बीजेपी की मौजूदा रणनीति और उसके सहयोगियों की भूमिका अब राजनीतिक चर्चा का केंद्र बनती जा रही है। बिहार में प्रदेश अध्यक्ष दिलीप जायसवाल पर प्रशांत किशोर के हमले, पंजाब में सुनील जाखड़ की उपेक्षा, और स्मृति ईरानी का अभिनय में लौटना—तीनों घटनाएं संकेत दे रही हैं कि पार्टी के भीतर और बाहर समीकरण बदल रहे हैं। वहीं, चुनाव आयोग की भूमिका और गठबंधन सहयोगियों के बीच व्यवहार का अंतर भी नई कहानी कहता है। ये घटनाएं बीजेपी की शक्ति के साथ उसके भीतर की उलझनों को भी उजागर करती हैं।

घिरे जायसवाल

बिहार प्रदेश भाजपा अध्यक्ष दिलीप जायसवाल आरोपों के घेरे में हैं। सुराज पार्टी के प्रमुख प्रशांत किशोर हाथ धोकर उनके पीछे पड़ गए हैं। किशनगंज के मेडिकल कालेज को मुद्दा बनाया है। जायसवाल की गिनती बिहार भाजपा के प्रमुख नेताओं में की जाती है। पार्टी ने 2014 में उन्हें किशनगंज से लोकसभा चुनाव भी लड़ाया था। चुनाव प्रचार में प्रशांत किशोर भाजपा, जद (एकी) और राजद सभी को निशाना बना रहे हैं। अपनी पत्रकार वार्ताओं और सभाओं में वे जायसवाल पर आरोप लगाते हैं कि किशनगंज के जिस मेडिकल कालेज में वे कभी क्लर्क हुआ करते थे, अब उसके मालिक कैसे बन गए। सिख मौलेश्वर प्रसाद सिंह द्वारा स्थापित यह कालेज एक अल्पसंख्यक शिक्षा संस्था थी। दिलीप जायसवाल अल्पसंख्यक नहीं हैं। पीके का आरोप है कि पिछले दो दशक के दौरान विभिन्न दलों के नेताओं के करीब पचास बच्चों ने इस कालेज से एमबीबीएस की डिग्री ली, जिसका पूरा ब्योरा उनके पास है। अब जायसवाल ने अपने साथ अपनी पत्नी और पुत्र को भी कालेज के प्रबंध तंत्र में शामिल कर लिया है। जिसने कालेज की स्थापना की थी, उसके परिवारजनों की किसी ने सुनवाई नहीं की। चर्चा है कि पार्टी आलाकमान ने प्रवक्ताओं से कहा है कि व्यक्तिगत आरोपों पर सफाई पार्टी नहीं देगी। पर जायसवाल तो एक चुप, सौ को हराए की नीति पर चल रहे हैं।

मुश्किल में जाखड़

पंजाब में जो नेता कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हुए थे, वे उलझन में हैं। इनमें सुनील जाखड़ का नाम सबसे प्रमुख है। बलराम जाखड़ के बेटे को भाजपा ने प्रदेश अध्यक्ष बनाया था। साथ ही पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह को भी यह सोचकर शामिल किया था कि लोकसभा चुनाव में लाभ होगा। ऐसा हुआ नहीं। कैप्टन की तो उम्र अधिक हो चुकी है और सेहत भी ठीक नहीं रहती। पर सुनील जाखड़ तो प्रदेश अध्यक्ष होते हुए भी भाजपा में बेगाने बने हुए हैं। उनके बाद कांग्रेस छोड़कर आए रवनीत सिंह बिट्टू को तो भाजपा ने लोकसभा चुनाव हारने के बाद भी केंद्र में मंत्री बना दिया। राज्य सभा दे दी। पर जाखड़ के बारे में कुछ नहीं सोचा। उलटे अपने एक नेता अश्विनी शर्मा को पंजाब प्रदेश का कार्यकारी अध्यक्ष बना कर जाखड़ को संकेत दे दिया कि उनकी दुविधा का पार्टी कोई नुकसान नहीं उठाएगी।

