केसी त्यागी, पंकज चौरसिया

आजाद भारत में बेरोजगारी और अल्परोजगार हमेशा से महत्त्वपूर्ण मुद्दे रहे हैं। भारतीय रिजर्व बैंक ने 7 जुलाई को ‘डेटा मैन्युअल’ नाम से एक रपट जारी की, जिसमें कहा गया है कि पिछले तीन-चार वर्षों में आठ करोड़ नौकरियां सृजित हुई हैं और जल्द ही अनेक बुनियादी ढांचा परियोजनाएं आ रही हैं, जो अधिक नौकरियां पैदा करेंगी। यह रपट मुख्य रूप से सकल मूल्यवर्धित, सकल मूल्य उत्पादन, श्रम रोजगार, श्रम गुणवत्ता, पूंजी स्टाक और पूंजी संरचना से संदर्भित होती है। इस रपट में कहा गया है कि विनिर्माण और सेवाओं में सृजित नौकरियों की कुल संख्या वित्तवर्ष 2014-23 के दौरान 8.9 करोड़ और वित्तवर्ष 2004-2014 के दौरान 6.6 करोड़ थी। इसमें यह भी कहा गया है कि भारत में कुल श्रमशक्ति 59.7 करोड़ है, जो हाल ही में जारी एएसयूएसई (केंद्रीय अनिगमित क्षेत्र उद्यमों के वार्षिक सर्वेक्षण) के अनुसार 56.8 करोड़ के बराबर है। श्रमशक्ति की यह कुल संख्या निजी रोजगार सर्वेक्षणों से काफी अलग दिखाई देती है।

शिक्षित युवाओं की स्थिति गंभीर

कुछ समय पहले ‘सेंटर फार मानिटरिंग इंडियन इकोनामी एजंसी’ के रोजगार और बेरोजगारी संबंधी आंकड़े में बताया गया था कि जून 2004 में, बेरोजगारी दर पिछले महीने के सात फीसद से बढ़कर 9.2 फीसद पर पहुंच गई थी, जो आठ महीने का उच्चतम स्तर था। यह बड़े पैमाने पर रोजगार सृजन के आधिकारिक आख्यान के विपरीत था। जमीनी स्तर पर बेरोजगारी एक बड़ा मुद्दा है। वास्तव में, शिक्षित युवाओं की स्थिति गंभीर है।

इसमें सबसे खराब स्थिति देश के दलित, पिछड़े, अतिपिछड़े और आदिवासी समुदायों की है। श्रमबल भागीदारी दर से पता चलता है कि कितने भारतीय नौकरी की ‘मांग’ कर रहे हैं। इसमें वे लोग शामिल होते हैं, जिनकी उम्र पंद्रह वर्ष या उससे अधिक है। इसमें दो तरह के लोग शामिल होते हैं- वे जो रोजगार में कार्यरत हैं तथा दूसरे वे जो बेरोजगार और काम करने के इच्छुक हैं तथा सक्रिय रूप से नौकरी की तलाश कर रहे हैं।

देखा गया है कि अगर समय से नौकरी नहीं मिलती, तो बहुत से बेरोजगार हतोत्साहित होकर श्रमबल छोड़ देते, यानी सक्रिय रूप से नौकरी की तलाश करना बंद कर देते हैं। इस तरह कुल श्रमबल में बेरोजगारों का अनुपात गिर जाता है। भारत में आर्थिक सुधार के बावजूद, बेरोजगारी दर लगातार उच्च बनी हुई है, क्योंकि सामाजिक भेदभाव और सामाजिक-आर्थिक वास्तविकताएं श्रम बाजार में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अतिपिछड़ों के समक्ष आने वाली असुविधाओं को बढ़ाती हैं।

वर्ष 2011-12 के एनएसएसओ के आंकड़ों के अनुसार, अनुसूचित जातियों में दिहाड़ी मजदूरों की हिस्सेदारी 63 फीसद थी। यह अन्य सामाजिक समूहों के मूल्यों से काफी अधिक है। ये आंकड़े ओबीसी के लिए 44 फीसद, उच्च जातियों के लिए 42 फीसद और बाकी के लिए 46 फीसद थे।
वास्तव में, देश के कुल आकस्मिक मजदूरों में से लगभग 32 फीसद अनुसूचित जाति के हैं, जो उनकी जनसंख्या हिस्सेदारी 16 फीसद से दोगुना है। अनुसूचित जातियों के सामने आने वाली असुविधाएं वेतनभोगी काम पर उनकी असंगत निर्भरता से कहीं अधिक हैं।

