ऑस्ट्रेलिया में सोलह वर्ष से कम आयु के बच्चों के लिए सोशल मीडिया प्रतिबंधित करने का निर्णय वहां की संसद में पारित विधेयक के माध्यम से एक विधान बन चुका है। प्रधानमंत्री एंथनी अल्बनीज के अनुसार, सोशल मीडिया पर ऐसे-ऐसे वीडियो और भ्रामक सूचनाएं होती हैं, जिन्हें मैं भी नहीं देखना चाहता, तो अबोध बच्चों की बात ही छोड़ दीजिए। प्रधानमंत्री के अनुसार, प्रतिबंध के लिए सुनिश्चित विधान व्यावहारिक रूप में बच्चों के मां-पिता के लिए है, क्योंकि वे मेरी ही तरह अपने बच्चों की आनलाइन सुरक्षा के संदर्भ में चिंतित हैं।

उन्होंने प्रतिबंध के निर्णय पर स्पष्ट किया कि ऐसे वीडियो को मैं कदापि नहीं देखना चाहूंगा। ऐसे में एक अबोध और अवयस्क बच्चे के मन पर ये कैसा और कितना दुष्प्रभाव डालते होंगे, यह सोच कर ही चिंता बढ़ने लगती है। वास्तव में तकनीकी कंपनियां अविश्वनीय रूप में शक्तिशाली हैं। इनके ऐप में ऐसे एल्गोरिदम हैं, जो लोगों को कुछ ऐसा असामाजिक और अमानवीय व्यवहार करने के लिए उकसाते हैं, जो एक सभ्य और जीवंत समाज में किसी भी स्तर पर बिल्कुल स्वीकार्य नहीं हो सकते हैं।

हालांकि इससे पहले चीन, फ्रांस, अमेरिका और इंग्लैंड में भी सोशल मीडिया पर प्रतिबंध के नियम-कानून बन चुके हैं, लेकिन वे आस्ट्रेलिया के कठोर कानून की तुलना में निष्प्रभावी ही प्रतीत होते हैं। आस्ट्रेलिया के नए कानून के अंतर्गत सोलह वर्ष तक के किशोरों के फेसबुक, एक्स, टिकटाक और इंस्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया मंच के प्रयोग पर प्रतिबंध लगाया जाएगा।

प्रतिबंध लागू होते ही प्रतिक्रिया किस तरह की होगी, यह विचारणीय होगा। आस्ट्रेलिया भौगोलिक रूप से विस्तृत क्षेत्र है, पर वहां की जनसंख्या 2023 की गणना के अनुसार मात्र 2.66 करोड़ है। कम जनसंख्या वाला कोई भी देश भू-राजनीतिक दशाओं और स्थितियों से अधिक प्रभावित नहीं होता। परिणामस्वरूप विश्व की विशाल कंपनियों की स्वयं को लाभान्वित करने की व्यापारिक नीतियां ऐसे देश में सुगमता से लागू नहीं हो पातीं।

विगत बारह-पंद्रह वर्षों में पूरी दुनिया सोशल मीडिया की व्याधि से ग्रस्त है। आज पांच वर्ष के बच्चों से लेकर अस्सी-नब्बे वर्ष के वृद्ध तक मोबाइल फोन पर सुलभ सोशल मीडिया के ऐप से चलने वाले बुरी तरह भ्रमित हो रहे हैं। उनमें कई प्रकार के मानसिक विकार उत्पन्न हो रहे हैं। भ्रम पैदा करने वाले विकार बढ़ाने में केवल चलचित्र नहीं, भ्रामक जानकारियों और सूचनाओं की भी एक समान भूमिका है। ज्यादातर लोग दिन में कई घंटे फोन पर सोशल मीडिया पर व्यतीत कर रहे हैं।

घर हो या कार्यस्थल, सभी स्थानों पर मोबाइल फोन पर सोशल मीडिया ऐप के साथ दिन व्यतीत करना लोगों की आदत हो गई है। भारत की तरह अधिसंख्य देशों ने शासन के साथ आवश्यक कार्य हेतु जुड़े रहने के लिए नागरिकों को इंटरनेट चलाए रखने के लिए विवश कर दिया है। और जो कंपनियां फोन सहित डिजिटल गैजेट, दूरसंचार और सोशल मीडिया ऐप का व्यवसाय कर रही हैं, उन्होंने येन-केन-प्रकारेण विश्व के अधिसंख्य देशों के शासन को अपने अनुसार सत्ता चलाने के लिए बाध्य कर दिया है। पूंजीपतियों तथा शासन-प्रशासन के लिए सोशल मीडिया, जहां धन कमाने का माध्यम बना हुआ है, वहीं मनुष्यों के लिए सामाजिक-पारिवारिक रूप में यह माध्यम भयंकर आत्मघाती बन चुका है।

