अतुल कनक
भारत में दुनिया के ताजा पानी के स्रोत का चार फीसद जल उपलब्ध है। हालांकि यह देखते हुए कि हमारे यहां दुनिया की आबादी का 17.5 फीसद हिस्सा रहता है, ताजे पानी की उपलब्ध मात्रा कम प्रतीत होती है। मगर सच यह है कि प्रकृति सबकी आवश्यकताओं को पूरा कर सकती है, बशर्ते उसके प्रति संवेदनशील रहा जाए। प्रकृति के प्रति संवेदनशील रहने का एक अर्थ यह भी है कि जो कुछ वह मनुष्य को उपलब्ध कराती है, कृतज्ञ भाव से उसका संरक्षण किया जाए।
भारतीय परंपरा में पानी को इसलिए पवित्र माना जाता है कि पानी जीवन से जुड़ी बहुत सारी संभावनाओं को सींचता है। हमारे यहां हर पवित्र अनुष्ठान में पानी को आवश्यक माना गया है। दुनिया के दो तिहाई हिस्से में पानी है, लेकिन पीने योग्य पानी की मात्रा बहुत कम है। ऐसे में होना तो यह चाहिए था कि ज्यों ज्यों हमारे पास ज्ञान और शोध के माध्यम बढ़े, दुनिया पानी के संरक्षण के प्रति अधिक सजग होती। मगर ‘वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट’ के ‘एक्वाडक्ट वाटर रिस्क एटलस’ की नवीनतम रपट उन लोगों को चौंकाती है, जो पानी के प्रति संवेदनशील हैं। इस रपट में कहा गया है कि इस समय दुनिया की एक चौथाई आबादी वाले पच्चीस देश भीषण जल-तनाव का सामना कर रहे हैं।
तकनीकी दृष्टि से जल-तनाव ऐसी स्थिति को कहा जाता है, जहां पानी की उपलब्ध मात्रा के बराबर ही उसका दोहन हो रहा हो और सूखे या वर्षा के अभाव की जरा-सी भी स्थिति भीषण संकट पैदा कर सकती है। बहरीन, साइप्रस, कुवैत, लेबनान और ओमान जैसे देश इस सूची में शीर्ष पर हैं, लेकिन चिंता की बात यह है कि पच्चीस देशों की इस सूची में भारत भी पच्चीसवें स्थान पर है। यानी गंभीर जल संकट हमारी संभावनाओं को भी कुंठित कर रहा है।
यह स्थिति डराती है। जिस देश में जल के अपव्यय को जीवन शैली का एक गंभीर दोष माना गया हो (वास्तुशास्त्र के अनुसार जिस घर में पानी का अपव्यय होता है, उस घर से सुख और समृद्धि विदा हो जाते हैं), उस देश में अगर पानी की पर्याप्त उपलब्धता के बावजूद भविष्य गंभीर संकट की ओर इशारा कर रहा हो, तो मान लेना चाहिए कि या तो हमारी जीवन शैली में कमी है या हम जलोपयोग संबंधी नीतियां निर्धारित करते समय किसी महत्त्वपूर्ण बात को भूल रहे हैं।
उल्लेखनीय है कि भारत में दुनिया के ताजा पानी के स्रोत का चार फीसद जल उपलब्ध है। हालांकि यह देखते हुए कि हमारे यहां दुनिया की आबादी का 17.5 फीसद हिस्सा रहता है, ताजे पानी की उपलब्ध मात्रा कम प्रतीत होती है। मगर सच यह है कि प्रकृति सबकी आवश्यकताओं को पूरा कर सकती है, बशर्ते उसके प्रति संवेदनशील रहा जाए।
प्रकृति के प्रति संवेदनशील रहने का एक अर्थ यह भी है कि जो कुछ वह मनुष्य को उपलब्ध कराती है, कृतज्ञ भाव से उसका संरक्षण किया जाए। मानसून के दिनों में हमारे यहां पर्याप्त पानी बरसता है। प्राचीन समय से ही मरूस्थलीय क्षेत्रों में इस वर्षाजल को संग्रहित और संरक्षित करके लोग वर्ष भर के लिए अपनी आवश्यकता के अनुरूप जल एकत्र कर लिया करते हैं।
राजस्थान के जैसलमेर में एक तालाब है- गड़सीसर तालाब। रियासत काल में स्थानीय शासक स्वयं मानसून के पूर्व जनता के साथ इस तालाब की सफाई में श्रमदान करते थे। यह जैसलमेर में एक पवित्र अनुष्ठान माना जाता था। पहली बरसात के समय इस तालाब में स्रान किया जा सकता था, उसके बाद तालाब के पानी को गंदा करना अपराध माना जाता था। राजपूताने के अधिकांश तालाब अपने पास के किसी दूसरे तालाब से इस तरह जुड़े रहते थे कि तालाब में अधिक पानी की आवक होने पर अतिरिक्त पानी दूसरे तालाब की ओर चला जाता था।
ठीक इसी तरह से ढलान वाले रास्तों पर कुंए, बावड़ी, कुंड, झील, डिग्गी जैसे जलस्रोत बनवाकर उनमें वर्षाजल संग्रहित कर लिया जाता था। प्राचीनकाल में कुएं बावड़ी और कुंड बनवाना पुण्य का काम माना जाता था। कुछ प्राचीन जलस्रोत तो इतने भव्य और अनूठे हैं कि उनका स्थापत्य आज भी दर्शकों को अचंभित करता है।
