अगले साल देश में आम चुनाव हैं, जहां एक तरफ भाजपा का अपना आत्मविश्वास है तो वहीं दूसरी तरफ विपक्षी ताकत की तस्वीरें पटना और कभी बेंगलुरु से सामने आ रही हैं। देश ने एक ऐसा भी वक्त देखा है जब कांग्रेस एकमात्र प्रमुख सियासी दल था और तब  चुनावी मैदान में कांग्रेस के सामने खड़े दावेदारों को महज़ औपचारिकता माना जाता था, लेकिन समय ऐसा बदला कि आज कांग्रेस को छोटे से बड़े किसी सियासी दल के सहारे से गुरेज़ नहीं है। 

कांग्रेस के लिए सबसे मुश्किल दौर 2014 के आम चुनाव के बाद शुरू हुआ। इस चुनाव ने कांग्रेस को एक ऐसा झटका दिया, जिससे बाहर निकलना पार्टी के लिए आज तक मुश्किल साबित हो रहा है। इस आर्टिकल में हम आपको 1952 के उस दौर में ले जाएंगे जब देश ने पहला आम चुनाव देखा था और इस सफरनामे में आप 2019 तक लौट कर आएंगे।

1952 : कांग्रेस का सफरनामा

देश की आजादी के बाद कांग्रेस ने ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ (INC) के तौर  पर अपनी पहली पारी की शुरुआत की, 1952  के आम चुनाव में  जब जवाहरलाल नेहरू की मौजूदगी में कांग्रेस ने एक बड़ी जीत हासिल कर  401 में से 364 सीट हासिल की तब आज के हालात का अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता था। 

आज़ादी के बाद 1952, 1957 और 1962 की लोकसभा में लगातार चुनावी जीत के बाद कांग्रेस  एकमात्र अहम सियासी दल के तौर पर आगे बढ़ रही थी, लेकिन पहली बार 1967 में कांग्रेस के भीतर कुछ खटपट सुनाई दी। 

जब पहली बार कांग्रेस को लगा झटका

पंडित जवाहर लाल नेहरू की मौत के बाद इंदिरा गांधी के नेतृत्व में 1967 में आम चुनाव हुए। इन दिनों कांग्रेस के भीतर गुटबाजी और आंतरिक कलह की सुगबुगाहट सामने आने लगी थी। इसका असर यह हुआ की न केवल 100 से ज़्यादा सीटों पर हार हुई बल्कि इसके बाद कांग्रेस आठ राज्यों में चुनाव हार गई और यह पार्टी के लिए बेहद गंभीर मामला था। 

अब आप सोच रहे होंगे कि यह गुटबाजी हुई क्यों? तो इसका सीधा सा जवाब, पद की लालसा ही थी। नेहरू के बाद पार्टी के सामने चुनौती थी कि कमान किसे दी जाए और इन्दिरा को उत्तराधिकारी चुनने में सब एकमत नहीं हो पा रहे थे। जब यह गुटबाजी और आपसी संघर्ष लोगों के बीच आया तो पार्टी का मयार गिरने लगा और लोगों में एक तरह की धारणा पैदा हुई, पार्टी के हाथ से वो जनाधार छिटकने लगा जिसे नेहरू ने हासिल किया था। 

1952 से 1967 तक कितना गिरा कांग्रेस का वोटिंग प्रतिशत 

इन आंकड़ों के ज़रिए आप आसानी से समझ पाएंगे कि पहले आम चुनाव से 1967 तक पहुंचने में कांग्रेस का वोटिंग प्रतिशत किस तरह कम हुआ। 

  • 1952 में कांग्रेस ने 401 में से  364 सीट हासिल की थी और वोटिंग प्रतिशत था  45.0%
  •  1957 में कांग्रेस ने 403 में से 371सीट हासिल की थी और वोटिंग प्रतिशत रहा  47.8% मतलब  2.8% का इजाफा
  •  1962 में  494 में से  361 सीट हासिल हुई, यहां वोटिंग प्रतिशत रहा  44.7 यानी 1957 से 3.1 प्रतिशत कम
  • अब आते हैं 1967 के आम चुनाव पर, यहां पार्टी ने  520 में से हासिल की 283 सीट, वोटिंग प्रतिशत रहा 40.8 यानी  3.9 प्रतिशत कम। 

इंदिरा और राजीव का दौर (1969 से 1991 तक) 

निवर्तमान प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास्त्री की मौत के बाद पार्टी के भीतर नेतृत्व का मुद्दा उठा, 1966 में इंदिरा गांधी ने देश की कमान संभाली और उन्हें पीएम बनाया गया, हालांकि इस दौरान पार्टी के भीतर आंतरिक लड़ाई जारी थी। इसका असर यह हुआ कि कांग्रेस दो गुटों में विभाजित हो गई। लेकिन यहां बहुमत इंदिरा गांधी के साथ चला गया। गठन हुआ कांग्रेस (आई) का। इन्दिरा गांधी ने 1971 में आम चुनाव लड़ा और “गरीबी हटाओ” का नारा दिया।  

इसका असर यह हुआ कि पार्टी ने 1967 में छिटके वोट को फिर हासिल कर लिया। पार्टी को 69 और संसदीय सीटें हासिल हुई और पूरे भारत में वोट शेयर 3 प्रतिशत बढ़ गया। यहीं से कांग्रेस में ‘कमान किसके हाथ में होगी’ का सवाल खत्म हो गया और इंदिरा गांधी और मजबूत होने लगीं। 