डिजिटल वृत्ति के कारण मनुष्य अपनी प्राकृतिक संरचना तथा दैनिक पारिवारिक-सामाजिक कार्यों से विमुख हो रहा है। सोशल मीडिया का आभासी लोक उसे भौतिक जीवन के वास्तविक सत्य से दूर कर रहा है। वहीं कार्यों तथा दायित्वों के साथ समायोजन करने की योग्यता से विहीन कर रहा है। इस परिस्थिति में लोग विचित्र प्रकार के मशीनी हाव-भाव प्रदर्शित करने वाली कठपुतली की तरह हो गए हैं।

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यह चिंता की बात है। परिवार, समाज और मानवीय संबंधों को सुरक्षित रखने के लिए जितने भी मानवीय गुण और सद्गुण किसी मनुष्य में स्वाभाविक रूप में होते हैं, सोशल मीडिया पर अधिकांश समय गुजारने के कारण, वे सभी बुरी तरह से ध्वस्त हो रहे हैं। जबसे सोशल मीडिया का चलन प्रारंभ हुआ है, तब से परिवार और समाज में प्रेम और सौहार्द के संबंध टूटते जा रहे हैं। मनुष्यों पर स्वार्थ और मशीनी व्यवहार हावी हो रहा है। यह प्रवृत्ति किसी भी दृष्टि से मानव कल्याण आधारित प्रगति का सूचक नहीं है।

पिछले पंद्रह-बीस वर्षों में जन्मी तथा पली-बढ़ी पीढ़ी सोशल मीडिया पर अधिक समय व्यतीत कर रही है। अमेरिका, भारत, चीन, जापान जैसे देश जो प्रौद्योगिकी और तकनीकी नीतियों के बूते तैयार सेवाएं बेच कर लाभ अर्जित कर रहे हैं, उनके लिए आस्ट्रेलियाई शासन का सोशल मीडिया पर प्रतिबंध लगाने का निर्णय अनुकरणीय होगा या सोशल मीडिया के माध्यम से मनुष्यों को मशीन बना कर की जाने वाली प्रगति के मार्ग का बाधक होगा, यह तो भविष्य में ही निर्धारित होगा।

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मगर इतना आभास तो दुनियाभर के लोगों को हो ही गया होगा कि सोशल मीडिया के झंझावातों के बीच अब मनुष्य का जीवन प्राकृतिक स्वभाव, सहजता, सरलता और संतोषजनक स्थिरता से वंचित ही होता रहेगा। सोशल मीडिया की व्याधियों से ग्रस्त समाज और विशेषकर युवा पीढ़ी को देख कर तो अब यही लगता है कि विज्ञान की प्रगति का मनुष्य-कल्याण का उद्देश्य दिनोंदिन कमजोर पड़ता जा रहा है।

यह समझने की आवश्यकता है कि इस समय डिजिटल प्रगति का अंतिम उद्देश्य क्या है? अगर उद्देश्य मनुष्य के लिए सुख, आनंद नियोजित करना और उसके जीवन को हर दृष्टि से सुगम बनाना रहा है, तो धरातल पर देखें। प्रगति की प्रतिक्रिया इस रूप में तो बिल्कुल परिलक्षित नहीं हो रही है। सोशल मीडिया पर कई मंच उच्छृंखलता, फूहड़ता, असामाजिकता के अड्डे बन चुके हैं। जबसे सोशल मीडिया ने अपने मंचों पर उपयोगकर्ता के अधिक ‘फालोअर्स’, ‘लाइक्स’ और प्रतिक्रिया के आधार पर धन देने की व्यवस्था की है, तब से फूहड़ और असामाजिक गतिविधियों को दर्शाते वीडियो की भरमार हो गई है।

सोशल मीडिया के संबंध में समग्र निष्कर्ष यही है कि ये सारी परिस्थितियां भयंकर अराजकता फैला रही हैं। इसके नतीजे भी अब कई देशों में दिख रहे हैं। इसका असर न केवल बच्चों की शिक्षा, बल्कि लोगों के निजी जीवन पर भी पड़ा है।

सोशल मीडिया पर नियंत्रण के लिए जो कदम आस्ट्रेलिया की सरकार ने उठाए हैं, उनके बारे में भारतीय शासन को भी विचार करना होगा। अगर भारत सहित विश्व भर के शासक विचार करेंगे, तो अनुभव करेंगे कि जलवायु विकारों का उन्मूलन करने की दिशा में होने वाली उनकी अंतरराष्ट्रीय सभाओं की सार्थकता कहीं न कहीं सोशल मीडिया पर सीमित और अल्प निर्भरता पर भी आश्रित है।

यदि सोशल मीडिया का सीमित और नियंत्रित उपयोग लोगों द्वारा होगा, तो उनके स्वास्थ्य पर इसका सकारात्मक प्रभाव होगा। ऐसा होगा तो लोग विश्व की अन्य समस्याओं का समाधान करने और जलवायु संतुलन की नीतियों को लागू करने के लिए मानसिक-शारीरिक रूप में अधिक सजग और सक्रिय होंगे।