आज जब स्त्री-पुरुष समानता की नई इबारत लिखने की बात हो रही है, महिलाओं, यहां तक कि नन्ही बच्चियों से भी बलात्कार की खबरें क्षोभ से भर देती हैं। बसों, ट्रेनों, सार्वजनिक जगहों में स्त्रियों का बात-बेबात मजाक उड़ाना, उनके कपड़े, रहन-सहन, बोल-चाल, शारीरिक बनावट, रंग आदि को लेकर भद्दी टिप्पणियां करना, घरेलू महिलाओं के कामों का अवमूल्यन आदि अपने आप में दुखद आश्चर्य है।

दरअसल, पूरी दुनिया में वास्तविक अर्थों में स्त्री-पुरुष समानता अभी दूर की कौड़ी है। महिला समानता को लेकर संयुक्त राष्ट्र के 2017 से 2022 के दौरान विश्व भर से एकत्रित आंकड़ों के आधार पर कहा गया है कि दस में से नौ लोग महिलाओं के प्रति भेदभाव की भावना रखते हैं। पच्चीस फीसद पुरुष पत्नियों को पीटने में कोई बुराई नहीं समझते हैं। पचास फीसद लोग मानते हैं कि पुरुष बेहतर राजनेता होते हैं। महिलाओं की समानता के मामले में अपने को अग्रणी कहने वाले जर्मनी में एक सर्वे में सामने आया है कि सौ में से करीब तैंतीस पुरुष, महिलाओं पर कभी-कभी हाथ छोड़ देने को सामान्य मानते हैं। ऐसा वे अपने ‘सम्मान को कायम रखने’ के लिए करते हैं।

भारतीय समाज और व्यवस्था में अब भी स्त्री समानता और अधिकार की बातें वास्तविक संदर्भों से बहुत दूर हैं। सभी को संविधान सम्मत समान कानूनी अधिकार के बावजूद एक तय सीमा के बाद स्त्री के लिए ये बातें किताबी हो जाती हैं। बात सामान्य घरों की करें या पढ़े-लिखे घरों की, लगभग सभी में घरेलू महिलाओं को धन अर्जित करने वाले परिवार के मर्दों से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सुनना पड़ता है कि ‘मेरी कमाई खाती हो, तो तुम्हें मेरे अनुसार ही चलना होगा।’

अपने पैरों पर खड़ी, घर चलाने वाली महिलाओं को भी गाहे-बगाहे ऐसी बातों से दो-चार होना पड़ता है। विषय घरेलू या कामकाजी महिला की अधिकारों की हो, विधवा विवाह की हो, पिता की संपत्ति में बेटियों के हक की हो, कार्यस्थल पर समानता की हो, दहेज की समस्या, विवाह से संबंधी रीतियों-परंपराओं आदि की हो, हर स्तर पर असमानता है। बड़ी बात यह भी कि लोगों ने (अधिकांश स्त्रियों ने भी) इसी असमानता को जीवन की सच्चाई स्वीकार कर लिया है। सदियों से चली आ रही परंपराओं ने संविधान और कानून की बातों को एक तरह से दरकिनार कर दिया है।

हाल के वर्षों में कई स्तरों पर स्त्रियों को लेकर एक बड़े वर्ग में नकारात्मकता का भाव और बढ़ा है। लोगों के कथनों, व्यवहारों आदि से यह बात बार-बार सिद्ध होती है। महिलाओं को इंगित कर कहे जाने वाले परंपरागत वाक्य जैसे- ‘स्त्री हो, स्त्री बन कर रहो’, ‘चूड़ी पहन कर बैठो’, ‘स्त्रियां घर की इज्जत होती हैं’ आदि आज भी सरेआम कहे जाते हैं। बात-बेबात स्त्री संदर्भित गालियां, स्त्रियों पर बने नकारात्मक चुटकुले और टिप्पणियां आदि हर तरफ सुनने और व्यवहृत होते दिख जाते हैं। यह सब स्त्रियों को लेकर समाज के दोयम सोच को दर्शाता है।

गौरतलब है कि बेटियों और स्त्रियों से संबंधित प्रगति, समानता और सम्मान के परिदृश्य जिन घरों और समाजों में दिखते हैं, वहीं से उपरोक्त नकारात्मकता बातें भी निकलती हैं। उन्हीं घरों और समाजों में महिलाओं और बेटियों के साथ शारीरिक और मानसिक कुकृत्य भी होते हैं। क्यों अर्द्धनारीश्वर और शक्तिस्वरूपा दुर्गा की संकल्पना वाले समाज में स्त्री को भोग्या, वस्तु और महत्त्वहीन स्तर तक पहुंचा दिया जाता है? क्यों स्त्री स्वतंत्रता की वकालत करने वाले भारतीय समाज में घर से लेकर बाहर तक कोई भी स्थान उसके लिए निरापद नहीं रह जाता?

हमें उस सोच पर विचार करना होगा कि कैसे हम अपने बेटों के अधिकारों के प्रति तो जागरूक रहते हैं, पर जैसे ही बहू और बेटी की बात आती है, हम परंपरावादी बन जाते हैं। गौरतलब है कि भारतीय समाज कानून और नियमों के साथ-साथ छोटे-बड़े रीतियों और रिवाजों से चलता है। इनमें से कुछ ने इसमें सौंदर्य और रंग भरा है, तो कुछ ने अवरोधक का काम भी किया है। इसने एक पक्ष को सर्वशक्तिशाली, तो दूसरे वर्ग को कठपुतली बना दिया।

घर-परिवार, समाज, रीति-रिवाज, परंपराएं सबने मिलकर स्त्री-विरोधी समाज के निर्माण में अपनी भूमिका निभाई है। भ्रामक कथाएं रची गईं तथा पुरुष को सर्वशक्तिशाली और स्त्रियों को बेचारी, अबला और दासी के सांचे में ढाला। वे सारी बातें अब भी कमोवेश हमारे परिवेश में जिंदा हैं। एक समतामूलक समाज के निर्माण के लिए आवश्यकता इसी सोच तथा विचार पर चोट करने और मिटाने की है। स्त्री-पुरुष समानता की शुरुआत प्रत्येक घर से होनी चाहिए। बेटे- बेटी दोनों के हक और अधिकार समान हैं। इसलिए पाबंदियां और स्वतंत्रता भी दोनों के लिए समान होनी चाहिए। एक श्रेष्ठ दुनिया तथा श्रेष्ठ समाज बनाने के लिए पूर्णता के साथ स्त्री समानता और हर स्तर पर समानता आवश्यक शर्त है।