लोकतांत्रिक समाज की आधारशिला माने जाने वाले मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा ने 75 वर्ष पूरे कर लिए हैं। तकनीकी प्रगति, भू-राजनीतिक परिवर्तन और विश्वव्यापी कोविड-19 महामारी के विरुद्ध युद्ध से चिन्हित युग में मानवाधिकारों के प्रचार और संरक्षण को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।

वर्तमान वैश्विक परिदृश्य मानवाधिकारों से संबंधित प्रगति और असफलताओं का जटिल चित्र प्रस्तुत करता है। सकारात्मक पक्ष पर लैंगिक समानता, एलजीबीटी (लेस्बियन, गे, बाईसेक्सुअल और ट्रांसजेंडर) अधिकारों और स्वदेशी अधिकारों की मान्यता में उल्लेखनीय प्रगति हुई है। कुछ समाजों और देशों में लैंगिक विषमता, आर्थिक असमानता और भेदभाव की खाईयां और गहरी हुई हैं।

कई क्षेत्रों में अधिनायकवाद की चिंताजनक प्रवृत्ति ने जड़ें जमा लीं हैं, जो मानव अधिकारों के लिए सीधा खतरा पैदा कर रही है। चीन, उत्तरी कोरिया, अफगानिस्तान, पाकिस्तान और ईरान जैसे देशों में आजादी का कोई मोल नहीं। आतंरिक कलह से जूझ रहे कई देशों ने राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर नागरिक स्वतंत्रता का क्षरण भोगा है। एमनेस्टी इंटरनेशनल की रपट ‘द स्टेट आफ द वर्ल्ड्स ह्यूमन राइट्स’ के अनुसार दुनिया भर में हो रहे मानवाधिकारों के हनन के प्रति दोहरे मानकों और अपर्याप्त प्रतिक्रियाओं ने दंड-मुक्ति और अस्थिरता को बढ़ावा दिया है।

धर्म के नाम पर उभर रहे संघर्ष क्षेत्र मानवाधिकार हनन के केंद्र बने हुए हैं। वहां नागरिकों को अंतहीन उत्पीड़न और विस्थापन का दर्द झेलना पड़ रहा है। पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के लिए अधिकार जैसी कोई चीज नहीं। शादी के मंडप से हिंदू लड़कियों को उठा ले जाना और बलपूर्वक धर्म परिवर्तन कराना, हर हिंदू पर्व पर हिंदुओं के घर-बस्तियां जलाना आम बात है।

सरकार और अदालतों से भी वहां अल्पसंख्यकों को न्याय नहीं मिलता। सीरिया से लेकर यमन तक जीवन, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा के अधिकार जैसे बुनियादी मानव अधिकारों पर सशस्त्र संघर्षों के विनाशकारी प्रभाव को कम करके नहीं आंका जा सकता। लामबंद मजहबी गिरोह और दुनिया को अपनी शर्तों पर नचाने वाले पांच वीटो पावर वाले देश प्राय: हिंसक संघर्षों में लिप्त तत्त्वों के पक्ष में खड़े हो जाते हैं।

कोविड-19 महामारी ने सामाजिक-सांस्कृतिक असमानताओं को उग्र विस्तार और कमजोर समुदायों को जोर का झटका दिया है। जबकि भारत में गरीबों के लिए राशन, दवाओं और चिकित्सा सुविधाओं के संचालन में कोई भेदभाव नहीं बरता गया। कई देश निरंतर मानवाधिकारों के उल्लंघन के लिए कुख्यात हैं, जो वैश्विक परिदृश्य का एक निराशाजनक चित्र प्रस्तुत करते हैं। उदाहरण के लिए, चीन को मानवाधिकारों के सुनियोजित दमन के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर निंदा का सामना करना पड़ रहा है।

किसी भी राष्ट्र को अपनी सीमाओं के अंदर आतंकवाद को न पनपने देना उसका अपने नागरिकों की सुरक्षा के प्रति एक दायित्व होता है। लेकिन शिनजियांग में उइगर मुसलमानों का जो दमन चीनी प्रशासन ने किया उसमें मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन हुआ है। फिर भी, अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं और हमास जैसे आतंकवादी गिरोहों का खुला समर्थन करने वाले इस्लामिक देशों ने चुप्पी साध रखी है। हांगकांग में असहमति को दबाने के लिए चीनी सरकार की कार्रवाई गंभीर चिंताएं पैदा करती हैं।