समस्त प्राचीन जलस्रोतों की तरह इनमें जमा पानी जमीन के अंदर रिसकर भूजल का स्तर भी समृद्ध करता था। अब बदलती हुई जीवनशैली और नगर नियोजन की बदली हुई प्राथमिकताओं ने अधिकांश प्राचीन कुंओं, बावड़ियों, झीलों, तालाबों, कुंडों को उपेक्षा के गर्त में धकेल दिया है और नलकूपों के माध्यम से भूजल को जीभर कर बाहर उलीचा जा रहा है। इस स्थिति ने देश के कई हिस्सों में भूजल की स्थिति गंभीर कर दी है।
राजस्थान का कोटा शहर सदासलिला कही जाने वाली चंबल नदी के किनारे बसा है, लेकिन इसी शहर की कई बस्तियों में भूजल का स्तर खतरनाक स्थिति तक नीचे चला गया है। हर चार साल में जारी होने वाली ‘वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्सूट’ के ‘एक्वाडक्ट वाटर एटलस’ की यह रपट बताती है कि साल 2050 तक दुनिया के चार देशों को अपने सकल घरेलू उत्पाद पर आधे से अधिक का नुकसान पानी की कमी से होगा। मैक्सिको, मिस्र और तुर्की के अलावा इस सूची में भारत भी शामिल है।
हम जब अपनी अर्थव्यवस्था को नवसोपानों तक पहुंचाने के लिए कृत संकल्पित हैं, पानी को लेकर जताई गई यह आशंका चिंतित करती है। ऐसा नहीं कि पानी के ऐसे संकट की ओर पहली बार इशारा किया गया है। सन 2014 में दुनिया के पांच सौ बड़े शहरों में एक जांच हुई और पाया गया कि औसतन हर चार में से एक नगर निकाय में पानी की कमी है।
संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में भी कहा गया कि 2030 तक वैश्विक स्तर पर पीने के पानी की मांग आपूर्ति से चालीस फीसद अधिक हो जाएगी। जब आपूर्ति से अधिक मांग होगी, तो वह स्थिति अराजकता का कारण बन सकती है। एक रिपोर्ट में कहा गया है कि 2030 तक दुनिया के ग्यारह बड़े शहर गहरे जल संकट का सामना करेंगे। इन शहरों में साओ पाओलो, बेजिंग, काहिरा, मास्को, जकार्ता, लंदन, तोक्यो और मियामी के साथ बंगलुरु शहर का नाम भी है। यानी भारत के बड़े शहर भी कुछ सालों बाद जलसंकट की परिस्थितियों का सामना करने की राह पर हैं।
ऐसा नहीं कि विभिन्न शोधों द्वारा प्रस्तुत जलसंकट की आशंका एक भयावह सपना ही है। प्रकृति अपनी नाराजगी कभी विस्फोटक स्थिति में अभिव्यक्त नहीं करती। वह विस्फोटक स्थिति आने के पहले अप्रिय परिस्थितियों को समय-समय पर रेखांकित करती रहती है। याद करें कि सन 2014 में ब्राजील के साओ पाओलो और आस्ट्रेलिया के पर्थ में किस तरह जल संकट गहराया था।
2018 में दक्षिण अफ्रीका के केपटाउन शहर में तो सूखे की वजह से पानी की राशनिंग कर दी गई थी। प्रति व्यक्ति प्रतिदिन पचास लीटर पानी ही मिल पाता था। सन 2019 में भारत के चेन्नई शहर में भी पानी का संकट गहराया। 2020 में ईरान में अपूर्व सूखे और बारिश की कमी के कारण नदियां सूख गई थीं और पानी की कमी के कारण लागू हुए प्रतिबंधों के विरोध में व्यापक प्रदर्शन हुए थे।
कुछ साल पहले शिमला जैसे शहर में पानी की किल्लत के कारण स्थानीय लोगों ने अपने घरों के बाहर ऐसे बोर्ड लगा दिए थे, जिनमें पर्यटकों से आग्रह किया गया था कि वे कुछ दिनों के लिए शहर में न आएं। उस समय पानी की टंकी खोलने वाले कर्मचारी को पुलिस सुरक्षा में जाना पड़ता था, क्योंकि लोगों ने पानी की लूटमार के लिए ऐसे कर्मचारियों से चाबी छीनने की कोशिश की थी। पानी की कमी के कारण पैदा हुई स्थितियां उग्र व्यवहार को जन्म दे सकती हैं।
जब कुछ दिनों के लिए किसी क्षेत्र में हुई पानी की कमी इतने उग्र विवादों का कारण हो सकती है, तो कल्पना करिए कि दुनिया के बड़े हिस्से में पानी की कमी होगी, तो हालात कितने विकट होंगे। ऐसी स्थितियों से बचने का यही रास्ता है कि दुनिया पानी के संरक्षण और सदुपयोग के लिए सजग और समर्पित हो।