कांग्रेस की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ से पहले तक जितने विशेषणों से राहुल गांधी को भाजपा का एक अदना नेता भी नवाजता था, उसी राहुल गांधी की छवि उनकी नज़र में आज ऐसी हो गई कि उनकी तुलना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से की जाने लगी? ऐसा क्या हुआ, क्यों हुआ, आज देश के सत्तापक्ष के मस्तिष्क में यह बात क्यों घूमने लगी है। सच तो यह है कि कहते हैं जब डर किसी के मस्तिष्क में किसी चीज का बैठ जाता है, तो उसके सामने सोते-जागते, सुबह-शाम वही दिखाई और सुनाई देता है।
मस्तिष्क में बैठा डर हर वक्त सामने दिखता है
आज जिस गति से देश में राहुल गांधी की छवि उभरी है और कद बढ़ा है, उस ऊंचाई पर पहुंचना हर किसी के लिए संभव नहीं होता। अब तो यह स्पष्ट हो गया कि सत्तारूढ़ भाजपा के चाणक्य कहे जाने वाले गृहमंत्री भी स्वीकार करने लगे हैं कि अगले वर्ष प्रधानमंत्री की दावेदारी में विपक्षी चेहरे के रूप में राहुल गांधी ही वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने होंगे।
सत्तारूढ़ दल का उल्टा पड़ गया दांव!
हो सकता है कि आधुनिक चाणक्य कहे जाने वाले गृहमंत्री द्वारा फेंका जाने वाला यह एक पासा हो कि यदि राहुल गांधी का नाम प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के लिए उछाला जाएगा, तो विपक्षियों में दरार पड़ जाएगी, विपक्षी दलों की एकता में खटास पैदा हो जाए, जो उन्हें तोड़ने में कुछ मदद मिले। लेकिन, ऐसा लगता है कि यह दांव सत्तारूढ़ दल का उल्टा पड़ गया, क्योंकि गृहमंत्री के इस भाषण के बाद तो विपक्षी जोर-जोर से आवाज देकर कहने लगे कि अब तो गृहमंत्री तक ने मान लिया कि उनके नेता का कद प्रधानमंत्री के बराबर है।
फिर आम मतदाता, जो आधुनिक युग के युवा होंगे, उनकी पसंद तो राहुल गांधी हैं ही। सच में भाजपा के एक नेता ने ही कहा कि ‘भारत जोड़ो यात्रा’ से तो राहुल गांधी का भूत भाजपा पर चढ़ ही गया था, लेकिन अमेरिकी यात्रा में उनके कार्यक्रम और पत्रकारों के सवाल-जवाब के बाद तो भाजपा में हंगामा मचा हुआ है। सुबह से शाम तक कार्यालय हो या कोई बैठक, राहुल गांधी को चर्चा का मुख्य बिंदु बनाकर ही नीति तय की जाती है। उन्होंने कहा कि आज सत्तारूढ़ पार्टी हर तरह से चाहती है कि किसी-न-किसी तरह से राहुल गांधी के उभरे हुए कद को कमतर करके उनकी छवि को खराब किया जाए।
जल निरंतर सम स्तर पर रहने का प्रयास करता है, मनुष्य का भी मूल स्वभाव भी ऐसा ही होता है। विपक्षी दलों की एकता के कई किस्से हैं, जिन्हें जानते हुए भाजपा खुश है कि इस एकता का प्रयास कितना सार्थक होगा; क्योंकि उनमें फूट तो किसी-न-किसी बात को लेकर पड़ेगी ही और जिसका लाभ उनकी पार्टी को ही मिलने वाला है, इसलिए किसी न किसी प्रकार इसकी आलोचना करो, इसकी एकता को तोड़ो। वर्ष 1996 में नरसिम्हा राव के नेतृत्व में कांग्रेस की करारी हार हुई और 545 में से सिर्फ 141 सीटें ही पार्टी जीत पाई। भाजपा को 161 सीटों पर जीत मिली।

राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने भाजपा के अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलवा दी। इस पर खूब बवाल मचा और विपक्ष ने सरकार से बहुमत साबित करने के लिए कहा। अटल बिहारी वाजपेयी बहुमत साबित करने में नाकाम हो गए। इसके बाद जनता दल, वाम मोर्चा और कांग्रेस ने मिलकर नया गठबंधन तैयार किया। प्रधानमंत्री के चेहरे को लेकर सवाल उठा तो पहला नाम वीपी सिंह का आया, लेकिन 1990 में सियासी चोट खाए सिंह ने कांग्रेस के समर्थन से पीएम बनना स्वीकार नहीं किया। ज्योति बसु के नाम पर लेफ्ट पार्टी ने वीटो लगा दिया। वर्ष 1977, 1989, 1996, 2009, और 2019 में बड़े स्तर पर विपक्षी मोर्चा बनाने की कवायद शुरू हुई, लेकिन हर बार यह मूर्त रूप में आने से पहले ही बिखर गई।
दरअसल, 1977 में आपातकाल हटाने के बाद इंदिरा गांधी ने चुनाव कराने की घोषणा की थी। उनकी इस घोषणा के बाद सभी विपक्षी नेताओं को जेल से बाहर निकाला गया था। जेल से निकलने के बाद जय प्रकाश नारायण ने एक सामूहिक मीटिंग में इसी उद्घोष के सहारे विपक्ष को जोड़ने की वकालत की थी। जेपी की यह रणनीति उस वक्त कामयाब मानी गई। फिर जेपी की धरती और बिहार की राजधानी पटना में विपक्षी एकता को लेकर एक पहली बड़ी बैठक 23 जून को हुई। महाजुटान में शामिल हुए दलों का मकसद केंद्र की सत्ता को उखाड़ फेंकने की है।

