बांग्लादेश में तख्तापलट के साथ ही पूरे दक्षिण एशिया के परिदृश्य पर चर्चा शुरू हो गई है। छात्रों और जनता का हुजूम ढाका की तरफ बढ़ चला, तो सेना ने प्रधानमंत्री पर इस्तीफे का दबाव बना दिया। अपना देश छोड़ चुकी शेख हसीना की जगह, नोबेल पुरस्कार विजेता और ग्रामीण बैंक के संस्थापक मोहमद यूनुस अंतरिम सरकार के सलाहकार बनाए गए। भारत के दूसरे पड़ोसी देश म्यांमा में फरवरी, 2021 में सेना ने तख्तापलट करते हुए, जनता द्वारा चुनी हुई सरकार को हटा कर सत्ता अपने हाथ में ले ली। वहां की ‘स्टेट काउंसिलर’, नोबेल पुरस्कार विजेता, नेशनल लीग फार डेमोक्रेसी पार्टी की नेता आंग सान सूकी और पूर्व राष्ट्रपति विन म्यिंत नजरबंद हैं।
म्यांमार में तीन वर्षों में दो हजार लोग सेना, पुलिस के हाथों मारे गये
उन्यासी वर्ष की आंग सान सूकी पर इतने आरोप लगाए गए हैं कि अगर उन आरोपों में सजा दी जाए तो उन्हें जेल में लगभग तैंतीस वर्ष बिताने होंगे। पिछले तीन वर्षों में, सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, वहां दो हजार से अधिक लोग सेना, पुलिस के हाथों मारे गए हैं। हवाई हमले और बम धमाकों से वहां कम से कम 174 स्कूल-विश्वविद्यालय क्षतिग्रस्त हुए हैं। सरकारी मशीनरी सेना (जुंटा) के हाथ में है और तीन समूहों के संगठन, ‘थ्री ब्रदरहुड अलायंस’, सेना के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध लड़ रहे हैं। इस लड़ाई में शरणार्थी बने लोग कहां-कहां गए?
श्रीलंका में 26 वर्ष तक सेना और एलटीटी के बीच सशस्त्र संघर्ष चले
उधर, श्रीलंका में छब्बीस वर्ष तक सेना और एलटीटी के बीच सशस्त्र संघर्ष चलता रहा, जिसमें हजारों लोग मारे गए। इस संघर्ष में अत्याधुनिक हथियारों के साथ किशोर उम्र के बच्चे भी युद्ध की अग्रिम पंक्ति में शामिल हुए थे। शरणार्थी भारत सहित कई देशों में गए। श्रीलंका के भीतर चले इस संघर्ष की आंच, भारत तक भी पहुंची थी। इस संघर्ष में इस्तेमाल हथियार कहां गए? श्रीलंका में 2009 में गृहयुद्ध समाप्त हुआ, लेकिन क्या तमिल, सिंघली, बौद्ध, मुसलिम, ईसाई समूहों की सामाजिक दूरी कम हुई? वर्षों से चले आ रहे आर्थिक घालमेल के चलते विदेशी कर्ज बढ़ता गया और 2022 में श्रीलंका में गंभीर आर्थिक संकट आ गया। जनता कोलंबो की सड़कों पर उतरी और प्रधानमंत्री को इस्तीफा देना पड़ा तथा राष्ट्रपति गोटाबया राजपक्षे देश छोड़ कर भाग गए।
पाकिस्तान के बारे में कहा जाता है कि वहां प्रधानमंत्री बनने और बने रहने में सेना की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। वहां आतंकी संगठनों का सियासत और हुकूमत पर खासा दबदबा है। अफगानिस्तान-पाकिस्तान सीमा और बलूचिस्तान में भी हिंसा की खबरें आती रहती हैं। वहां कितने हथियार गैर-कानूनी रूप से मौजूद हैं, शायद यह आंकड़ा सरकार के पास नहीं होगा।
अफगानिस्तान में पहले 1995-1996 में तालिबान सत्ता पर काबिज हुए थे और 2001 तक बंदूक के बल पर उनका अपना कानून चलता रहा। पहले लोगों को उम्मीद थी कि तालिबान अच्छा शासन चलाएंगे, लेकिन उनके सत्ता में बैठते ही, देश में कोई कानून नहीं रह गया था। तालिबान कमांडर और लड़ाकों के आतंक से लोग डरे रहे। तालिबान की नाफरमानी करने वालों की कोड़े से पिटाई और हत्या तक कर देना आम हो चला था।
2001 में उन्हें अमेरिकी सेना की मदद से हटाया गया। जैसे मोहम्मद यूनुस अब बांग्लादेश के अंतरिम प्रधानमंत्री बने हैं, वैसे ही हामिद करजई को दिसंबर 2001 में अफगानिस्तान का अंतरिम राष्ट्रपति बनाया गया। मगर 2021 में हथियारों के दम पर फिर तालिबान ने काबुल की सत्ता पर कब्जा कर लिया। अब तक तालिबान की सरकार को किसी देश ने मान्यता नहीं दी है, लेकिन अपनी आर्थिक जरूरतों के लिए तालिबान सरकार के स्रोत क्या हैं? गैर-कानूनी हथियार का चलन और निजी सेनाएं रखने के कई उदाहरण अफगानिस्तान में मिल जाएंगे। क्या अफगानिस्तान में हथियारों का कोई रेकॉर्ड तालिबान सरकार के पास होगा?
