगी। हम अभी चंडीगढ़ के सेक्टर-18 में बैठे हुए हैं। देखिए यहां कितनी दुकानें हैं। तो क्या आज जिसकी दुकान है, कल उसकी संतान को इस दुकान पर नहीं बैठना चाहिए? उसको कहीं और जाकर कोई और कारोबार करना चाहिए? एक वकील अपने 25 सहयोगियों के साथ अपने बेटे को भी अपने साथ जोड़ता है वकालत के अभ्यास के लिए। खुदा न खास्ता वो कल न रहे तो क्या बेटा पिता की वकालत को न संभाले? क्या राजनीति में भाई-भतीजावाद नहीं है? प्रतिभा होना अलग बात है, परिवार का सहारा मिलना अलग बात है।
प्रतिभा पारिवारिक विरासत में नहीं मिलती है। मेरा मानना है कि सिनेमा उद्योग वह सबसे शुद्ध जगह है जहां प्रतिभा की कद्र होती है। कितने बड़े लोग हैं यहां जो अपने बच्चों को नायक, निर्देशक नहीं बना पाए। इसके बरक्स देखें तो किसी दूसरी जमीन से आया हुआ इंसान सफल हो गया और उसका ही बच्चा सफल नहीं हो पाया।
प्रश्न: एक स्थिति यह भी है कि अगर किसी का परिवार मजबूत है तो एक बार नाकाम होने के बाद भी उसे दस मौके मिल सकते हैं। पर बाहरी व्यक्ति के लिए पहला मौका आखिरी सरीखा होता है।
उत्तर: ऐसा नहीं है कि हर किसी को दस मौके मिल जाते हैं, और जो पहला मौका गंवा गया वह हमेशा के लिए बाहर चला जाता है। जो बाहर से आया है, वह अपनी जगह से ‘फिल्टर’ होकर आया है। वह एनएसडी, किसी संगीत विद्यालय की प्रतिभा है तो कहीं से पटकथा लेखन का कोर्स किया हुआ है। उसे पहला मौका मिल जाना और उसकी फिल्म का फ्लाप हो जाना दो बातें हैं। फिल्म फ्लाप होने के बाद भी प्रतिभा दिखती है तो उसे दोहराया जाता है।
जहां तक भाई-भतीजावाद की बात है तो आप मार-मार कर भी गधे को घोड़ा नहीं बना सकते हैं। नवाजुद्दीन सिद्दीकी अपने तरीके से अभिनेता बने। पंकज त्रिपाठी ने क्या स्थापित होने से पहले छोटी भूमिकाएं नहीं कीं? अगर इनकी प्रतिभाओं को पहचान कर इन्हें मौका नहीं दिया जा रहा होता तो आज ये यहां पर नहीं होते। मनोज वाजपेयी कितने लंबे समय से काम कर रहे हैं। इन्हें पता था कि इनका समय आने वाला है। ये लड़ाई ‘टैलेंट के सर्वाइवल’ की है।
प्रश्न: एक सवाल है सिनेमा में राजनीतिक प्रभाव का। बहुत से कलाकार राजनीतिक मोर्चे पर सक्रिय हो जाते हैं और उन्हें इसका फायदा भी मिलता दिखता है। सियासत और सिनेमा के इस संबंध को आप कैसे देखते हैं?
