अगर हरियाणा में अभी आम आदमी पार्टी की सरकार होती, तो उसका पंजाब के साथ भाखड़ा बांध के पानी के वितरण पर चल रहा विवाद क्या इसी रूप में रहता? तब शायद मौजूदा विवाद की तरह इस मसले का राजनीतिकरण नहीं होता। पंजाब और हरियाणा के बीच पानी को लेकर जिस तरह की खींचतान और आरोप-प्रत्यारोप चल रहे हैं, बहुत संभव है, तब ऐसा नहीं होता। अंतरराज्यीय जल विवादों का किस तरह राजनीतिकरण होता गया है, यह इसका ताजा उदाहरण है।

भारत की प्रमुख नदियां दो या दो से अधिक राज्यों द्वारा साझा की जाती हैं। आबादी बढ़ने के साथ पानी की बढ़ती मांग के कारण राज्यों द्वारा अपनी कानूनी और राजनीतिक शक्ति का दावा करने के साथ अंतरराज्यीय जल विवाद बढ़ रहे हैं। अधिकांश समय से ये विवाद अनसुलझे हैं। शांतिपूर्वक हल की गई समस्याओं के कुछ उदाहरणों में चंबल घाटी परियोजना शामिल है, जिसमें दो राज्यों के प्रशासन इस बात पर सहमत हुए थे कि वे परियोजना से अपने-अपने क्षेत्रों में बाढ़ से होने वाली सरकारी संपत्ति के लिए कोई मुआवजा नहीं लेंगे। दूसरी ओर, कभी-कभी इस बात पर असहमति होती है कि राज्यों द्वारा किए गए समझौतों और अंतरराज्यीय नदियों के पानी को कैसे विभाजित किया जाना चाहिए।

भारत में अंतरराज्यीय जल विवाद: कारण, समाधान और चुनौतियां

भारत में अधिकांश अंतरराज्यीय जल विवाद अंतरराज्यीय नदी बेसिन के पानी के उपयोग, वितरण और नियंत्रण पर असहमति के कारण उत्पन्न होते हैं। राज्यों के बीच जल विवादों को हल करने के लिए, संसद ने 1956 में अंतरराज्यीय नदी जल विवाद अधिनियम पारित किया और इसके साथ ही विभिन्न अंतरराज्यीय जल विवाद न्यायाधिकरण स्थापित किए गए। कई अंतरराज्यीय जल विवाद न्यायाधिकरणों की स्थापना के बावजूद उनकी प्रभावशीलता अंतर्निहित मुद्दों और चुनौतियों से बाधित हुई है। संस्थागत और राजनीतिक कारणों से समाधान में लंबे समय तक देरी हुई है। भारत के संघीय राजनीतिक ढांचे के भीतर अंतरराज्यीय विवादों के लिए दो स्तरों पर संघीय समाधान के लिए केंद्र सरकार की भागीदारी की आवश्यकता होती है। एक तो शामिल राज्यों के बीच और दूसरा केंद्र और राज्यों के बीच। पानी की बढ़ती कमी, मीठे पानी की शहरी एवं ग्रामीण क्षेत्र में मांग में तेज वृद्धि तथा विवादास्पद राजनीतिक गतिशीलता ने समस्या और बढ़ा दी है।

किसी राज्य द्वारा अंतरराज्यीय नदी पर परियोजनाओं का विकास अन्य बेसिन राज्यों के हितों को प्रभावित कर सकता है। इसलिए अंतरराज्यीय नदी घाटियों के पानी के उपयोग, वितरण और नियंत्रण के संबंध में राज्यों के बीच मतभेद उत्पन्न होते हैं। भारत की अठारह प्रमुख नदियों में से सत्रह को दो या दो से अधिक राज्यों द्वारा साझा किया जाता है। भारत में जल संसाधनों की स्थानिक और लौकिक विविधताएं, प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता में लगातार गिरावट, सिंचित कृषि पर बहुत अधिक निर्भरता, देश की संघीय संवैधानिक संरचना के परिणामस्वरूप भारत के विभिन्न राज्यों के बीच पानी की तीव्र प्रतिस्पर्धी मांग बढ़ी है। भारत के संघीय संवैधानिक ढांचे के तहत पानी मोटे तौर पर राज्य का मामला है, जिसमें केंद्र सरकार की सीमित और परिभाषित भूमिका है। गौरतलब है कि भारत में हर राज्य प्राकृतिक संसाधनों पर अपना अधिकार जताता है। विशेष रूप से पानी के मामले में कई बार तो यह विवादास्पद हो जाता है, क्योंकि सभी प्रमुख नदियां कई राज्यों से होकर बहती हैं।

