दुनिया भर में हुए अध्ययनों से स्पष्ट है कि हिमालय भूगर्भीय हलचलों और वैश्विक तपिश यानी ग्लोबल वार्मिंग के दोहरे दबाव में सिसक रहा है। भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (जीएसआइ) के अनुसार, हमारे देश का लगभग 15 फीसद भूभाग भूस्खलन के लिए अत्यधिक संवेदनशील है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण हिमालयी राज्यों को सबसे अधिक भूस्खलन-प्रवण क्षेत्रों के रूप में सूचीबद्ध कर चुका है। जलवायु आपदाओं और भूगर्भीय हलचलों के बीच महत्त्वपूर्ण भावी परिवर्तनों की दृष्टि से विभिन्न सामाजिक-आर्थिक स्थितियों के आधार पर, भविष्य की आबादी का जोखिम मुख्यत: पूर्वी और मध्य हिमालय में केंद्रित है, जहां आबादी और झीलों का घनत्व सर्वाधिक है। मध्य हिमालय सबसे अधिक जोखिम वाला क्षेत्र है। सबसे अधिक खतरनाक पूर्वी हिमालय की ग्लेशियर झीलें हैं। लाखों लोग ऐसे क्षेत्रों में रहते हैं, जो संभावित रूप से बड़ी आपदाओं से घिरे हैं।
टेक्टोनिक गतिविधियां और मानसूनी बारिश से बढ़ा संकट
भू-वैज्ञानिकों का कहना है कि खड़ी ढलानें, टेक्टोनिक गतिविधियां, तीव्र मानसूनी बारिश और चट्टान-मिट्टी की संरचना की नाजुक प्रकृति इस खतरे को लगातार बढ़ा रही है। उत्तराखंड में 2018 में जटिल भूविज्ञान और टेक्टोनिक गतिविधि वाले क्षेत्र केदारनाथ में भूस्खलन भारी बारिश के कारण हुआ था। हिमालय क्षेत्र में लगातार हो रही ‘टेक्टोनिक’ हलचलों के कारण भूकम्पीय गतिविधियां बनी रहती हैं। वनों की कटाई, सड़कों का निर्माण और शहरीकरण जैसी मानवीय गतिविधियां प्राकृतिक परिदृश्य और ढलान स्थिरता को बदल देती हैं, जिससे हिमालयी क्षेत्र में भूस्खलन की संभावना बढ़ जाती है। उचित इंजीनियरिंग और ढलान प्रबंधन के बिना पहाड़ी क्षेत्रों में सड़कों और बुनियादी ढांचे का निर्माण भूस्खलन का कारण बन सकता है।
जीएसआइ की रिपोर्ट और जलवायु आपदाओं का असर
भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (जीएसआइ) ने उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश जैसे क्षेत्रों में भूस्खलन के खतरे का विस्तृत मानचित्रण किया है। यह मानचित्रण उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों की पहचान करने में मदद करता है और भूमि उपयोग नियोजन और आपदा प्रबंधन रणनीतियों को सूचित करता है। बीते दशक में हिमालय में भारी आपदाओं के कारण दस हजार से अधिक लोग जान गंवा चुके हैं। ऊंची पर्वतीय ढलानों की अस्थिरता भविष्य के बड़े खतरों का स्पष्ट संकेत बन चुकी है। महाविनाश के गहराते अंदेशों के बीच हिमालय के ऊपरी इलाकों में दरकते बुनियादी ढांचे व्यापक जनजीवन को खतरे में डाल सकते हैं। इसी तरह बाकी हिमालय का भी बुनियादी ढांचा कमजोर होता जा रहा है। जलवायु आपदा से ग्लेशियर पीछे हटने से नई-नई झीलें बन रही हैं। भूकम्पीय आवृत्तियां ढलानों को गंभीर रूप से झकझोर रही हैं। व्यापक अतिसंवेदनशील हलचलें पहाड़ों की ढलानों को अस्थिर करने के साथ ही हिमस्खलन और भूस्खलन तेज कर रही हैं।
ऊर्जा जमा होने से बढ़ता खतरा और सुरक्षा रणनीति की जरूरत