सऊदी अरब को नागरिक स्वतंत्रता, विशेष रूप से महिला अधिकार कार्यकर्ताओं और राजनीतिक असंतुष्टों के दमन के लिए जांच का सामना करना पड़ रहा है। ईरान ने 2022 में उभरे महिला स्वत्रंत्रता अधिकारों के आंदोलन को सरकारी मशीनरी से कुचला और आंदोलन के पक्ष में खड़े पत्रकारों, बुद्धिजीवियों और स्वतंत्रता-प्रेमी युवक-युवतियों को फांसी पर चढ़ा दिया। ईरान के स्कूलों में अनेक छात्राओं को जहर देकर मार डाला।

मानवाधिकार उल्लंघनों को नियंत्रित करने के लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय के एकजुट मोर्चे की आवश्यकता है। वैश्विक संस्थानों, सरकारों और गैर सरकारी संगठनों को हमलावर देशों पर राजनयिक और आर्थिक दबाव डालने के लिए सहयोग करना चाहिए। व्यक्तियों को उनके अधिकारों के बारे में जानकारी देकर सशक्त बनाना महत्त्वपूर्ण है।

मानवाधिकार शिक्षा को बढ़ावा देने से जागरूकता, लचीलापन और सरकारों को जबावदेह बनाए रखने के लिए सामूहिक प्रतिबद्धता को बढ़ावा मिल सकता है। नागरिक समाज, शैक्षणिक संस्थान और मीडिया इस ज्ञान के प्रसार में अहम भूमिका निभा सकते हैं। सकारात्मक परिवर्तन के लिए मानवाधिकारों का उल्लंघन करने वाले राष्ट्रों पर दबाव बनाने के लिए आर्थिक प्रतिबंधों को एक उपकरण के रूप में प्रयोग करना एक प्रभावशाली कदम होगा।

नागरिक समाज मानव अधिकारों की वकालत करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। स्थानीय गैर सरकारी संगठनों, कार्यकर्ताओं और जमीनी स्तर के आंदोलनों का समर्थन समुदायों को उत्पीड़न का विरोध करने और न्याय की मांग करने के लिए सशक्त बनाता है। मानवाधिकारों को अक्षुण्ण और सुरक्षित रखने के लिए सरकारों को एक जीवंत नागरिक समाज के महत्त्व को पहचानना चाहिए और उसे प्रोत्साहन देना चाहिए।

मानवाधिकारों का दिखावा जारी है, लेकिन यह कोई बड़ी चुनौती नहीं है। उल्लंघनों की गंभीरता को स्वीकार करके, वैश्विक सहयोग को बढ़ावा देकर और सार्थक समाधान लागू करके हम एक ऐसी दुनिया के सृजन का प्रयास कर सकते हैं जहां राजनीतिक लाभ या राष्ट्रीय हितों के लिए मानवाधिकारों के सिद्धांतों से समझौता न किया जाता हो। अब सामूहिक कार्यवाही का समय आ गया है। वैश्विक समुदाय को भू-राजनीतिक विचारों से ऊपर उठकर उन सार्वभौमिक मूल्यों को प्राथमिकता देनी चाहिए जो एक न्यायपूर्ण और मानवीय दुनिया को महत्त्व देते हों।

जैसे-जैसे हम आधुनिक दुनिया की जटिल धाराओं से जूझते हैं, मानवाधिकारों की सुरक्षा और संवर्धन के लिए अटूट प्रतिबद्धता और सहयोग की आवश्यकता होती है। वैश्विक समुदाय को अधिनायकवाद, संघर्ष, आर्थिक असमानता और मानव अधिकारों पर तकनीकी प्रगति के प्रभाव के समाधान हेतु अपने प्रयासों को दोगुना करना चाहिए।

उत्तरदायित्व बोध की संस्कृति को प्रोत्साहन देकर, समावेशिता को बढ़ावा देकर और मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा में निहित सिद्धांतों को सर्वोपरि महत्त्व देते हुए, हम सामूहिक रूप से एक ऐसी दुनिया के निर्माण का प्रयास कर सकते हैं, जहां मानवाधिकार केवल एक आकांक्षा नहीं, बल्कि हर व्यक्ति के लिए एक जीवंत वास्तविकता है, चाहे उसकी पृष्ठभूमि और परिस्थितियां कुछ भी हों।

एमनेस्टी इंटरनेशनल के महासचिव अग्नेस कैलामार्द का कहना है, ‘मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा 75 वर्ष पहले द्वितीय विश्वयुद्ध की राख के ढेर पर हुई थी। इसके मूल में यह सार्वभौमिक मान्यता है कि सभी लोगों के पास अधिकार और मौलिक स्वतंत्रताएं हैं। जबकि वैश्विक शक्ति की गतिशीलता अराजकता में है, मानवाधिकारों को इस लड़ाई में नहीं खोया जा सकता है। उन्हें दुनिया का मार्गदर्शन करना चाहिए। हमें दुनिया के दोबारा जलने की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए।’