सुरेश सेठ

पिछले दिनों प्रधानमंत्री ने एक बात पूरे आत्मविश्वास के साथ दोहराई कि उनके तीसरे कार्यकाल में भारत अपनी आर्थिक शक्ति को कुछ इस तरह बढ़ाएगा कि उसका स्थान दुनिया में पांचवीं की जगह तीसरी आर्थिक शक्ति हो जाएगा। वैसे यह बात पिछले साल से चर्चा में है। जबकि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने कहा था कि दुनिया भर की महामंदी से भारत अपनी श्रमशीलता, घरेलू निवेश की प्रतिबद्धता और स्थायी नेतृत्व के कारण बच निकलेगा। उसकी आर्थिक विकास दर भी दुनिया में सबसे तेज है।

जापान और जर्मनी को पीछे छोड़ देगा

अगर यह बनी रहती है, तो 2029 तक भारत दुनिया की पांचवीं आर्थिक शक्ति से छलांग लगाकर तीसरी आर्थिक शक्ति तक पहुंच जाएगा। भारत के ऊपर जापान और जर्मनी, तीसरे और चौथे नंबर पर हैं, उन्हें भारत पीछे छोड़ देगा और नंबर एक आर्थिक शक्ति अमेरिका, नंबर दो चीन के बाद अपना स्थान ग्रहण करेगा। अब नए वक्तव्य में जिसका आकलन एसबीआइ की ‘इको पर रिपोर्ट’ ने भी किया है कि भारत 2027 तक तीसरी बड़ी आर्थिक शक्ति बन जाएगा।

अपने से आगे चलते जर्मनी और जापान को पीछे छोड़ देगा। उस समय भारत का सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) 5153 अरब डालर हो जाएगा और हम दुनिया की कुल जीडीपी के चार फीसद के हिस्सेदार हो जाएंगे। आज हम इसके 3.50 फीसद के हिस्सेदार हैं। इसी बात को आधिकारिक स्तर पर भी एक खुशनुमा सपने की तरह फिर भारतीयों के सामने परोसा गया है।

बेशक जब इस समय दुनिया भर में आर्थिक विकास दर नीचे चल रही है, हमारी विकास दर 6.3 फीसद के आसपास है। इस वित्तवर्ष में भी हम 6 से 6.5 के आसपास रह सकते हैं। अगले वर्षों में भारत छह फीसद से अधिक विकास दर प्राप्त कर लेगा। 2047 तक भारत की अर्थव्यवस्था 20 लाख करोड़ डालर की हो जाएगी। वर्तमान विकास दर बता रही है कि भारत की जीडीपी में हर दो साल में 75 लाख करोड़ डालर की वृद्धि होगी।

सवाल है कि पिछले दिनों जो यह भरोसा जताया गया कि भारतीय अर्थव्यवस्था दुनिया की पांचवीं आर्थिक बाहुबली शक्ति से उछलकर तीसरी महाशक्ति 2029 की जगह दो साल पहले 2027 तक हो जाएगी, इसके पीछे आर्थिक कारण क्या हैं? बड़ा आर्थिक कारण तो यह माना जा रहा है कि आज दुनिया में जो नया माहौल बन रहा है, उसमें निवेश और विनिर्माण के लिए चीन भी एकमात्र स्थान नहीं, बल्कि जरूरत है ‘चीन प्लस’ का आर्थिक सत्य स्वीकार किया जाए और वह जगह भारत के लिए खुली पड़ी है।

उम्मीद की जाती है कि जिस प्रकार का स्थायित्व भारतीय नेतृत्व ने देश की अर्थव्यवस्था को प्रदान किया है। जिस प्रकार मंदी के दिनों में भी घरेलू निवेश ने भगोड़े विदेशी निवेश की जगह लेने का प्रयास किया है और जिस प्रकार हमारी मौद्रिक नीति के सही इस्तेमाल के साथ रेपो रेट को बार-बार बढ़ाते हुए और सख्त साख नीति का पालन करते हुए कीमतों पर नियंत्रण किया गया है और थोक मूल्य सूचकांक को शून्य से नीचे ले आए हैं तथा खुदरा मूल्य सूचकांक भी रिजर्व बैंक द्वारा घोषित सुरक्षित पांच फीसद से नीचे चला गया है, उससे लगता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की त्वरित प्रगति की आर्थिक नीतियां सफल हो रही हैं।

वे सफल हो रही हैं, क्योंकि भारत इस समय बहुत पीछे से शुरू करके भी दुनिया की बहुत बड़ी इंटरनेट शक्ति बन गया है। अंतरिक्ष खंगालने और सौर क्षेत्र की पूछ-पड़ताल करने में इसरो किसी भी तरह नासा से पीछे नहीं है और उसकी एक बड़ी उपलब्धि यह भी है कि जहां तक अंतरिक्ष में उपग्रह प्रक्षेपण का संबंध है, भारत के इसरो ने सफलता हासिल की है और हमने तीसरी दुनिया के देशों और छोटे देशों को उनकी सूचना और संचार क्रांति के लिए यह सेवा व्यावसायिक रूप से निर्यात करनी शुरू कर दी है तथा उनसे मूल्यवान विदेशी मुद्रा बना रहे हैं।