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जल विवादों को सुलझाने के लिए भारत में भले ही कई कानून हैं, लेकिन अंतरराज्यीय जल विवाद पड़ोसी राज्यों के बीच वैमनस्य पैदा करते रहे हैं। हालांकि जल से संबंधित कानून राज्य का विषय है। इसलिए राज्यों के पास जल आपूर्ति, सिंचाई और नहरों, जल निकासी तथा तटबंधों, जल भंडारण, जल विद्युत और मत्स्य पालन को विनियमित करने की विशेष शक्ति है। मगर यह समझना होगा कि राज्यों को दी गई शक्तियों पर कुछ प्रतिबंध भी हैं। राष्ट्रीय जलमार्गों पर नौवहन से संबंधित विषयों पर कानून बनाने की शक्ति और साथ ही ज्वारीय तथा प्रादेशिक जल के उपयोग को विनियमित करने की शक्तियां संघ के कानून के दायरे में आती हैं। संघ को अंतरराज्यीय जल विवादों से संबंधित मामलों का न्याय-निर्णय करने का भी अधिकार है। भारत में अंतरराज्यीय जल विवाद केंद्र और राज्य सरकारों के बीच अमित्र संबंधों के कारण दलीय राजनीति में उलझ जाते हैं। इसमें जटिलता और कड़वाहट भी कभी-कभी नजर आती है।

इन विवादों का इस्तेमाल अक्सर राज्य और राजनीतिक कर्ताधर्ता वोट बैंक को आकर्षित करने तथा अपने निर्वाचन क्षेत्रों को मजबूत करने के लिए करते हैं। तथ्य यह है कि भारत की आबादी बहुत बड़ी है, लेकिन पानी बहुत ज्यादा नहीं है। दुनिया के नवीकरणीय जल संसाधनों का केवल चार फीसद और वैश्विक आबादी का अठारह फीसद। कई बार इस जल को लेकर तनाव बढ़ जाता है। कभी-कभी यह गंभीर टकराव में भी बदल जाता है, जिससे राज्यों के बीच और राज्य व केंद्र के बीच रिश्ते तनावपूर्ण हो जाते हैं। विरोध प्रदर्शन और हिंसा का भी इन विवादों में समावेश हो जाता है।

स्वतंत्रता के बाद से भारत में सिंचाई और जल विद्युत उत्पादन के लिए नदी जल संसाधनों का विकास धीरे-धीरे आगे बढ़ा है। अंतरराज्यीय नदियों पर कई बहुउद्देशीय नदी घाटी परियोजनाएं लागू की गई हैं। भाखड़ा-नांगल, हीराकुंड, चंबल, तुंगभद्रा, नागार्जुन सागर और दामोदर घाटी जैसी नदी घाटी परियोजनाओं से इन क्षेत्रों के विकास में काफी मदद मिली है। यह सिंचाई, बिजली और बाढ़ नियंत्रण प्रदान करती हैं। इनमें से कई पहलों में राज्यों ने संबंधित नदी को एकीकृत तरीके से सहकारी रूप से विकसित करने के लिए मिल कर काम किया है, जिससे विभिन्न तटवर्ती देशों को इसका सबसे बड़ा लाभ मिल सके। हालांकि कुछ मामलों में अंतरराज्यीय नदी के पानी के उपयोग को लेकर सह-तटवर्ती राज्यों के बीच संघर्ष ने जल संसाधनों के विकास को बाधित किया है। जब ऐसा होता है तो ऐसी नदियों में नदी विकास की योजनाएं थम जाती हैं। पूरा देश और खासतौर पर ये नदियां जिन क्षेत्रों में बहती हैं, वे सिंचाई, बिजली और बाढ़ नियंत्रण के मामले में विभिन्न परियोजनाओं से मिलने वाले लाभों से वंचित हो जाते हैं।

अंतरराज्यीय जल विवादों से निपटने के लिए घरेलू कानूनी ढांचा और प्रक्रियाएं अभी भी बहुत पुरानी और अविकसित हैं, जो अंतरराज्यीय मध्यस्थता का समर्थन करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। तिस पर दलीय राजनीति ऐसे विवादों को सुलझाने में एक बड़ी बाधा बन जाती है। राजनीतिक सीमाओं के भीतर इसका भौतिक वितरण निश्चित रूप से अस्थिर राजनीतिक समीकरणों का परिणाम है। चूंकि नदी बेसिन साझा संसाधन हैं, इसलिए नदी जल के संरक्षण, न्यायसंगत वितरण और सतत उपयोग के लिए केंद्र की पर्याप्त भागीदारी के साथ राज्यों के बीच एक समन्वित दृष्टिकोण आवश्यक है। इसके लिए राज्य सरकारों और नेताओं को अपनी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं को परे रखना होगा।