उत्तर: मेरा मानना है कि वैचारिक रूप से अलग होना एक और बात होती है, वहीं किसी काम के लिए आपकी ही जरूरत होना एक और बात होती है। जिसे किसी खास प्रतिभा के व्यक्ति की जरूरत हो तो वह यह नहीं देखता कि उसकी विचारधारा क्या है। जिसे इरशाद कामिल की जरूरत है वो ये नहीं देखेगा कि ये आदमी किधर और किसके पास जा रहा है। इरशाद को इसलिए लेना है क्योंकि मेरी काबिलियत फिल्म के लिए फादेमंद है। सिनेमा भी व्यापार है।
कोई किसी को इसलिए ही लेगा क्योंकि उसकी प्रतिभा में उसे अपना मुनाफा दिखेगा। विभाजन के और भी मुद्दे हैं। जैसे कहा जाता है कि गीतकारों में बहुत ज्याद महिलाएं नहीं हैं। किसी जगह सवाल उठता है कि महिलाएं ज्यादा हैं। इन सबके बीच अहम होता है एक चलनेवाली फिल्म का निर्माण। आपकी राजनीतिक सोच से उस पर कोई फर्क नहीं पड़ता है।
उत्तर: साहिर, हसरत जयपुरी, कैफी आजमी, कमर जलालाबादी, राही मासूम रजा, अब हिंदी सिनेमा में ऐसे नाम नहीं मिलते हैं। इसकी वजह?
उत्तर: इसकी अहम वजह यह है कि पहले साहित्य लेखन और गीतकारी में इतना बड़ा विभाजन नहीं था। साहित्यकार ही गीतकार था। अब दोनों के बीच फासला पैदा हो गया है। पहले के लोग अलग तरह से सोचते थे। साहिर, मजरूह सुल्तानपुरी मुशायरे में भी गजल पढ़ते थे। शैलेंद्र इप्टा में जाकर कविताएं पढ़ते थे। राही मासूम रजा कितना कुछ लिख-पढ़ रहे थे। अब साहित्य और सिनेमा दोनों का अलग-अलग वृत्त बन गया है। मैं साहित्य और सिनेमा के बीच पुल बनने की कोशिश कर रहा हूं। सिनेमा साहित्य से कोई अलग चीज नहीं है। अगर ये अलग चीज होती तो जो नाम आपने उद्धृत किए, क्या वे सिनेमा में काम करते? कोई गजल जगजीत सिंह गाते हैं तो वो साहित्य है और अगर अरिजीत सिंह गाते हैं तो साहित्य नहीं है। ऐसा क्यूं?
प्रश्न: इस तरह से ही वर्गीकरण होता आया है।
उत्तर: जी, ऐसा इसलिए हुआ कि हमने चीजों को अलग-अलग बक्से में डालनी शुरू कर दी। फिर कुछ चीजें रह जाती हैं जिसके लिए कोई बक्सा नहीं बचता है।
प्रश्न: क्या शायरी के लिए भी उम्मीदों का एक बक्सा है? उमराव जान, रजिया सुल्तान जैसी फिल्में अब कहां बनती हैं?
उत्तर: पिछले दिनों मेरी एक संगीत निर्देशक से बात हो रही थी। आमतौर पर मैं बहुत सारे गीतकारों वाली फिल्में नहीं करता। उन्होंने कहा कि मेरी यह फिल्म आप करेंगे ही न? मैंने कहा कि इस तरह क्यों पूछ रहे हैं? उन्होंने कहा कि उसमें एक-दो गजलें भी हैं पुरानी शायरी की। मैंने कहा, इससे अच्छी बात तो ही नहीं सकती। अब गजल के लिए भी उम्मीद है, और अभी यह वक्त ज्यादा आ रहा है।
प्रश्न: जगजीत सिंह के बाद गजल का खाता तो खाली है। शायरी, कलाम का सिनेमा के संगीत से नाता नहीं रह गया है। गजल में कोई एक खास नाम भी नहीं दिखता।
उत्तर: जब भी युवाओं को सनद करने वाली गजल लिखी जाएगी वो पसंद की जाएगी। पापोन नाम के एक बहुत अच्छे गीतकार हैं। अभी उनके साथ हमने गजलों का एक अल्बम किया है। आपकी बात सही है कि अभी ऐसा कोई एक नाम नहीं, जो सिर्फ गजलों की तरफ ही झुकाव रखे। उसकी वजह है गजल गायकी का अंदाज। जिस तरह जगजीत या हसन साहब गाते थे आज के युवाओं में उस तरीके का सब्र नहीं है सुनने का। आज की दुनिया थोड़ी अलग है। हम आज के हिसाब से गजलें बना रहे हैं ताकि फिल्मों में उसे जगह मिले।
प्रश्न: आज के सिनेमा में ज्यादातर गाने पृष्ठभूमि में चलते हैं तो उनका मिजाज उसी तरह का होता है। सिनेमा में गाने का दौर थम गया सा लगता है।
उत्तर: एक तो समय कम हो गया है। गाने में ‘लिप्सिंग’ आपसे वक्त मांगता है। पृष्ठभूमि के गाने के साथ गाना भी चला और फिल्म की कहानी भी आगे बढ़ती है। स्थिर होकर सुनने की चीज होने के कारण गजलों की जगह सिकुड़ गई। अब इसी निर्वात में उम्मीद भी है। बहुत सारे गीतकारों व गायकों को अहसास है कि यह जगह खाली है। इसे भरने की पूरी कोशिश हो रही है। गजल गायकी में एक नया नाम जल्द ही सामने आने वाला है।
प्रश्न: मैं आपकी बात को दुहरा रहा हूं। गजल गायकी में जल्द ही कोई नया नाम आएगा?
