‘मैंने अनवर इसलिए बांधी कलाई पर घड़ी
वक्त पूछेंगे कई मजदूर भी रस्ते के बीच।’
मजदूरों तक मंत्री की वो आवाज नहीं पहुंचेगी कि आप उनका समय क्यों खराब कर रहे थे, लेकिन बहुतों के पास तो जिंदा रहने का भी समय नहीं था। उनके पेट और उम्मीदें इतने खाली थे कि चलने के अलावा और कुछ सोच भी नहीं सकते थे। जंगल को काट कर सीमेंट की जो सड़क बनाई थी चिलचिलाती धूप में नंगे पांवों को कोयले की तरह जला रही थी। पैर में चप्पल नहीं है लेकिन मुंह पर मास्क है।
कोरोना काल में बिना मास्क चलना अपराध है तो देखिए ये कानून का कितना सम्मान करते हैं। वो आपकी मजबूरी समझते हैं कि नंगे पांव और खाली पेट चलना न तो अपराध घोषित होगा और न ही उसकी जिम्मेदारी तय होगी। एक स्त्री खाली पेट चल रही है और उसके गर्भ में एक और पेट खाली है। खाली पेट के अंदर का वो खाली पेट सोच रहा है कि मेरी मां मेरा बोझ ढोकर चल सकती है लेकिन उसकी भूख का बोझ उठानेवाली सभ्यता अब तक विकसित क्यों नहीं हो पा रही है, कहां जाकर मनुष्यता का गर्भपात हो रहा है।
कोरोना का संकट पूरी दुनिया का है। लेकिन भारत की सड़कों जितना अमानवीय रूप कहीं नहीं दिखा। जब विमान, रेल, गाड़ी सब बंद हो गए तो सड़कों पर छूटे हुए लोग चल पड़े। अभी तो दुनिया के सारे दृश्य उपग्रह में कैद हो रहे हैं। उपग्रह से बनी होगी तस्वीर पूर्णबंदी के समय चलना शुरू कर चुके मजदूरों की। उपग्रह से तो चींटी की तरह दिखे होंगे अभी, लेकिन हमने क्या नागरिक की तरह इन्हें कभी देखा भी था? बाजार और कारखाने की जरूरतों को पूरा करने के बाद चींटी की तरह असुविधाओं और बदइंतजामी के बिल में घुस जाते थे।
पूर्णबंदी के समय जिम्मेदारों को नहीं दिखे ये बिल। घरों में सुरक्षित बैठ खाना खा रहे लोगों के उलट इनकी भूख का कोई इंतजाम नहीं था तो निकल पड़े अपनी उस मिट्टी की ओर जहां से उम्मीद है कि अब भी बूढ़ी मां हर शाम बनाती है उनके हिस्से की एक रोटी और सुबह देती है गाय को। अगर घर तक पहुंच कर मर भी गए तो बूढ़ा बाप देगा चिता को आग और कब्र की मिट्टी में होगी अपनों के आंसुओं की नमी। लेकिन बहुतों को तो यह भी नसीब कहां था कि अपनों के बीच मरें। मां को पता चला कि जो बेटा उसकी मीठी लोरी के बाद नरम गोद में मुश्किल से सोता था आज उसे जंगल के बीच लोहे की पटरी पर ऐसी नींद आई कि रेल से कट कर मर गया। रेल उसके बेटे को गांव तक नहीं पहुंचा पाई लेकिन गांव तक पहुंचने में उसके थके शरीर को कुचलने जरूर पहुंच गई। गांव तक रेल लाई भी तो उसकी लाश।
ट्रक में जानवर की तरह दब कर बैठ गए तो मंजिल पर पहुंचने से पहले मिली मौत। मजदूरों के पसीने से बनी सड़क जब उनके ही खून से लाल हो गई है तो इसका जिम्मेदार कौन, ये सवाल पूछना ही इनकी मौत का अपमान करना है। इनसे बड़ा शहीद कौन होगा जिन्होंने किसी से कुछ नहीं मांगा। हमारी जरूरतों को पूरा करनेवालों को जब हम बोझ समझने लगे तो पैदल चल पड़े सैकड़ों किलोमीटर दूर अपनी गर्भनाल के पास।
सूनी सड़कों पर दम तोड़ते ये कौन लोग हैं? ये देश के नागरिक हैं, स्वतंत्र इंसान या उत्पादन का साधन भर यानी बंधुआ मजदूर? कारखाने का इंजन चलाते, सड़क, बहुमंजिला इमारत बनाने के बाद इनकी क्या उपयोगिता थी? अगर कभी ये सड़क पर अपनी मांग को लेकर आते थे तो हम इन्हें नुकसान के रूप में ही देखने के आदी थे। लेकिन जब सब कुछ बंद हो गया तो किसी ने भी इनके नुकसान के बारे में नहीं सोचा।
