बिहार चुनाव में बड़ी पार्टियों की बात की जाए, तो इस सूची में कांग्रेस का नाम सबसे आखिर में आएगा, जो निचले पायदान पर रही। महागठबंधन में कांग्रेस को 70 सीटें मिली थीं, जिसमें से वो अधिकांश गंवा बैठी है। कांग्रेस के प्रदर्शन को लेकर महागठबंधन में सवाल उठने लगा है कि अगर कांग्रेस की सीटें कम कर दी जाती, तो उसका फायदा मिल सकता था।
2005 के चुनावों में कांग्रेस के खाते में महागठबंधन में 84 सीटें मिली थीं, जिसमें से उसने 10 सीटों पर जीत पाई। इसमें सबसे बड़ी बात यह है कि 58 सीटों पर कांग्रेस के उम्मीदवारों की जमानत ही जब्त हो गई थी। इस साल तुलनात्मक रूप से कांग्रेस का प्रदर्शन सुधरा दिख रहा है, लेकिन उतना नहीं कि वह बड़ी चुनौती खड़ी कर सके। अतीत की बात करें तो साल 2010 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस सभी 243 सीटों पर लड़ी थी, लेकिन उसका हाल 2005 के चुनावों से भी बुरा हुआ। इन चुनावों कांग्रेस केवल चार सीटों पर जीती और 216 सीटों पर उसकी जमानत जब्त हो गई।
साल 2005 में बिहार में दो बार चुनाव हुए। एक बार फरवरी में और फिर विधानसभा भंग होने के कारण दोबारा अक्तूबर में चुनाव हुए। फरवरी में कांग्रेस ने 84 सीटों पर चुनाव लड़ा और केवल दस पर जीत हासिल कीं। वहीं अक्तूबर में 51 सीटों पर लड़कर सिर्फ नौ सीटें जीतीं। वर्ष 2000 में बिहार अविभाजित था और मौजूदा झारखंड भी उसका हिस्सा था, तब कांग्रेस ने 324 सीटों पर लड़कर 23 सीटें जीती थीं। वहीं इससे पहले 1995 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने 320 सीटों पर उम्मीदवार उतारे और 29 सीटें हासिल कीं। 1990 में कांग्रेस ने 323 में से 71 सीटें जीतीं थीं। 1985 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने 323 में से 196 सीटें जीतकर स्पष्ट बहुमत हासिल किया था, यह अंतिम मौका था जब कांग्रेस ने बिहार में बहुमत हासिल किया। तब से कांग्रेस बिहार में जमीन तलाश रही है।
असल में कांग्रेस के इस खराब प्रदर्शन के पीछे बिहार में पार्टी का कोई बड़ा चेहरा न होना भी एक कारण माना जाता है। इसके चलते राज्य में पार्टी का नेतृत्व भी ठीक से नहीं हो पा रहा है। इसका असर हाल के चुनाव में दिखा, जहां उसका प्रदर्शन उम्मीद से काफी कम माना गया। इस बार कांग्रेस के खराब प्रदर्शन की वजह स्पष्ट साफ तौर पर उसकी लचर स्थिति और तैयारी को माना जा रहा है। कांग्रेस की तैयारी पूरे राज्य में कहीं नहीं थी। संगठन के स्तर पर पार्टी बिल्कुल तैयार नहीं थी। पार्टी के पास ऐसे उम्मीदवार ही नहीं थे जो मजबूती से लड़ सकें। महागठबंधन में 70 सीटें लेने वाली कांग्रेस को 40 उम्मीदवार तय करने में भी मुश्किल आई थी।
इस बार कांग्रेस को जो सफलता मिली है, उसमें माना जा रहा है कि वामदलों और राजद का वोट हस्तांतरित हुआ है। कांग्रेस को महागठबंधन में आने का फायदा मिला है, लेकिन वह फायदा नगण्य है। क्या महागठबंधन को कांग्रेस को साथ लेने का फायदा हुआ है, ऐसा वोटों के गणित से स्पष्ट नहीं हो रहा। जिन जगहों पर कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने रैली की, वहां महागंठबन को खास फायदा नहीं मिल सका। 52 सीटों को प्रभावित करने वाली जिन आठ जगहों पर राहुल गांधी ने रैली की थी वहां महागठबंधन की हालत खराब रही। इन 52 सीटों में 42 सीटों पर महागठबंधन को नुकसान हुआ। इस चुनाव में कांग्रेस के नेताओं ने 59 सभाएं की थीं। इनमें से राहुल गांधी ने हिसुआ, कहलगांव, कुशेश्वरस्थान, वाल्मीकिनगर, कोढ़ा, किशनगंज, बिहारीगंज और अररिया में सभाएं की थीं।
कांग्रेस के नेतृत्व ने तेजस्वी यादव पर गठबंधन में 70 सीटें देने का दबाव बनाया था और ऐसा न करने की स्थिति में गठबंधन से अलग होने की चेतावनी भी दी थी। यह जमीन तलाशने की कोशिश थी।
दरअसल, कांग्रेस अपने-आप को एक धर्मनिरपेक्ष पार्टी की तरह पेश करती रही है और जहां-जहां मतदाताओं के पास धर्मनिरपेक्ष पार्टियों के विकल्प हैं उन-उन राज्यों में कांग्रेस कमजोर होती रही है। बिहार में लालू यादव ने मुसलमान मतदाताओं को एक विकल्प दिया और कांग्रेस दुबली होती चली गई।