जाति आधारित भेदभाव से काम पर असर

चूंकि अनुसूचित जातियों को काम पर रखने में जाति-आधारित भेदभाव का सामना करना पड़ता है, इसलिए उनकी बेरोजगारी दर भी बाकी आबादी से ज्यादा है। उद्योग-स्तर की उत्पादकता और रोजगार को मापने वाले आरबीआइ की रपट के आंकड़े निजी संस्थानों द्वारा साझा किए गए आंकड़ों के एकदम विपरीत हैं। मुंबई स्थित ‘थिंक टैंक सेंटर फार मानिटरिंग इंडियन इकोनामी’ के अनुसार, देश की बेरोजगारी दर पिछले वित्तवर्ष में बढ़कर आठ फीसद हो गई, जबकि पिछले दो वर्षों में यह 7.6 फीसद और 7.7 फीसद थी। ‘थिंक टैंक’ के मासिक आंकड़ों में अलग से कहा गया है कि जून में बेरोजगारी दर बढ़ कर 9.2 फीसद हो गई, जबकि मई में यह 7 फीसद और 12 महीने पहले 8.5 फीसद थी। कई विशेषज्ञ खासकर युवाओं में बढ़ती बेरोजगारी दर को लेकर चिंतित हैं।

सरकारी आंकड़ों से पता चलता है कि 15-29 आयु वर्ग के करीब 16 फीसद शहरी युवा 2022-23 में खराब कौशल और गुणवत्तापूर्ण नौकरियों की कमी के कारण बेरोजगार रह गए। निजी एजंसियों के अनुमान इससे कहीं ज्यादा हैं। सीएमआइई के अनुसार, युवा बेरोजगारी दर 45.4 फीसद तक पहुंच गई है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन और ‘भारतीय थिंक टैंक इंस्टीट्यूट फार ह्यूमन डेवलपमेंट’ (आइएचडी) द्वारा संयुक्त रूप से प्रकाशित ताजा रपट से पता चला है कि दक्षिण एशियाई राष्ट्र में तीन में से एक युवा न तो शिक्षा प्राप्त कर रहा है, न ही रोजगार या प्रशिक्षण प्राप्त कर रहा है। इसमें यह भी बताया गया है कि उच्च शिक्षित युवाओं के बेरोजगार होने की संभावना उन लोगों की तुलना में अधिक है, जिन्होंने कोई स्कूली शिक्षा नहीं ली है।

आईएचडी रपट में कहा गया है कि स्नातकों के लिए बेरोजगारी दर 29.1 फीसद थी, जो उन लोगों के लिए 3.4 फीसद से लगभग नौ गुना अधिक है, जो पढ़ या लिख नहीं सकते। माध्यमिक या उच्च शिक्षा प्राप्त युवाओं में बेरोजगारी दर छह गुना अधिक 18.4 फीसद थी। इसका बाकी हिस्सा अल्परोजगार है या जिसे हम प्रच्छन्न बेरोजगारी कहते हैं, जहां लोग काम तो कर रहे हैं, लेकिन उन्हें बहुत कम वेतन मिल रहा है या वे बहुत कम दिनों के लिए काम कर रहे हैं।

अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन और मानव विकास संस्थान द्वारा ‘भारत रोजगार रपट 2024: युवा रोजगार, शिक्षा और कौशल’ में प्रस्तुत ‘डेटा सेट’ भारत में सामाजिक श्रेणियों में रोजगार में विविधता को उजागर करते हैं, यह देखते हुए कि दलित और आदिवासी व्यक्ति अन्य पिछड़ा वर्ग और सामान्य श्रेणी के व्यक्तियों की तुलना में सामाजिक पदानुक्रम में निचले स्थान पर हैं। यहां तक कि हाशिए पर पड़े एससी या एसटी समूहों के उच्च शिक्षित युवाओं में बेरोजगारी दर ओबीसी या सामान्य श्रेणी के उनके साथियों की तुलना में अधिक है।

अनुसूचित जनजाति के केवल 5.1 फीसद, अनुसूचित जाति के 7.3 फीसद और अन्य पिछड़ा वर्ग के 8.7 फीसद सदस्य औपचारिक रोजगार में हैं, जबकि सामान्य श्रेणी के 16 फीसद से अधिक सदस्य औपचारिक रोजगार में हैं। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और ओबीसी के 90 फीसद से अधिक सदस्य अनौपचारिक क्षेत्र में काम करते हैं, जबकि सामान्य श्रेणी सदस्यों में यह आंकड़ा 84 फीसद है। उच्च और मध्यम कौशल वाली नौकरियों के मामले में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और ओबीसी का प्रतिनिधित्व चार से दस फीसद के बीच है, जबकि सामान्य श्रेणी व्यक्तियों के लिए यह 20 फीसद है।

51 फीसद से अधिक सामान्य श्रेणी सदस्यों ने माध्यमिक शिक्षा प्राप्त की है, जबकि इस मामले में 24 फीसद एसटी, 31 फीसद एससी और 40 फीसद ओबीसी सदस्य हैं। सामाजिक रूप से हाशिये पर पड़े युवाओं में ये उच्च बेरोजगारी दरें उपयुक्त रोजगार के अवसर हासिल करने में उनके सामने आने वाली चुनौतियों को उजागर करती हैं, सामाजिक असमानताओं को बढ़ाती और सामाजिक गतिशीलता में बाधा डालती हैं।