शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाएं अपने नागरिकों को उपलब्ध कराना किसी भी कल्याणकारी राज्य की सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए। यह नागरिकों का अधिकार भी है, लेकिन अगर हम जमीनी स्तर पर नजर डालें तो सर्वाधिक अव्यवस्था इन्हीं क्षेत्रों में नजर आती है। आज के परिवेश में एक मध्यवर्गीय परिवार का अधिकांश खर्च स्वास्थ्य और शिक्षा पर ही होता है। सरकारों ने नागरिकों को चिकित्सा और स्वास्थ्य सुविधाएं देने के लिए बड़े-बड़े अस्पताल और ग्रामीण क्षेत्रों में प्राथमिक चिकित्सा केंद्र बनाए हुए हैं। लेकिन उनमें मरीजों की बढ़ती भीड़, घटते चिकित्सक और अन्य सहायक कर्मचारियों की भारी कमी, चिकित्सालयों के जीर्ण भवन, उपकरणों और दवाइयों का अभाव जैसी समस्याओं के चलते मरीजों को तत्काल उपयुक्त इलाज नहीं मिल पाता। परिणाम यह होता है कि गरीब व्यक्ति समुचित इलाज न मिलने के कारण काल का ग्रास बन जाता है। जो मध्यवर्गीय परिवार थोड़ा-बहुत सक्षम होता है, उसको मजबूरन निजी क्षेत्र के अस्पतालों का रुख करना पड़ता है। वहां का भारी भरकम खर्च परिवार की सारी बचत लील जाता है। यहां तक कि उनको ऋण लेना पड़ता या अपनी संपत्ति तक को बेचना पड़ जाता है।

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-3 के अनुसार शहरी क्षेत्रों में रहने वाले सत्तर फीसद परिवारों और तिरसठ फीसद ग्रामीण परिवारों के लिए स्वास्थ्य देखभाल के प्राथमिक स्रोत निजी क्षेत्र हैं। विभिन्न राज्यों के सार्वजनिक और निजी स्वास्थ्य देखभाल में भी काफी अंतर है। कई कारणों से निजी स्वास्थ्य क्षेत्र पर निर्भरता बढ़ रही है जिनमें से प्रमुख कारण सार्वजनिक यानी सरकारी क्षेत्र में देखभाल की खराब गुणवत्ता का होना है। सर्वेक्षण के दौरान 57 फीसद से अधिक परिवारों ने यही कारण बताया। ग्रामीण और दूरदराज के अंचल स्वास्थ्य सुविधाओं के मामले में काफी पिछड़े हैं। ग्रामीण स्वास्थ्य सांख्यिकी 2021-22 रपट के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में शल्य चिकित्सकों की लगभग 83 फीसद कमी है। बाल रोग चिकित्सकों की लगभग 81.6 फीसद और फिजिशियन की लगभग 79.1 फीसद कमी है। यह सब देखते हुए निजी अस्पतालों में इलाज के खर्चों की पूर्ति की दृष्टि से स्वास्थ्य बीमा काफी महत्त्वपूर्ण हो जाता है।

सरकारों द्वारा अपने नागरिकों के विभिन्न वर्गों को स्वास्थ्य बीमा सुविधाएं उपलब्ध कराने हेतु प्रयास भी किए गए हैं। देश में कार्यबल की कुल संख्या में लगभग 93 फीसद असंगठित क्षेत्र के कामगार हैं। सरकार ने कुछ व्यावसायिक समूहों के लिए सामाजिक सुरक्षा उपाय किए हैं, किंतु इनका कवरेज अभी बहुत कम है। अधिकांश कामगारों के पास सामाजिक सुरक्षा के अंतर्गत स्वास्थ्य का कोई कवरेज अब भी नहीं है। वर्ष 2021 में देश भर में 51.4 करोड़ लोग स्वास्थ्य बीमा कवरेज में शामिल थे। यह कुल जनसंख्या का मात्र 37 फीसद है। आयुष्मान भारत योजना राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति द्वारा की गई सिफारिशों के आधार पर तैयार की गई। इसका उद्देश्य स्वास्थ्य बीमा का व्यापक कवरेज देना है। यह सरकार द्वारा पिछले वर्षों में शुरू की गई योजनाओं का परिष्कृत रूप ही है। केंद्र सरकार की अपने कर्मचारियों को स्वास्थ्य बीमा सुविधा प्रदान करने हेतु केंद्रीय सरकार स्वास्थ्य योजना (सीजीएचएस) पिछले छह दशकों से चालू है और इसमें 35 लाख से अधिक कर्मचारियों और पेंशनभोगियों को कवर किया गया है। राज्य सरकारों ने भी इसी तर्ज पर अपने यहां इसी तरह की योजनाएं शुरू कर रखी हैं। कर्मचारी राज्य बीमा योजना, जो लोग कारखानों में काम करते हैं, उनके लिए संचालित है। यह योजना 1952 में शुरू की गई थी। इसका उद्देश्य बीमित श्रमिकों और कर्मचारियों को बीमारी, विकलांगता या मृत्यु के मामले में वित्तीय सहायता प्रदान करना है।