उत्तर: जी, बहुत जल्द एक नाम आएगा।
प्रश्न: गजल और इश्क का करीबी रिश्ता होता था। पहले कालेज में हर लड़का गजल गाता मिल जाता था। आजकल के गानों का मुकाम ‘डांस फ्लोर’ पर ले जाना होता है। इसलिए, फिल्मों में ऐसे तेज संगीत वाले गाने ही मिलते हैं। दर्शकों को सिर्फ यही परोसा जा रहा है। तो इस दिशा में कोई काम हो रहा है?
उत्तर: फिल्मों में गाने तीन खांचे में होते हैं। दो रोमैंटिक गाने, दो सैड रोमैंटिक गाने और दो डांस। इस खांचे में जिसे थोड़ी सी जगह मिलती है, वो कर ही लेता है। ‘जब से गांव से मैं शहर हुआ, इतना कड़वा हो गया कि जहर हुआ’। ‘तेरी नजरों में हैं तेरे सपने, तेरे सपनों में है नाराजी/मुझे लगता है कि बातें दिल की होती लफ्जों की धोखेबाजी/तुम साथ हो या ना हो क्या फर्क है? बेदर्द थी जिंदगी बेदर्द है…’ आपको इन चीजों के लिए जगह खोजनी पड़ती है। मैं पूरी कोशिश करता हूं। आप मेरा कोई गाना उठा लीजिए।
मैं उसमें उम्मीद की हर जगह भर देता हूं। फिल्म के बाजार के लिए मुखड़ा सबसे अहम होता है जो फिल्म को आगे ले जाता है। मुखड़े के बाद आगे बढ़ते गाने में निर्माता-निर्देशक की ‘स्कैनिंग’ कम होती जाती है। ‘तुमसे ही दिन होता है, सुरमयी शाम आती है’, अब जैसे-जैसे गाना नीचे जाता है तो सही लिखने वाला गाने को थोड़ा गाढ़ा करता जाता है। नीचे जाते हुए ये आपत्ति हट जाती है कि लोगों को समझ नहीं आएगा। आप मेरे गाने को देखिए। मैं उन लोगों के गीत लिखता हूं जो गीत नहीं सुनते हैं। अब ये बड़ी समाजवादी लाइन लगती है। जगह बनते ही मैं साहित्य के शब्द भरता हूं। ‘खाली है जो तेरे बिना मैं वो घर हूं तेरा’। मैं इस उम्मीद के बिना यह सब कर रहा हूं कि कोई किसी दिन मेरी इन कोशिशों को समझेगा। मेरी रचनाओं में यह कोशिश दिखेगी जरूर।
प्रश्न: इस समय देश में जो विभाजनकारी हालात बन गए हैं उसमें फिल्म उद्योग भी बंटा हुआ है। आप संस्कृतिकर्मियों को कैसे देखते हैं?