भारत ने पिछले दिनों निर्यात में भी तरक्की की है और इस कठिन समय में भी हमने अपनी विदेशी पूंजी के भंडार को घटने के बावजूद फिर खड़ा कर लिया है। इसके अतिरिक्त भारत सरकार ने स्किल इंडिया, स्टार्टअप इंडिया और इसके साथ लघु और कुटीर उद्योगों के विकास पर भी पूरा ध्यान देना शुरू कर दिया है। कोशिश यह है कि भारत अब आयात आधारित अर्थव्यवस्था से निर्यात आधारित अर्थव्यवस्था बने। स्वावलंबी बने। अपनी सेना ही नहीं, कृषि विनिर्माण क्षेत्रों को भी आत्मनिर्भर बनाएं, क्योंकि आत्मनिर्भरता के बढ़ने से विदेशी बैसाखियों की जरूरत कम पड़ती है और विदेशी महाप्रभुओं का मुंह कम देखना पड़ता है।

तरक्की की बात करें तो अपनी तरक्की में उत्तर प्रदेश कह सकता है कि उसका सकल घरेलू उत्पादन 2027 तक नार्वे के बराबर होगा या 2014 में जीडीपी के मामले में भारत दसवें स्थान पर था और ब्रिटेन पांचवें स्थान पर। अब यह हाल है कि तरक्की करते हुए हम पांचवें स्थान पर आ गए, ब्रिटेन छठे स्थान पर चला गया और ब्राजील शीर्ष दस देशों की रैंकिंग से बाहर हो गया।

उपलब्धियां कुछ और भी हैं। पहली तो यह कि हमने न केवल कोविड महामारी का सफलता से सामना किया, बल्कि उस समय बनाए गए अपने देश के टीके भी जरूरतमंद देशों को निर्यात कर रहे हैं। लेकिन इस तरह के प्रशस्तिगायन में देश की उपलब्धियों को स्वीकार करते हुए भी यह पूछा जा सकता है कि देश तो पांचवीं से तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा और शायद इसके लिए जरूरी 8.4 फीसद की विकास दर को भी प्राप्त कर लेगा, क्योंकि इस समय हम सात फीसद से ऊपर हैं, लेकिन आम आदमी और देश का वंचित वर्ग क्या इस खुशहाली का सहभोक्ता है?

जब यह देश 1950 में लोकतांत्रिक घोषित हुआ था, तो देश में प्रजातांत्रिक समाजवाद स्थापित करने की घोषणा की गई थी। क्या कारण है कि यह लक्ष्य आज भी ध्रुवतारे की तरह कहीं दूर ठिठका हुआ लगता है। अरबपति खरबपति हो गए हैं और निर्धन और निर्धन हो जाने की राह पर चल दिए।

महंगाई नियंत्रण की बात होती है। बेशक आंकड़े उसका समर्थन करते हैं, लेकिन यह महंगाई नियंत्रण चूंकि खाद्य पदार्थों और सब्जी-फल की कीमतों के नियंत्रण पर अधिक निर्भर करता है और अब जब असाधारण मौसम परिवर्तन और बारिश के कारण आपूर्ति शृंखला गड़बड़ा गई और बाजारों की कीमतें उछलती नजर आ रही हैं, तो महंगाई पर यह नियंत्रण केवल पेट्रोल और डीजल की कीमतों के गिरने की ओर ही सहारे के लिए देख सकता है। लेकिन यह सहारा कहां?

पिछले वर्षों में निरंतर पेट्रोल और डीजल की कीमतें गिरने के बावजूद देश में इनकी कीमतों को स्थिर रखा गया। देश में इनकी कीमत को कम नहीं किया गया। जहां तक प्राकृतिक गैस और सिलेंडर की कीमतों का संबंध है, यह तो कई गुना बढ़ गर्इं। आम आदमी आज भी अपने आप को सुनहरे आंकड़ों के उपलब्धि-उपवन में कैक्टस के पास खड़ा हुआ पाता है।

चाहे पिछले दिनों में पेट्रोलियम कंपनियों ने अंतरराष्ट्रीय कीमतों के गिरने से बहुत लाभ कमाया, लेकिन उस लाभ का स्पर्श आम आदमी को कीमत कटौती के रूप में नहीं मिला और इसीलिए आज जब खाद्य पदार्थों की कीमतें मौसमी अव्यवस्था के कारण उछलती नजर आ रही हैं, तो ऊर्जा और गतिशीलता में लागत कम हो जाना आम आदमी को कहीं भी बचा नहीं पा रहा। यही कारण है कि देश बेशक तीसरी बाहुबली आर्थिक शक्ति होने जा रहा है, लेकिन आम आदमी को अपने जीवनयापन में आज भी बाहुबली नहीं पाता।