अजय पांडेय

यही नवंबर का महीना था। राष्ट्रपति पद के लिए नीलम संजीव रेड्डी बनाम वीवी गिरी के चुनाव के बहाने के. कामराज, मोरारजी देसाई, निजलिंगप्पा सरीखे कांग्रेसी धुरंधरों ने पार्टी व्हिप और पार्टी लाइन के उल्लंघन की दलील देकर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को ही पार्टी से निकालने का फरमान जारी कर दिया था। नेहरू-गांधी परिवार की एकमात्र वारिस को पार्टी से बाहर किए जाने का परिणाम यह हुआ कि पार्टी दो हिस्सों में बंट गई। उसके बाद से आज तक कांग्रेस की कमान नेहरू-गांधी परिवार या परिवार के विश्वस्त लोगों के हाथों में ही रही है। इंदिरा गांधी से लेकर सोनिया गांधी तक परिवारवाद और वंशवाद के तमाम आरोपों के बावजूद यही परिवार कांग्रेस की धुरी बना हुआ है। पार्टी में जिस किसी ने परिवार के खिलाफ राह पकड़ी उसे पार्टी जनों ने ही बाहर का रास्ता दिखा दिया। कांग्रेस ने 1885 में अपनी स्थापना के बाद आजादी की लड़ाई लड़ी और आजादी मिलने के बाद हुकूमत भी चलाई लेकिन पार्टी पर एक परिवार के वर्चस्व का आरोप तभी से लगना शुरू हुआ जब इंदिरा गांधी की  अगुआई में पार्टी का विभाजन हुआ। जानकारों का कहना है कि पार्टी में मौजूद दक्षिणपंथी धड़े से पर्दे के पीछे चली लंबी खटपट के बाद आखिरकार इंदिरा गांधी को नई पार्टी बनानी पड़ी।

ऐसा माना जाता है कि अपने कटु अनुभव के आधार पर ही इंदिरा गांधी ने खुद पार्टी की कमान संभाली अथवा अपने बेहद विश्वस्त जगजीवन राम को अध्यक्ष बनवाया। कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर देवकांत बरुआ ने ही यह नारा दिया था-इंडिया इज इंदिरा, इंदिरा इज इंडिया। उसके बाद से यदि आपातकाल के बाद के दो वर्षों को अपवाद मान लिया जाए तो जब तक इंदिरा गांधी जीवित रहीं, पार्टी में किसी ने उनके खिलाफ बोलने की हिम्मत नहीं की।  कांग्रेस की सियासत को नजदीक से जानने-समझने वाले सियासी पंडितों का कहना है कि इंदिरा गांधी की हत्या के बाद पार्टी अध्यक्ष पद से लेकर प्रधानमंत्री तक की कुर्सी संभालने वाले राजीव गांधी के सामने भी कोई बड़ी चुनौती नहीं रही। वीपी सिंह ने विद्रोह का बिगुल जरूर फूंका लेकिन पार्टी फिर भी राजीव गांधी के पीछे खड़ी रही। लेकिन असली समस्या राजीव गांधी की हत्या के बाद सामने आई। अब जबकि एक बार फिर से कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव होने जा रहा है तो नेहरू-गांधी परिवार के वारिस राहुल गांधी के समक्ष वैसी चुनौती कतई नहीं है जैसी उनकी दादी और मां के सामने रही।

जब पीवी नरसिंह राव और सीताराम केसरी बने अध्यक्ष

लंबे समय बाद नेहरू-गांधी परिवार से बाहर के व्यक्ति के तौर पर पार्टी अध्यक्ष और प्रधानमंत्री की गद्दी पर पहुंचे पीवी नरसिंह राव और सोनिया गांधी के बीच रिश्तों में लगातार तल्खी महसूस की जाने लगी। नारायण दत्त तिवारी, अर्जुन सिंह, शीला दीक्षित सरीखे तेज-तर्रार नेताओं ने इस तल्खी को भांपते हुए तिवारी कांग्रेस का गठन कर डाला। परोक्ष रूप से यह कांग्रेस नेहरू-गांधी परिवार के ही ज्यादा करीब थी। नरसिंह राव के बाद जब सीताराम केसरी ने 1996 में कमान संभाली तो कुछ ही अंतराल के बाद पार्टी की दुर्दशा शुरू हो गई। चुनावी हार के साथ-साथ कांग्रेस को लेकर कहा जाने लगा कि पार्टी अब खत्म होने के कगार पर है।

केसरी के अध्यक्ष रहते ही पार्टी के तमाम बड़े नेता सोनिया गांधी के दरबार में हाजिरी बजाने लगे और उनसे पार्टी की कमान संभालने की लगातार गुजारिश करने लगे। हालत यह हो गई कि केसरी के अध्यक्ष बनने के दो साल बाद ही 1998 में कांग्रेसी नेताओं ने एक प्रकार जबरदस्ती उन्हें पद से हटा डाला। उनके बाद ही सोनिया गांधी ने पार्टी की कमान संभाली। केसरी के बाद अध्यक्ष पद के लिए हुए चुनाव में सोनिया गांधी के खिलाफ जितेंद्र प्रसाद ने चुनाव लड़ने की हिम्मत दिखाई। चुनाव तो न उन्हें जीतना था और न ही वे जीते लेकिन जीवन भर उन्हें पार्टी में हाशिए पर पहुंच जाना पड़ा।