इन दिनों भारत अपनी जीडीपी दर के हिसाब से आर्थिक तरक्की के बेहतरीन सोपान पर है। पर, यह भी सच है कि लगातार अच्छी विकास दर रहने के बावजूद भारत में अब भी कई पुरानी समस्याएं जस की तस बनी हुई हैं। अब तो कई नई समस्याएं भी पैदा हो गई हैं। आर्थिक विश्लेषण में जब भारतीय अर्थव्यवस्था पर रोजगार विहीन विकास का सेहरा बांधा जाता है, तो यह आम आदमी को बहुत अचंभित करता है। पर इस बात के भी कई मायने हैं। मसलन, बेरोजगारी की समस्या या रोजगार के अवसरों में वृद्धि का मुद्दा भारतीय समाज तथा भारतीय आर्थिक नीतियों में हमेशा से प्रमुख रहता है।
संयुक्त राष्ट्र की संस्था अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन यानी आइएलओ की भारत में रोजगार संबंधी ताजा रपट में बताया गया है कि वर्ष 2000 से लेकर अब तक भारत में कुल श्रम संख्या 17 करोड़ बढ़ी है, तो वहीं बेरोजगारों की संख्या 92 लाख से बढ़कर करीब ढाई करोड़ हो गई है। यानी पिछले तेईस वर्षों में भारत में बेरोजगारी की दर दोगुनी से अधिक हो गई है।
वर्ष 2019 के दौरान, जब कोरोना महामारी नहीं आई थी, भारत में बेरोजगारों की संख्या तकरीबन तीन करोड़ यानी 5.9 फीसद थी। फिर वर्ष 2022 में कुल बेरोजगारों की संख्या 2.29 करोड़ और बेरोजगारी दर घट कर चार फीसद पर आ गई। इससे स्पष्ट है कि भारत में बेरोजगारी एक अंतहीन समस्या बनी हुई है, बावजूद इसके कि यहां अच्छी आर्थिक विकास दर है।
इस रपट के मुताबिक भारत में इस समय अल्प-बेरोजगारी की दर बेरोजगारी की दर से अधिक है। भारत में प्रतिदिन का कार्य औसतन आठ घंटे के हिसाब से निश्चित है। पर वर्तमान समय में भारत की आबादी के एक बड़े तबके को प्रतिदिन के हिसाब से अत्यंत कम समय के लिए रोजगार उपलब्ध हो रहा है। कोई व्यक्ति पांच घंटे के लिए रोजगार कर रहा है, तो कोई तीन घंटे के लिए या कोई उससे भी कम समय के लिए।
इसके चलते ऐसे व्यक्तियों की प्रतिदिन की आय बहुत कम है, पर उन्हें रोजगार उपलब्ध है। अल्प-बेरोजगारी की दर 2012 में पुरुष और महिलाओं में एक समान 8.1 फीसद थी, जो 2019 में बढ़ कर क्रमश 9 और 9.6 फीसद रही। हालांकि 2022 में इस दर में कमी आई और पुरुषों में यह अब 7.7 फीसद तथा महिलाओं में 7.1 फीसद दर्ज की गई है।
इस रपट के मुताबिक वर्ष 2000 से लेकर अब तक भारत में कुल श्रम संख्या का पचास से पचपन फीसद तक हिस्सा रोजगार के लिए खुद के प्रयासों पर निर्भर है, जिन्हें इस रपट में स्वरोजगार की श्रेणी में रखा गया है। आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2000 में इस श्रेणी में 52.5 फीसद लोग थे, तो 2022 में इनकी संख्या बढ़कर 55.8 फीसद हो गई। मगर कुल श्रम संख्या का यह भाग भारतीय समाज में रोजगार के लिए असंगठित क्षेत्र से जुड़ा हुआ है तथा इनकी श्रेणी में सड़क के किनारे रेहड़ी लगाने वाले, दूध और सब्जी बेचने वाले, किसी सोसाइटी में ‘इलेक्ट्रीशियन’ और ‘प्लंबर’ का कार्य करने वाले जैसे लोग सम्मिलित हैं। मगर ये लोग आर्थिक रूप से सक्षम नहीं हैं, क्योंकि इनकी प्रतिदिन की आमदनी बहुत कम है।