नेपाल में भी 1996-2006 तक माओवादियों के नेतृत्व में ‘जनयुद्ध’ चला। आंकड़ों के मुताबिक तेरह हजार से अधिक लोग मारे गए, जिसमें शिक्षक और छात्र भी शामिल थे। 2007 में शांति समझौता हुआ, नेपाल से राजशाही की औपचारिक विदाई हुई। मगर अब भी नेपाल में सरकारों की अस्थिरता एक चिंता का विषय है। ‘जनयुद्ध’ के दौरान कम उम्र के लड़ाके, जो रायल नेपाल आर्मी के खिलाफ लड़ रहे थे, वे शांति समझौते के बाद नेपाल की सेना में शामिल नहीं हो सके। अधिकतर अपने-अपने घर लौट गए और छोटा-मोटा काम करके गुजारा करने लगे। सवाल है कि उनके पास जो हथियार थे, वे कहां गए?
जिस तरह बांग्लादेश, अफगानिस्तान, पाकिस्तान और श्रीलंका की राजनीतिक घटनाओं में हिंसक भीड़ की भूमिका देखी गई, वह लोकतंत्र के लिए चिंता का विषय तो है ही, उससे अधिक गंभीर सवाल है कि हम किन शर्तों पर पड़ोसी देशों के साथ पारस्परिक विकास की बात करेंगे? दक्षिण एशिया और दक्षिण-पूर्व एशिया, हथियारों की तस्करी के लिए जाना जाता है। पाकिस्तान-अफगानिस्तान-ईरान का त्रिकोण हथियारों और मादक पदार्थों के व्यापार के लिए पहचाना जाता है। एक अनुमान के मुताबिक करीब एक अरब गैर-कानूनी हथियार (जिनमें क्लाश्निकोव राइफल शामिल हैं) दुनिया में मौजूद हैं और बड़ी संख्या में ये हथियार एक से दूसरे देश पहुंच जाते हैं। हल्के वजन का होने के नाते इन हथियारों को दूसरी जगह भेजना आसान होता है और इनको चलाने में आसानी रहती है, इसलिए इनकी मांग भी खूब रहती है। हथियारों की तकनीक में आए बदलाव से सशस्त्र युद्ध में बच्चों की भूमिका, सामान ढोने, खाना बनाने और मुखबिरी करने के साथ, हथियार चलाने की भी हो गई।
संयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिव कोफी अन्नान ने कहा था कि हथियारों का प्रचलन केवल राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा मुद्दा नहीं, बल्कि मानवीय अधिकारों और विकास से जुड़ा हुआ है। अफगानिस्तान और म्यांमा में यह बात प्रतिध्वनित होती है। कुछ लोगों का कहना है कि 1971 के बांग्लादेश मुक्ति संग्राम में प्रयुक्त हथियारों का एक हिस्सा, सरकारी आंकड़ों में दर्ज नहीं हुआ और वह किसी समूह के पास हो सकता है। अनुमान है कि बांग्लादेश में सौ से अधिक आपराधिक गिरोह सक्रिय हैं और उनके पास लगभग तीन-चार लाख गैर-कानूनी छोटे और कम वजन के हथियार मौजूद हैं।
भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में सक्रिय आतंकी गिरोह भी हथियार के व्यापार में शामिल हो सकते हैं, क्योंकि कंबोडिया, थाईलैंड, म्यांमा, बांग्लादेश के रास्ते उनके पास ‘पार्सल’ आ सकते हैं।
एके-47 जैसे हथियारों की कश्मीर में आमद अफगानिस्तान-पाकिस्तान के रास्ते आने की खबरें छपती रही हैं। अफगानिस्तान और म्यांमा में अफीम का उत्पादन होता है। कंबोडिया और थाईलैंड के रास्ते म्यांमा में मादक पदार्थ और हथियार वाले गिरोह अपना बाजार तलाश चुके हैं। म्यांमा के साथ चीन की भी सीमा लगती है। इस तरह हम उन देशों से घिरे हैं, जहां वर्षों आंतरिक संघर्ष चले हैं या चल रहे हैं। हमारे अधिकतर पड़ोसी ‘गरीब मुल्क’ के रूप में जाने जाते हैं। तो, यह याद रखना चाहिए कि देशों में संघर्ष खत्म होने के बाद भी सभी हथियार खत्म नहीं होते और पेशेवर लड़ाके हथियारों के व्यापारियों से मिल कर नया बाजार तलाशते रहते हैं।