ऐसा माना जाता है कि यह वह दौर था जब कांग्रेस में गांधी परिवार का एकमात्र पावर शुरू हुआ, जिसे लेकर आज भी भाजपा, कांग्रेस पर एक परिवार की पार्टी होने का आरोप लगाती है। इन्दिरा गांधी के इस दौर को लेकर कहा जाता रहा है कि उन्होने केंद्र से लेकर राज्यों तक में प्रमुखता अपने करीबी और वफादार लोगों को दी। इसका असर चुनावी ज़मीन पर भी हुआ–1972 में पार्टी कई उप-चुनाव हार गई, जिसमें एक ऐसी सीट भी शामिल थी जिसे पार्टी ने पहले आम चुनाव के बाद कभी नहीं हारा था। 

इसके बाद 1975 में आपतकाल की घोषणा से लेकर इंदिरा गांधी के और भी कई ऐसे फैसले रहे कि उनकी लोकप्रियता घटने लगी। संजय गांधी के कुछ फैसलों और जनता पर पड़े प्रभाव के रहते पार्टी उस मक़ाम पर आ गयी जहां अब 1952 जैसा प्रभाव बाकी नहीं रह गया था। 

1977 का आम चुनाव ऐतिहासिक तौर पर काफी अहम माना जाता है, क्योंकि यह एक ऐसा दौर था जब कांग्रेस को सत्ता से उखाड़ फेकने के लिए कई विपक्षी दल एक होने लगे ; इस विपक्षी दलों के जुड़ाव की एक झलक आज के दौर में नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ जुट रहे विपक्षी दलों को देखकर दिखाई देती है।  

इस चुनाव में कांग्रेस की भारी हार हुई, इंदिरा गांधी रायबरेली में अपनी सीट हार गईं, जबकि उनके बेटे संजय अमेठी में अपनी सीट हार गए। मोरारजी देसाई ने 24 मार्च को भारत के चौथे प्रधान मंत्री के रूप में शपथ ली थी। 

लेकिन जनता दल की हिलती-ढुलती कमजोर बहुमत वाली सरकार ज़्यादा टिक नहीं सकी और 1980 में सरकार गिर गयी। 1980 को आम चुनाव हुए और कांग्रेस एक बार फिर सत्ता पर काबिज हो गई। यही  से जनता दल के विभाजन का दौर शुरू हुआ, इन्दिरा गांधी की हत्या हुई और दौर शुरू हुआ राजीव गांधी का। 

राजीव गांधी ने 1984 के आम चुनावों में पार्टी को प्रचंड जीत दिलाई और रिकॉर्ड जीत हासिल की। 400 से ज़्यादा सीटें खास तौर पर इंदिरा गांधी की हत्या से पैदा हुई सहानुभूति लहर के कारण पार्टी के हिस्से में आई थीं। लेकिन पार्टी का यह रुतबा बरकरार नहीं रहा और 1989 ने कांग्रेस सरकार ने अपना जनादेश खो दिया। यह वही वक़्त तक जब भाजपा अपने गठन के बाद से लगातार आगे बढ़ रही थी। 1991 के लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस सत्ता में लौटी और देश पर शासन किया। 

इसके बाद 1996 के आम चुनाव में कुछ ऐसा हुआ जिससे कांग्रेस आज भी पार पाने के प्रयासों में लगी है। इस चुनाव में किसी भी दल को बहुमत हासिल नहीं हुआ लेकिन भाजपा ने सबसे ज़्यादा सीट हासिल कर सबको चौंका दिया।

कांग्रेस के लिए भाजपा की चुनौती और सोनिया गांधी का दौर 

 यहां कांग्रेस को एहसास हुआ कि भाजपा उसकी ताकत चुरा सकती है। इसके बाद सोनिया गांधी को कमान संभालने के लिए सामने लाया गया, वह राजीव गांधी की हत्या के बाद राजनीति से दूर हो गई थीं। इसका असर यह हुआ कि पार्टी ने 2004 में एक बार फिर सत्ता में वापसी की। कांग्रेस इसके बाद 2004  और 2009 के राष्ट्रीय चुनावों में 200 से ज़्यादा सीटों पर जीत हासिल कर सत्ता बरकरार रखने में सफल रही। 

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2014 का आम चुनाव : 44 सीटों पर सिमटी कांग्रेस 

राजीव गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस के भीतर भाजपा की मौजूदगी के जिस डर ने घर बना लिया था वो सच साबित हुआ। कभी देश में एकक्षत्र राज करने वाला सियासी दल 2014 के आम चुनाव में महज़ 44 सीटों पर सिमट गया। वोट 

20 प्रतिशत गिर गया। पार्टी के हालात इतने बदतर हुए कि ‘कांग्रेस मुक्त भारत का नारा’ उछाला जाने लगा। 2019 में भाजपा समर्थित गठबंधन ने बड़ी जीत हासिल की और कांग्रेस के लिए सत्ता में वापसी और मुश्किल होती चली गई। 

आज कांग्रेस 2024 के आम चुनाव से पहले विपक्षी दलों को साथ लाने पर मजबूर है, पार्टी को यह तक कहना पड़ रहा है कि हमें पद की लालसा नहीं है, हम पीएम पद भी नहीं चाहते।

(आर्टिकल में मौजूद आंकड़े चुनाव आयोग की वेबसाइट से लिए गए हैं)