दिनेश प्रताप सिंह ‘चित्रेश’
वैश्वीकरण के मौजूदा दौर में सारा देश मंडी में तब्दील होने लगा है। ध्यान देने की बात यह है कि इस मंडी ने बचपन का भी बाजारीकरण करना शुरू कर दिया है। नतीजतन, अपने प्रयोग के सामानों के साथ फ्रिज, वाशिंग मशीन, बाइक, कार, फर्नीचर जैसी महंगी खरीदारी में भी बच्चे बाजार के अनुकूल अपनी सम्मति देने लगे हैं।
मजे की बात यह कि अधिकांश मां-पिता को शायद ही इसका अभास हो कि उनके लाड़लों को करोड़ों की खरीद-फरोख्त के बाजारू जाल में फंसाया जा चुका है। सर्वेक्षण रिपोर्टों के अनुसार, बच्चों को इस मुकाम तक लाने में मुख्य रूप से टेलीविजन और उनके विज्ञापनों का हाथ है। बच्चों में विवेक कम होता है। आठ-दस साल का बच्चा यह नहीं जान सकता कि टीवी पर जगमगाते विज्ञापन वास्तविकता से कोसों दूर सिर्फ वस्तु के प्रचार हैं।
बाजार की ताकतें जीवन की बदलती प्राथमिकताओं और स्थितियों के बीच अपना वर्चस्व स्थापित करना जानती हैं। स्थिति यह है कि शिक्षित और कमाऊ वर्ग एकल परिवारों में विभक्त हैं। माता-पिता अपनी भाग-दौड़ भरी जिंदगी के कारण बच्चों को पर्याप्त समय नहीं दे पाते। नतीजे में बच्चे अकेलेपन का शिकार हो रहे हैं और अपना अकेलापन बांटने के लिए निरंतर टीवी चैनलों के संपर्क में रहते हैं।
बाजार तंत्र इसका पूरा फायदा उठाने में लगा है। यह टीवी पर प्रसारित होने वाले उन्हीं धारावाहिकों को विशेष रूप से प्रायोजित करता है, जिसमें वर्जनाओं और पारंपरिक मूल्यों से मुक्त चमक-दमक भरी पाश्चात्य शैली की जिंदगी दिखाई गई होती है। जबकि औसत भारतीय बच्चे का पारिवारिक परिवेश इससे एकदम अलग किस्म का होता है। बच्चा यह अंतर नहीं समझ पाता है।
वह टीवी वाली जिंदगी को सत्य मानकर उसे अपने जीवन में उतारना चाहता है। इसके अलावा, विज्ञापन में मौजूद बच्चा बाल दर्शकों को खूब आकर्षित करता है। इसलिए उन्हें वैसा ही स्कूल बैग, जूता, पैंट, शर्ट वगैरह तो चाहिए ही, घरेलू समान भी विज्ञापन वाले बच्चे के मम्मी-पापा जैसे हों, तो क्या कहने। वास्तव में बच्चे जो देखते हैं, वही सीखते हैं।
एक तरफ टेलीविजन बच्चों में पाश्चात्य शैली के जीवन मूल्यों का सृजन कर रहा है, दूसरी तरफ उनकी सोच और वृत्ति को बाजार के अनुकूल बनाने के लिए विज्ञापनों को उनकी रुचि के अनुकूल बनाया जा रहा है। बच्चों को निशाने पर लेकर लक्ष्यसंधान बाजार की एक सोची-समझी रणनीति है। उन्हें पता है कि बच्चे को समय न दे पाने की मन ही मन लज्जा झेलने वाले अभिभावक खरीदारी में बच्चों की भूमिका स्वीकारने के लिए विवश हैं, क्योंकि इससे उनको बच्चों से बढ़ती दूरी को निकटता में बदलने की अनुभूति होती है।
बाजार का यह खेल अत्यंत विनाशकारी है। यह सीधे-सीधे बचपन में हस्तक्षेप है, जो बच्चों के स्वाभाविक विकास के स्तर पर गतिरोध पैदा कर रही है। परिणामत: भोला-भाला और सपनों से भारी आंखों वाला बचपन विदा ले रहा है। उसका स्थान ले रहे हैं शेखीबाज, स्वार्थी, आत्मकेंद्रित और अवमानना से भरे बच्चे! पहले बच्चों की मांग में जरूरत शामिल होती थी। हालांकि दुर्गा पूजा, दिवाली, ईद, क्रिसमस, होली आदि पर्वों और जन्मदिन, विवाह जैसे पारिवारिक उत्सवों पर बच्चों की मांग में कुछ जिद और आडंबर रहता था।
मगर अब माता-पिता जब भी खरीदारी के लिए निकलने लगते हैं, बच्चों की सूची सामने होती है। इसमें जरूरत के समान शायद ही रहते हों, ज्यादातर सामान तड़क-भड़क वाले होते हैं। अभिभावकों के पास बच्चों को सादगी, संयम, संतोष और मितव्ययिता की सीख देने का समय नहीं है। वे बच्चों की मांग की पूर्ति करके उन्हें प्रसन्न देखना चाहते हैं। यह विवेक तो वह पता नहीं कब गवां चुके हैं कि सोच सकें, जिनके पास अधिक पैसा नहीं है, उनके बच्चों पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा? कहीं वे साथ खेलते या पढ़ते हुए वे हीनभावना से तो नहीं घिर जाएंगे?
आधुनिक भारतीय समाज अपने अंदर विरोधाभास और द्वंद्व के चरम उबाल को समेटे हुए जी रहा है। एक तरफ संपन्नता और विलासिता में डूबे कुछ लाख लोग और उनका पिछलग्गू बड़ा मध्यवर्ग है। दूसरी तरफ एक बहुत बड़ी आबादी जीवन की मूलभूत सुविधाओं से वंचित घुट रही है। इस संवर्ग के बच्चे या किशोर में क्या अपने ही आयुवर्ग के संपन्न परिवार के संतानों जैसा जीवन जीने की ललक नहीं हो सकती? असमानता पहले भी थी, मगर तब अमीर-गरीब की खाई इतनी चौड़ी नहीं थी। बेलगाम उपभोग की प्रवृत्ति नहीं थी।
आज संतोष और संयम पर आधारित पुराने मूल्य खंडित हो रहे हैं। इनके स्थान पर भोगवाद प्रबल हो रहा है। यह गलत-सही कैसे भी मन की मुराद पूरी करने की प्रेरणा देता है। युवावर्ग में आक्रोश, आक्रामकता, विद्रोह, अवमानना, हिंसक वृत्ति वगैरह में बढ़ोतरी इसी की देन है। समाज में जिस तेजी से असमानता बढ़ रही है, उसे देखते हुए इन पतनशील वृत्तियों में अभी और वृद्धि की संभावना है। इससे समाज के ताने-बाने में जिस बड़े उलझाव के पूर्व संकेत मिल रहे हैं, वह निश्चय ही डरावनी तस्वीर है।