भारतीय प्लेट के ऊपर स्थित यूरेशियन प्लेट के नीचे लगातार बड़े पैमाने पर ऊर्जा का जमा होना चिंता का विषय है। आने वाले समय में बड़े भूकम्प की भारी आशंका बनी हुई है। वैसी स्थिति में जान-माल का नुकसान न्यूनतम करने के लिए पहले से बेहतर तैयारी जरूरी है। भूकम्प से बचाव की ठोस रणनीति बनाकर जानमाल के नुकसान को काफी हद तक कम किया जा सकता है। उत्तराखंड को भूकम्प के प्रति संवेदनशीलता के लिहाज से जोन चार और पांच में रखा गया है। बहुत पहले, भूकम्प और उसके कारण होने वाले भूस्खलन पर केंद्र सरकार को एक विस्तृत रपट भेजी गई थी। उसके पहले ‘जियोलाजिकल सर्वे आफ इंडिया’ (जीएसआइ) ने भी वर्ष 2013 की आपदा के बाद पैदा हुई स्थिति पर एक विस्तृत रपट सौंपी थी। वाडिया संस्थान की रपट में भूस्खलन और बादल फटने के कारण आने वाली आपदा से बचने के लिए आबादी को वहां से हटाने की सिफारिश की गई है। आइआइटी, कानपुर के वैज्ञानिकों की शोध रपट बताती है कि हिमालयन रेंज यानी उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में कभी भी रिक्टर स्केल पर 7.8 से 8.5 की तीव्रता वाला भूकम्प आ सकता है। उनका कहना है कि धरती के नीचे भारतीय प्लेट व यूरेशियन प्लेट के बीच टकराव बढ़ रहा है।
विगत तीन दशक से जुटाए जा रहे ‘इसरो’ के डेटा से पता चला है कि ग्लेशियर पीछे की तरफ खिसक रहे हैं और झीलों का आकार बढ़ता जा रहा है। वर्ष 1984 से 2023 तक के आंकड़े बताते हैं कि हिमालय में 2431 झीलों का रकबा दस हेक्टेयर से ज्यादा है। उनमें से 676 ऐसी झीलें हैं, जो अनवरत विस्तृत होती जा रही हैं। उन 130 झीलों में से गंगा नदी के ऊपर सात बड़ी झीलें, सिंधु नदी पर 65 और ब्रह्मपुत्र के ऊपर 58 झीलें बन चुकी हैं। इनमें से दस झीलें दोगुने से ज्यादा बढ़ चुकी हैं। सबसे अधिक तेजी से हिमाचल प्रदेश के 4068 मीटर की ऊंचाई पर घेपांग घाट में बनी झील का ग्लेशियर 178 फीसद तक बढ़ चुका है। उत्तराखंड की 2013 की आपदा की दृष्टि से सोचें तो निकट भविष्य में ऐसी झीलों के गंभीर परिणाम हो सकते हैं।
हिमालय के साढ़े छह सौ ग्लेशियरों के पिघलने के अध्ययन से पता चला है कि वर्ष 1975 से 2000 के जो हर साल औसतन चार अरब टन बर्फ पिघल रही थी, वर्ष 2000 से 2016 के बीच उसके पिघलने का परिमाण दोगुना हो गया, और उसके बाद से अब औसतन हर वर्ष लगभग आठ अरब टन बर्फ पिघल रही है। ग्लेशियर तेजी से सिकुड़ रहे हैं। बारिश के पैटर्न में तब्दीली और जीवाश्म र्इंधनों का इस्तेमाल तेजी से प्राकृतिक जोखिम को गहरा कर रहा है। भारी मात्रा में ग्लेशियर पिघलने का लोगों की आजीविका पर भयानक प्रभाव देखा जा रहा है। गंगा, सिंधु और मेकांग सहित क्षेत्र की बारह नदी घाटियों में जल प्रवाह 2050 के आसपास चरम पर होने का अंदेशा है। बार-बार बाढ़ से पानी की आपूर्ति घटती जाएगी, जिससे कृषि संकट गहराने का खतरा है।
वैज्ञानिकों के एक वर्ग का यह भी कहना है, हिमालय में विकास को रोकना समाधान नहीं है। सभी हितधारकों के परामर्श से विकास परियोजनाएं बनाने और दिशानिर्देशों के साथ उचित तरीके से उन पर काम करने की आवश्यकता है। जहां तक हिमालयी क्षेत्रों में भूगर्भीय हलचलों और जलवायु आपदाओं से हुए भारी नुकसान की बात है, आपदाओं को कम करने और उनके मूल कारण को समझने के लिए आज बहुपक्षीय सरोकार तेज करने की जरूरत है। अप्रैल 2021 से अप्रैल 2022 के बीच देश भर में भूस्खलन की 41 घटनाएं दर्ज की गईं, जिनमें से 38 हिमालयी राज्यों में तथा सर्वाधिक सिक्किम में हुई हैं। हाल के दशकों से बादल फटने जैसी हिमालयी आपदाओं की जल्दी-जल्दी पुनरावृत्ति हो रही है और उनकी गंभीरता भी बढ़ती जा रही है। सर्वाधिक नुकसान हिमालय के ऊपरी क्षेत्रों में देखा जा रहा है। विकास के नाम पर मनमाना तोड़फोड़, पहाड़ों की खुदाई, बसावटी और व्यावसायिक दोनों तरह के निर्माण आदि पर रोक के लिए खासकर हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में अब तो सख्त कानून बनाकर उनका कठोरता से अनुपालन सुनिश्चित करना ही आपदा से बचाव का एकमात्र उपाय बचा है।