हाल ही में तालिबान के महत्त्वपूर्ण नेता सिराजुद्दीन हक्कानी ने अपने शिष्टमंडल के साथ संयुक्त अरब अमीरात की यात्रा कर वहां के राष्ट्रपति शेख मोहम्मद बिन जैद अल नह्यान से मुलाकात की। संयुक्त अरब अमीरात ने अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में सहयोग करने का भरोसा दिया है। सिराजुद्दीन हक्कानी को अमेरिका आतंकी मानता है और उनके बारे में किसी भी तरह की जानकारी उपलब्ध कराने पर उसने एक करोड़ डालर तक का इनाम घोषित कर रखा है। संयुक्त अरब अमीरात अमेरिका का अरब दुनिया में महत्त्वपूर्ण आर्थिक और सामरिक साझेदार है। हक्कानी की यात्रा गुपचुप भी नहीं हुई है। इसलिए इसका संदेश साफ है कि अब अमेरिका भी तालिबान के साथ सहयोग बढ़ाने पर विचार कर रहा है।
अमेरिका के तालिबान के प्रति बदलते रुख में भारत की भूमिका भी हो सकती है, क्योंकि अमेरिका और भारत एशिया प्रशांत क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण सहयोगी हैं। अफगानिस्तान के साथ चीन के आर्थिक और सुरक्षा संबंधी हित जुड़े हुए हैं। अमेरिका का तालिबान सरकार के प्रति कठोर रवैया चीन को लगातार मजबूत कर रहा है। ऐसे में चीन के अफगानिस्तान में बढ़ते प्रभाव को नियंत्रित करने के लिए अमेरिका, यूरोप, यूएई और भारत अब तालिबान के साथ सहयोग बढ़ाने को मजबूर हो गए हैं।
अमेरिका और यूरोप लोकतंत्र, समानता, स्वतंत्रता और मानवाधिकार के प्रति सजग रहे हैं। अफगानिस्तान की तालिबान सरकार इस पैमाने पर बिल्कुल खरी नहीं उतरती, इसकी राजनीतिक परिस्थितियों में लोकतंत्र की उम्मीदें भी दूर-दूर तक नजर नहीं आतीं। अमेरिका के 2021 में अफगानिस्तान से सेना वापस बुलाने के बाद से यह देश तालिबान की गिरफ्त में है और चीन इसका भरपूर फायदा उठा रहा है। चीन की महत्त्वाकांक्षी “बेल्ट एंड रोड” परियोजना में अफगानिस्तान की अहम भूमिका है और इसी के मद्देनजर दोनों देशों के बीच 2016 में एक अहम समझौता हुआ था। यहां के खनिज संसाधनों का इस्तेमाल करने के लिए चीनी कंपनियां पूरी तैयारी कर रही हैं। इन खनिजों में अत्याधुनिक तकनीक के लिए जरूरी माइक्रोचिप में लगने वाले महत्त्वपूर्ण खनिज शामिल हैं।
अफगानिस्तान में चीन का बढ़ता प्रभाव अमेरिका और उसके सहयोगी देशों के लिए संकट बढ़ा रहा है। यह भारत के आर्थिक और सामरिक हितों के खिलाफ भी है। इसका असर कई बहुउद्देशीय विकास परियोजनाओं पर भी पड़ सकता है। तापी गैस परियोजना तुर्कमेनिस्तान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान तथा भारत के मध्य प्रस्तावित है। एशियाई विकास बैंक की आर्थिक सहायता से इसका निर्माण किया जा रहा है। इसे इस प्रकार तैयार किया गया है कि प्रतिवर्ष 3.2 अरब घन फुट प्राकृतिक गैस की आपूर्ति चारों देशों में की जा सके। चीन इस परियोजना को बाधित कर रूस और ईरान के सहयोग से प्राकृतिक गैस को दक्षिण एशिया तक पहुंचाना चाहता है।
चीन, ईरान और रूस की यह साझेदारी इस समूचे क्षेत्र में अमेरिकी हितों को प्रभावित कर सकती है। अमेरिका मध्य एशिया में एक सैन्य उपस्थिति भी स्थापित करना चाहता है। यह उसे रूस, चीन और ईरान जैसे प्रतिद्वंद्वियों पर निर्णायक सैन्य बढ़त दे सकती है। चीन का सबसे बड़ा संकट शिंजियांग के पश्चिम की वह सीमा है, जो मुसलिम देशों से मिलती है और यही कारण है कि चीन अफगानिस्तान में सैन्य छावनी भी बनाना चाहता है। इसके लिए दोनों देशों के बीच बातचीत शुरू हो चुकी है। चीन यह छावनी दूरदराज के पहाड़ी इलाके वाखान कारीडोर के पास बनाना चाहता है। यहां चीन की सीमा अफगानिस्तान से मिलती है। चीन इस इलाके को प्रभाव में लेकर पूर्वी तुर्किस्तान इस्लामिक आंदोलन के प्रभाव को खत्म करना चाहता है। चीन का विश्वास है कि उइगर आतंकी इसी कारीडोर से उसके शिंजियांग प्रांत में घुसते हैं। इन सबसे निपटने के लिए चीन तालिबान से मजबूत रिश्ते बना रहा है।