इस रपट के अनुसार भारत में नियमित रोजगारों के अंतर्गत व्यक्तियों का फीसद वर्ष 2019 तक लगातार बढ़ा है, पर उसके बाद इसमें गिरावट देखी गई है। यकीनन, इसका मुख्य कारण कोरोना के दौरान हर संस्थान द्वारा कर्मचारियों की छंटनी है। आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2000 में भारत में कुल श्रम संख्या के 14.2 फीसद लोग नियमित रोजगार में थे, जबकि 2012 में इनका फीसद बढ़ कर 17.9 हो गया था और 2019 में यह सबसे अधिकतम 23.8 फीसद रहा, पर 2022 में इसमें काफी गिरावट दर्ज हुई और यह 21.5 फीसद हो गया। दूसरी तरफ भारत में अस्थायी कर्मचारियों का फीसद लगातार कम होता जा रहा है। मसलन, वर्ष 2000 में यह 33 फीसद था, जो वर्ष 2022 में घट कर 22 फीसद पर दर्ज हुआ।
आइएलओ का यह विश्लेषण भारत में बेरोजगारी की विकट स्थितियों को स्पष्ट करता है, क्योंकि पचास फीसद से अधिक तबका असंगठित क्षेत्र में स्वरोजगार की श्रेणी में है और तकरीबन 25 फीसद लोग अपना जीवन यापन नियमित रोजगार के माध्यम से कर रहे हैं। यानी देश के 75 फीसद लोगों के जीवन में रोजगार तो है, लेकिन रोजगार में स्थायित्व की कमी है।
नियमित रोजगार वाले श्रमिकों की श्रेणी में तकरीबन 60 फीसद लोगों के पास किसी भी तरह का कोई लिखित अनुबंध या रोजगार की शर्तें उपलब्ध नहीं हैं। फिर, भारत में हर तरह के रोजगार, चाहे वह नियमित हो या अनियमित या स्वरोजगार की श्रेणी में, सबमें पिछले एक दशक में प्रति व्यक्ति औसत वेतन में कमी देखी गई है।
आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2012 में नियमित श्रमिकों का प्रतिमाह औसत वेतन 12,100 रुपए था, जो 2019 में 11,155 तथा 2022 में 10,925 पाया गया। अनियमित रोजगार की श्रेणी में तो वेतन नियमित श्रमिकों से भी बहुत कम है, पर इस वेतन में पिछले एक दशक में तुलनात्मक रूप से कुछ वृद्धि दर्ज हुई है। वर्ष 2012 में अनियमित कर्मचारियों के लिए प्रति माह औसत वेतन 3700 रुपए था जो 2022 में 4712 रुपए हो गया। वहीं असंगठित क्षेत्र में स्वरोजगार या आत्मनिर्भर श्रमिकों का वेतन प्रतिमाह 2019 में 7017 रुपए था, जो 2022 में घट कर 6840 पाया गया। यह भारत के प्रति व्यक्ति आर्थिक विकास की एक बहुत चिंताजनक तस्वीर प्रस्तुत करता है।
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की इस रपट के विभिन्न विश्लेषणों में मुख्य रूप से भारत के अस्सी फीसद से अधिक युवाओं का बेरोजगार होना तथा उनका अधिक कुशल न होना शामिल है। इन सबके इतर एक अन्य बिंदु पर भी ध्यान केंद्रित होना आवश्यक है कि भारत की अर्थव्यवस्था को नब्बे के दशक के बाद से सेवा क्षेत्र द्वारा संचालित किया जा रहा है। आज सेवा क्षेत्र भारत में तकरीबन 55 फीसद के आसपास जीडीपी में अंशदान देता है, लेकिन रोजगार में इसका अंशदान तुलनात्मक रूप से बहुत कम है। आज भी भारत की आबादी का बड़ा हिस्सा रोजगार के लिए कृषि पर ही निर्भर है।
चर्चा है कि अगर भारत की अर्थव्यवस्था पांच लाख करोड़ डालर की हो जाएगी तो बेरोजगारी आधी रह जाएगी। यह जमीनी हकीकत से बहुत दूर दिखता है। अब आर्थिक नीतियों में कृषि, विनिर्माण तथा सेवा क्षेत्र में रोजगार के मद्देनजर नए सुधारों की जरूरत है। अगर अर्थव्यवस्था में जीडीपी लगातार बढ़ती है तो आर्थिक नीतियों की जवाबदेही रोजगार तथा प्रति व्यक्ति आय बढ़ने के लिए सौ फीसद निर्धारित होनी चाहिए। अन्यथा जीडीपी का बढ़ना आर्थिक विकास के प्रति बहुत सकारात्मक रूप को एक पक्ष को स्थापित करने में विफल रहेगा।