विभिन्न राज्यों में अलग-अलग वर्गों को स्वास्थ्य बीमा प्रदान करने की दृष्टि से और भी कई बीमा योजनाएं चल रही हैं। बहुत से स्थानों पर राज्य सरकारों ने कर्मचारी राज्य बीमा के अंतर्गत अपने अस्पताल भी स्थापित कर रखे हैं, लेकिन उनमें से अधिकांश अस्पताल अव्यवस्था के शिकार हैं। इन सबके बावजूद आम नागरिकों को स्वास्थ्य बीमा से जुड़ी बहुत-सी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। देश में स्वास्थ्य सेवाओं में वृद्धि में सबसे बड़ी बाधा स्वास्थ्य वित्त व्यवस्था की है। स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराने या बीमा संस्थाओं को ‘प्रीमियम’ चुकाने के लिए बड़ी राशि की जरूरत होती है, जिसके लिए बजट प्रावधान करने पर अन्य जरूरी मदों में कटौती करनी पड़ सकती है। निजी स्वास्थ्य बीमा प्रदान करने वाली कंपनियों द्वारा निर्धारित प्रीमियम पर 18 फीसद की दर से जीएसटी लगता है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के आंकड़ों से पता चलता है कि एक सामान्य भारतीय परिवार चाहे वह शहरी हो या ग्रामीण, उसे स्वास्थ्य देखभाल हेतु अपनी आय पर निर्भर रहना पड़ता है। इससे बहुत से परिवार चाह कर भी महंगी स्वास्थ्य बीमा पालिसी नहीं ले पाते।

इसके अलावा, अत्यधिक गरीब परिवार, जिनमें वित्तीय साक्षरता और जागरूकता नहीं है, वे भी स्वाथ्य बीमा की पर्याप्त जानकारी न होने के कारण सरकारों द्वारा दी गई बीमा सुविधाओं का लाभ नहीं ले पाते। जिन नागरिकों को स्वास्थ्य बीमा की सुरक्षा मिली हुई है, उनके साथ भी कुछ समस्याएं बनी हुई हैं। सरकार द्वारा दी जाने वाली बीमा सुविधा में बहुत-सी दवाइयों और बाहरी उपकरणों के खर्च शामिल नहीं किए गए हैं, जिससे रोगियों को निशुल्क चिकित्सा सुविधा के दावे के बाद भी कुल खर्च का कम से कम पच्चीस-तीस फीसद खर्च खुद करना पड़ जाता है। निजी क्षेत्र की स्वास्थ्य बीमा कंपनियां तो पहले से ही बता देती हैं कि उनके इलाज खर्च का एक तय फीसद ही दिया जाएगा। ‘कैशलेस’ इलाज की सुविधा के बावजूद रोगी को बड़ी राशि खर्च करनी पड़ जाती है। बहुत से निजी अस्पताल सरकार द्वारा दी गई स्वास्थ्य बीमा सुविधा वाली योजनाओं में मरीजों का इलाज करने से मना कर देते हैं। ऐसी दशा में बीमा सुविधा के बावजूद उसको अपने खर्च पर इलाज कारवाना पड़ जाता है।

आज सरकारों को स्वास्थ्य देखभाल के नए विकल्पों विचार करने की जरूरत है। मेडिकल बचत खाता एक ऐसा विकल्प हो सकता है, जिसमें जिन नागरिकों को स्वास्थ्य सुविधाएं दी जानी हैं, वे और संबंधित सरकारें प्रति माह एक तय राशि जमा करते रहें। इस राशि से उन नागरिकों और उनके परिवार को चिकित्सा सुविधा या स्वास्थ्य बीमा के प्रीमियम का भुगतान किया जा सकेगा। विदेशों में इस प्रकार का प्रयोग किया गया, जो काफी हद तक सफल भी रहा है। इनमें सिंगापुर, चीन आदि देश प्रमुख हैं। स्वास्थ्य बीमा प्रीमियम पर जीएसटी दर को भी कम करने की जरूरत है। सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर चल रही स्वास्थ्य बीमा सुविधाओं की समीक्षा की जानी चाहिए। लाभार्थियों को पेश आने वाली समस्याओं का परीक्षण किया जाए और सरकारी, गैरसरकारी स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने वाली संस्थाओं तथा बीमा संस्थाओं द्वारा उनका समुचित समाधान किया जाए, ताकि देश के आम नागरिकों को मिलने वाली स्वास्थ्य सुविधाओं की गुणवत्ता में सुधार हो सके।