उत्तर: मैंने कहा न जरूरत के आगे कोई विभाजन भारी नहीं पड़ता। कौन किस चीज के काबिल है इस बात के अलावा किसी बात का फर्क नहीं पड़ता।
प्रश्न: आप बड़ी बात कह रहे हैं। छवि निर्माण, छवि प्रबंधन वाली धारणा को ध्वस्त कर रहे हैं।
उत्तर: मैं बहुत जिम्मेदारी के साथ कह रहा हूं कि जिस आदमी को जो चीज चाहिए होती है, जिस तरह से चाहिए होती है उसको वही, उसी तरह से चाहिए। अगर कला का निर्माण करना है, सिनेमा का निर्माण करना है तो आपके लिए गुणवत्ता के सिवा कुछ मायने नहीं रखता है। एक ईमानदार रचनाकार किसी भी संदर्भ में अपनी रचना की उपयोगिता देखेगा कि कोई उसे कितना विकसित कर सकता है।
प्रश्न: साहित्य की तरफ लौटते हैं। आपने जिस दौर में लिखना शुरू किया था तब किताब की अहमियत होती थी। किताब लोगों के हाथों तक पहुंचती थी। क्या सोशल मीडिया के दौर में आपको लगता है कि किताबों की उपयोगिता कम हुई है? और इसके जिम्मेदार कौन, लेखक या प्रकाशक?
उत्तर: इसकी मुख्य वजह डिजिटल तकनीक है। इसकी वजह से हर चीज हमें आसानी से मिल जाती है। दुश्वारियों का हटना कोई बुरी बात नहीं है। अब डिजिटल किताब एक ऐसी चीज है, कि आप दस किताबें अपने मोबाइल में रख सकते हैं, लेकिन वहां कितनी पढ़ पाएंगे गारंटी नहीं। पूरी लाइब्रेरी हो सकती है आपके फोन में, लेकिन आप कितनी पढ़ पाएंगे तय नहीं। मैं दावे के साथ कह रहा हूं कि जिस इंसान के हाथ में किताब होगी, उसने पढ़ने के लिए उठाई होगी। उसने दिखाने के लिए नहीं उठाई है। मुझे लगता है कि आज के दौर में किताबों की अहमियत बढ़ रही है।
प्रश्न: पिछले दिनों खत्म हुआ विश्व पुस्तक मेला किताबों और लेखकों के भविष्य को जेरे बहस में ले आया। आप किताबों की दुनिया को लेकर वाकई उम्मीदजदा हैं?
उत्तर: पहले दिल्ली में एक विश्व पुस्तक मेला लगता था और लोग दो-तीन दिन की छुट्टी लेकर दिल्ली आते थे। अब छोटे-छोटे शहरों में पुस्तक मेले लग रहे हैं। कसौली, देहरादून, शिमला, गोरखपुर से लेकर कहां-कहां नहीं हो रहे साहित्य उत्सव। वहां अच्छे लेखक जा रहे हैं, उत्साही पाठक पहुंच रहे हैं। किताबों को लेकर जो उत्सवी माहौल बन रहा है वो इस बात की तस्दीक कर रहा है कि किताबें बिक रही हैं, लोग पढ़ रहे हैं। प्रकाशन के क्षेत्र में कितने नए लोग आ गए हैं, कितने बाहर से लोग आ रहे हैं, वो सब इस बात के गवाह हैं कि किताबों से लोगों का प्यार बढ़ा है। हर क्षेत्र में पाठकों का विस्तार हुआ है। किताबें अभी बाकी हैं।
जिन मुखड़ों पर लबों ने कहा, ‘इरशाद’
-अज्ज दिन चढ़ेया/तेरे रंग वरगा
-ये इश्क हाय बैठे बिठाये/जन्नत दिखाए हां
-शहर में हूं मैं तेरे आके मुझे मिल तो ले
-जग घूमेया थारे जैसा न कोई
प्रस्तुति : मृणाल वल्लरी