सुभाष मेहरा
संसद में सोलह साल पहले पारित वन अधिकार कानून को हिमाचल में लागू करने की प्रक्रिया ठप होने से प्रदेश के कई वन और पर्यावरण कार्यकर्ता सरकारी हठधर्मिता के खिलाफ गुस्से में हैं। दलील दी जा रही हैं कि दशकों से वन भूमि और उसके आस पास बसे लोगों को ‘अतिक्रमक’ का गलत दर्जा दिए जाने और कठोर प्रतिबंधों के कारण कई परिवारों पर वन भूमि से बेदखली की तलवार लटकती रही है।
ऐसे समुदायों को वन भूमि पर आजीविका कमाने का अधिकार देने के लिए 18 दिसंबर, 2006 को संसद ने वन अधिकार कानून पास किया था। लेकिन इसके लिए जहां देश में 20 लाख वन अधिकार दावे मंजूर किए गए, वहीं हिमाचल में 164 पट्टे और व्यक्तिगत वन सामूहिक वन अधिकार के 2700 दावे पेश किए गए।
प्रसिद्ध गांधवादी नेता एवं पर्यावरण विशेषज्ञ कुलभूषण उपमन्यु के मुताबिक 1952 में तत्कालीन सरकार ने एक अधिसूचना जारी कर हिमाचल में सभी बंजर भूमि को वन भूमि घोषित कर दिया था। भारतीय वन कानून 1927 के तहत वन बंदोबस्त के तहत उस भूमि पर मौजूदा उपयोगकर्ताओं के दावों की सुनवाई का दशकों से मौका नहीं दिया गया। जबकि जटिल और कठोर वन संरक्षण कानूनों के कारण ‘नौतोड़’ नियम भी ठीक ढंग से लागू नहीं हुए। ऐसे में महरुम भूमिहीनपरिवारों ने 2002 में सरकार की नियमितीकरण नीति के तहत आवेदन किया था, मगर वन संरक्षण कानून 1980 की अड़चन बरकरार रहने से उनके आवेदनों पर कार्यवाही नहीं हुई अलबता उच्च न्यायालय में इन पर ‘अतिक्रमकों’ का धब्बा लग गया।
उनका कहना है कि कुछ वर्षों में वन अधिकार कानून के लिए कांगड़ा, चंबा, किन्नौर, लाहौल, स्पीति, सिरमौर और मंडी में संघर्ष हुए और सरकार को इस कानून को लागू करने की 2018 के सत्र में घोषणा करनी पड़ी। राजस्व जमाबंदियों में वन भूमि पर दर्ज लाखों नाजायज कब्जों के निष्पक्ष और न्यायपूर्ण समाधान का हल वन अधिकार कानून से हो सकता है लेकिन उसके बाद मामला जस का तस है।
इनका मानना है कि यह धारणा भी गलत है कि इस कानून से वनों का विनाश या और अवैध अतिक्रमण होंगे। क्योंकि ये कानून, वन भूमि के सीमांकन की अधूरी प्रक्रियाओं के कारण पिछली विसंगतियों को दूर करने के लिए है न कि भूमि वितरण के लिए। कहा जा रहा है कि सामूहिक उपयोग के लिए बंदोबस्ती के दौरान दी गई रियायतों को अधिकार का दर्जा देने के साथ इस कानून में वन भूमि पर 13 दिसंबर 2005 से पहले से किए जा रहे उपयोगों को मान्यता देना का भी प्रावधान है। इनका कहना है कि वन भूमि पर निर्भर समुदायों की वन आधारित आजीविका को मजबूत करके ही संरक्षण यकीनी किया जा सकता है क्योंकि कानून 2006 इसी सिद्धांत पर आधारित है। भाजपा सरकार से इनका कहना है कि कानून 2006 के तहत वन भूमि से कोई भी बेदखली तब तक अवैध है जब तक कानून के तहत पूरी प्रक्रिया नहीं की जाती। अगर जल्द कार्रवाई नहीं की गई तो सरकार को नींद से जगाया जाएगा।
कानून को लेकर प्रशासन में गलतफहमियां
हिमाचल के संदर्भ में वन अधिकार कानून की व्यापकता के बावजूद उपमन्यु के साथी रिगजीन हायरप्पा और मांशी आशर ने इसे दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए कहा है कि इस कानून को लागू करने में प्रदेश पिछड़ा हुआ है। जबकि राजनीतिक तंत्र व प्रशासन में इस कानून को ले कर एक तरफ कई गलतफहमियां हैं जिसकी वजह से यहां कानून का कार्यान्वयन ढंग से नहीं हो पा रहा है जबकि इसके लिए जिम्मेदार (नोडल एजेंसी) जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने बार-बार वन अधिकार कानून की उपयुक्ता, व्यक्गित और सामुदायिक वन अधिकारों के लिए हिमाचलियों की पात्रता को लेकर राज्य सरकार को स्पष्टीकरण जारी किए हैं लेकिन दावों को संस्तुति प्रदान करते वाले आला अफसर इस कानून को लागू करने के लिए कोई इच्छाशक्ति दिखाने की बजाय मौखिक आपत्तियों के साथ फाइलें वन अधिकार समितियों को वापस कर रहे हैं।
हिमाचल में विकास की बड़ी परियोजनाओं के रास्ते में वन अधिकार को लेकर अनापत्ति प्रमाण पत्र को रोड़ा मानते हुए पर्यावरणविदों का कहना है कि वन हस्तांतरण के कारण प्रभावित जनता को बिना मंजूरी अपने अधिकारों से बेदखल नही किया जाना चाहिए। वंचित होने की स्थिति में परियोजना निर्माणकर्ताओं को सामूहिक वन अधिकारों के अधिग्रहण के लिए भी हकदारों को मुआवजा देना अनिवार्य होना चाहिए क्योंकि हिमाचल में जल विद्युत और निर्माण परियोजनाओं के अंधाधुंध विकास में हजारों हेक्टेयर वन भूमि नष्ट हुई है। इनका कहना है कि इस कानून को ले कर सरकार अगर गंभीर है तो लंबित दावों पर निर्णय प्रक्रिया में तेजी लानी होगी।