पिछले वर्ष कई चीनी कंपनियों ने तालिबान सरकार के साथ लाखों डालर के व्यापारिक सौदे किए हैं। इस सबके साथ बेजिंग ने ऐतिहासिक कदम उठाते हुए तालिबान को आधिकारिक रूप से अफगानिस्तान के दूत के रूप में भी मान्यता दे दी है। अफगानिस्तान पर नियंत्रण करने के बाद से तालिबान ने महिलाओं और लड़कियों के मानवाधिकारों पर लगातार और व्यापक हमले किए हैं। तालिबान शासन के तहत, अफगानिस्तान की महिलाओं को अपने देश के राजनीतिक, आर्थिक या सामाजिक जीवन में शामिल होने के अवसर से वंचित कर दिया गया है। इसके चलते वहां गरीबी और बदहाली से आम जनता पस्त है। अफगानिस्तान भुखमरी की कगार पर पहुंच गया है। अमेरिका के सहयोगी संयुक्त अरब अमीरात का मानना है कि अगर आधी आबादी को भागीदारी से बाहर रखा गया, तो अफगानिस्तान की अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करना संभव नहीं होगा। मगर तालिबान वैश्विक आलोचनाओं से बेपरवाह, चीन से आर्थिक और रक्षा सहयोग बढ़ा रहा है।
इन सबके बीच अफगानिस्तान के भू-रणनीतिक महत्त्व को देखते हुए अमेरिका, भारत और यूरोप के लोकतांत्रिक देश यह बखूबी समझ गए हैं कि अब अफगानिस्तान में प्रतिरोध की कोई मजबूत आवाज दिखाई नहीं देती तथा इस देश में ऐसी ताकत नहीं दिखती कि वह तालिबान से लड़ाई लड़े। तालिबान से सहयोग बढ़ाकर ही अफगानिस्तान में अपने हित सुरक्षित रखे जा सकते हैं तथा तालिबान की शासन व्यवस्था में सुधार की उम्मीद जगाई जा सकती है। 2021 में तालिबान के फिर से सत्ता में आने के बाद भारत समेत कई देशों ने अफगानिस्तान से सारे कूटनीतिक संबंध तोड़ लिए थे। भारत भी तालिबान के प्रति अपने रुख में नरमी के संकेत दे चुका है। इस वर्ष 26 जनवरी को संयुक्त अरब अमीरात में भारतीय दूतावास ने गणतंत्र दिवस समारोह में अफगान के कार्यवाहक दूत बदरुद्दीन हक्कानी को आमंत्रित किया था। रूस, ईरान, तुर्की और भारत सहित कई अन्य देशों ने न केवल मानवीय परियोजनाओं पर, बल्कि काबुल में अपने राजनयिक मिशनों को फिर से खोलकर भी तालिबान के साथ जुड़ने का प्रयास किया है।
इस समय तालिबान अफगानिस्तान में निरंकुश शासन चला रहा है। वहां सामाजिक और राजनीतिक विरोध न होने से देश गंभीर मानवीय और मानवाधिकार संकट का सामना कर रहा है। व्यापारिक, शैक्षिक और सांविधानिक संस्थानों के बंद होने से न केवल देश में अव्यवस्था बढ़ी है, बल्कि लाखों लोगों की जिंदगी और आजीविका पर भी संकट गहराया हुआ है। संयुक्त राष्ट्र इस देश में मदद तो कर रहा है, लेकिन वह भी तालिबान शासन के संगीनों के साए में हो रही है। तालिबान नागरिक अधिकारों का उल्लंघन कर रहा है, असहमति पर अंकुश है और किसी भी प्रकार की राजनीतिक भागीदारी को स्वीकार नहीं करना चाहता।
संयुक्त राष्ट्र के प्राथमिक लक्ष्य वैश्विक शांति और सुरक्षा बनाए रखना, दुनिया के लोगों की भलाई को बढ़ावा देना और अंतरराष्ट्रीय और मैत्रीपूर्ण सहयोग के माध्यम से इन लक्ष्यों को प्राप्त करना है। अफगानिस्तान की तालिबान शासन व्यवस्था इस किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करने के प्रति गंभीर नहीं है, लेकिन फिर भी दुनिया मजबूर होकर तालिबान को स्वीकार कर रही है। जाहिर है, दुनिया की बदलती राजनीतिक परिस्थितियों में मानवाधिकार कहीं पीछे छूट रहा है तथा आर्थिक और सामरिक प्रतिबद्धताएं महत्त्वपूर्ण हो गई हैं।