पुलिस की लाठी खाते और हादसों में मरते मजदूरों के प्रति राज्य की भूमिका को कैसे देखें? सड़क पर निकले इन मजदूरों की यह संख्या करोड़ों में है। ज्यादातर मजदूर बिहार, बंगाल, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों से पलायन कर आए हैं जिनकी आर्थिक हालत पहले से खस्ताहाल है। ये राज्य कृषि प्रधान हैं जहां लोगों को मौसमी रोजगार ही मिल सकता है। नवउदारवादी अर्थव्यवस्था के विकास ने बड़ी संख्या में गांवों पर निर्भर मजदूरों को शहर भेज दिया। कुछ तो पलायन होकर शहर पर निर्भर हो गए, स्थायी रोजगार में चले गए। लेकिन अभी भी बहुत बड़ा तबका है जिसे सालों भर खेत में काम नहीं मिलता है। ऐसी स्थिति में वह कुछ समय के लिए बाहर निकलता है और खेती के समय में लौट जाता है।
महानगरों में प्रवासी मजदूरों की यह संख्या सबसे ज्यादा है जिनका यहां पर कोई सामाजिक दायरा नहीं है। न तो दुकानदार से कोई स्थायी जुड़ाव और न आस-पड़ोस में ऐसा रिश्ता जो मुसीबत में मदद करे। ज्यादातर ठेके पर हैं और किसी तरह से भी संगठित नहीं हैं। महानगर में लंबे समय तक नहीं रह सकते और अपना विकल्प अपनी जड़ों में ही देखते हैं। शहर में इतना भी आधार नहीं है कि कारखाना खुलने का इंतजार करें। दिहाड़ी करने वाले, भवन निर्माण से जुड़े मजदूरों की संख्या विशाल है और इन्हें तत्काल कुछ दिखाई नहीं दे रहा है।
इनका मालिक और ठेकेदार इन्हें छोड़ चुका है तो ये उस राज्य पर बोझ हैं। दूसरी तरह इनका मूल राज्य भी खस्ताहाल है। वे राज्य सोच रहे हैं कि इतनी बड़ी संख्या में आएंगे तो हम क्या करेंगे और संक्रमण फैलने का डर अलग से। यही वजह है कि ज्यादातर राज्य अपने मजदूरों को आने नहीं देना चाहते, और जिस राज्य में हैं वहां के मकान मालिक से लेकर सरकार तक उन्हें बोझ मान रहे हैं। ये कहीं भी वोट बैंक नहीं हैं तो किसी भी राजनीतिक दल के लिए खतरा भी नहीं हैं। इसलिए भाजपा से लेकर कांग्रेस इन्हें लेकर उदासीन बयानबाजी कर रही हैं। उत्तर प्रदेश में योगी जी का शुरुआती उत्साह गायब है और कांग्रेस तो देर करने की खास पहचान बन ही चुकी है।
ये मजदूर संगठित ताकत नहीं हैं इसलिए इनसे कोई नहीं डर रहा है। केंद्र और राज्य सरकारें मिल कर इन्हें बचाने की योजना बना सकती थीं। तीन महीने पहले ही इनके खातों में जीवन निर्वाहक रकम डाली जा सकती थी, इन्हें भूखे नहीं मरने देने का आश्वासन तो दिया ही जा सकता था। लेकिन राजनेता बस यही बोलते रहे कि यह राजनीति करने का समय नहीं है क्योंकि इन्हें पता है कि इसका कोई राजनीतिक नुकसान नहीं होगा।
सड़क पर मरते, खुदकुशी करते लोगों के ऊपर सरकार को उस बाजार के लिए बेगार करने की जरूरत महसूस हुई जो कोरोना की छींक के साथ ही वेंटीलेटर पर जा चुका था। बाजार को बचाने के लिए एक राज्य ने श्रमिक ट्रेन तक रद्द कर दी ताकि मजदूर न लौट सकें और दूसरे राज्य ने इसे अपने मजदूरों की उपलब्धि घोषित कर दिया। सरकारें ऐसी क्रूरता इसी भरोसे कर रही हैं क्योंकि उन्हें इस सर्वहारा से किसी तरह की हार मिलने का खौफ नहीं है।
मजदूरों पर राजनीति नहीं करने का राजनीतिक फायदा कितना होगा ये तो वक्त बताएगा। लेकिन इससे हुए मानवीय नुकसान को मानवीय सभ्यता दर्ज कर चुकी है। मनुष्यता के इतिहास में हमारी करारी हार लिख गए हैं शहर से हारे ये मजदूर।