सालों बाद देश में विपक्षी एकता बनाने के लिए पांच से अधिक प्रयास हुए हैं, लेकिन सिर्फ दो बार ही यह आंशिक रूप से सफल रहा है। जेडीयू, टीएमसी, उद्धव गुट की शिव सेना, सपा और आरएलडी जैसी राजनीतिक पार्टियों का प्रभाव केवल अपने राज्यों में ही सीमित है। यानी, दूसरे राज्यों में सहयोगी दलों को जीत दिलाने में उनकी भूमिका कुछ खास नहीं रहेगी। ऐसे में प्रश्न या उठता है कि क्या क्षेत्रीय पार्टियां अपने राज्य में सीट बांटने के लिए तैयार होंगी? सीटों का ऐसा क्या फार्मूला होगा, जिससे विपक्षी एकता बरकरार रहे। विपक्षी एकता की इस बैठक के जरिये 543 सीटों में कम-से-कम 450 सीटों पर एकजुटता दिखाने की कोशिश की जाएगी। इसमें यूपी की 80, बिहार की 40, बंगाल की 42, महाराष्ट्र की 48, दिल्ली 7, पंजाब की 13 और झारखंड की 14 सीटों पर फोकस रहने वाला है।
इन सभी तर्कों कुतर्कों का उत्तर देते हुए कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा था कि इसी विषय पर अगली बैठक जो पहले शिमला में होनी थी, अब 13-14 जून को बेंगलुरु की बैठक में उस पर निर्णय लिया जाएगा कि कौन कहां से चुनाव लड़ेगा। सत्तारूढ़ भाजपा का यही तो डर है कि यदि विपक्षी दलों की एकता का यह प्रयास सफल हो गया, तो फिर क्या होगा? अतः अब केवल इस एकता को किसी न किसी प्रकार तोड़ो, ऐसी बात करो, ऐसा संदेश दो कि एकता में जुटे तमाम नेताओं के मन में साथ ही जनता के मन में भी यह संदेह बना रहे कि यदि वे अपना मतदान विपक्षी दल के खड़े प्रत्याशियों के लिए करते हैं तो उनका मतदान जाया होगा; क्योंकि पता नहीं भिन्न-भिन्न मतों के नेताओं द्वारा बनाई गई सरकार में कब सिरफुटौव्वल शुरू हो जाए और सरकार गिर जाए और फिर उन्हें चुनाव में जाना पड़े।
इन्हीं सब सोच का परिणाम है गृहमंत्री का यह बयान, जिसमें उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी में से किसको प्रधानमंत्री बनाया जाना चाहिए का विचार रैली में आमलोगों से जानना चाहा था। वैसे, महापंडित आचार्य चाणक्य ने कहा था कि जो कष्ट पहुंचाए या राह में बाधक बने, उसके जड़ में मट्ठा डालकर उसको समूल नष्ट कर दो। संभवतः इसी सिद्धांत को अपनाते हुए वर्तमान केंद्रीय सरकार ने महाराष्ट्र और बिहार में काम करना शुरू भी कर दिया है।

इसलिए महाराष्ट्र में अजीत पवार को शरद पवार से अलग करके राज्य सरकार में शामिल करा दिया गया और उधर बिहार में उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव और लालू प्रसाद यादव, राबड़ी देवी पर रेलवे में जमीन के बदले नौकरी देने की फाइल खोलकर विपक्षी एकता की जड़ में मट्ठा डालना शुरू कर दिया है। जो भी हो, अभी चुनाव तक तो इस तरह की बात तो होती ही रहेगी, एक-दूसरे पर कटाक्ष तो करते ही रहेंगे, लेकिन मतदाता का मन जो जीत लेगा, वही देश का अगला प्रधानमंत्री बनेगा।
फिलहाल तराजू का दोनों पलड़ा अभी बराबर है, क्योंकि देश की जनता लगातार दो बार वर्तमान सरकार के क्रियाकलापों और विकास देख चुकी है, लेकिन इस बार युवा, खासकर पहली बार मतदान करने वाले युवाओं का मूड बदला हुआ है और वे कटिबद्ध हैं कि नई सोच के नए युवा को इस देश को आगे बढ़ाने के लिए अवसर दिया जाए। लेकिन, अभी चुनाव में कुछ समय शेष है और टेस्ट मैच की तरह पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव भी होना बाकी है। जनता तो इन्हीं चुनावों के परिणामों से लोकसभा चुनाव 2024 पर अपना निशाना साधेगी। देखना होगा कि कौन किस तरह से आम मतदाताओं को अपनी बातों से अपने वायदों से कितना आकर्षित कर सकता है और उसे अपने साथ जोड़ सकता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)