राजनीतिक हमले बनाम आयोग

बिहार में मतदाता सूची के गहन पुनरीक्षण की प्रक्रिया को लेकर विपक्ष लगातार सवाल खड़े कर रहा है। आधार पर आयोग के पूर्व अधिकारी के बयान को विपक्ष उठा रहा है। उठापटक के बीच आयोग केवल संविधान के प्रावधानों से अपना रुख स्पष्ट करता नजर आ रहा है। आयोग का साफ कहना है कि वह केवल उन प्रावधानों को ही तय कर सकता है, राजनीतिक हमलों का जवाब देना उसका काम नहीं है। तय प्रावधानों के दायरे में रह कर काम किया जा रहा है। इसमें जमीनी स्तर से कोई आवाज सामने नहीं आ रही है लेकिन राष्ट्रीय स्तर के नेता सक्रिय हैं। इससे ऐसा लगता है कि पूरे मामले में जमीनी हकीकत कुछ और है, क्योंकि इस प्रक्रिया में राजनीतिक दलों के लाखों प्रतिनिधि भी शामिल हैं।

फर्क दिखता है

राजग में भाजपा के दो प्रमुख सहयोगी हैं- जद (एकी) और तेलगुदेसम। जद (एकी) के अध्यक्ष हैं बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और तेलगुदेसम के मुखिया हैं आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू। नीतीश पिछले काफी समय से भाजपा के दबाव में दिखते हैं। चुनाव आयोग ने बिहार में मतदाता सूचियों का गहन पुनरीक्षण शुरू किया तो नीतीश उसका बचाव करने में जुट गए। जबकि विपक्ष के नेताओं के मुताबिक यह कवायद भाजपा का एजंडा है। विपक्ष तो यह भी बोल रहा है कि नीतीश नाम के मुख्यमंत्री हैं। सरकार तो असल में भाजपा चला रही है। इसके उलट आंध्र के मुख्यमंत्री ने चुनाव आयोग की कवायद एसआइआर को लेकर नुक्ताचीनी की है। आंध्र में बिहार जैसी हड़बड़ी नहीं करने देंगे, यह चेतावनी भी दी है। नायडू एक साल में केंद्र से आंध्र के लिए दो लाख करोड़ रुपए का पैकेज ले चुके हैं। माना कि केंद्र में जद (एकी) और तेलगुदेसम को मंत्री पद बराबर मिले हैं। लेकिन कार्यप्रणाली दोनों की कतई भिन्न दिख रही है। भाजपा उन्हें नीतीश से कहीं ज्यादा भाव दे रही है। अब तो नायडू ने अपनी पार्टी के नेता अशोक गजपति राजू को गोवा का राज्यपाल भी बनवा लिया। जद (एकी) के लोकसभा में 12 सदस्य चुने गए थे। जबकि तेलगुदेसम के 16 लोकसभा सदस्य हैं। चार ज्यादा सदस्यों वाली पार्टी को भाजपा अगर जद (एकी) से अधिक तवज्जो दे रही है तो इसमें किसी को हैरानी क्यों होनी चाहिए।

‘दिल्ली क्रूर है’

स्मृति ईरानी का टीवी धारावाहिक की दुनिया में वापसी का फैसला हैरानी भरा रहा। राजनीति से उनका मोह भंग हो गया है या वे खुद को पार्टी में हाशिए पर मान रही हैं? जवाब में स्मृति ने इतना ही कहा कि उनके लिए अभिनय ‘पार्ट टाइम’ और राजनीति ‘फुल टाइम’ होगी। स्मृति पूरे एक दशक तक केंद्र सरकार में अहम विभागों की काबीना मंत्री रहीं। दो बार राज्य सभा की सदस्य रहने के बाद 2019 में राहुल गांधी को अमेठी में हराकर उन्होंने करिश्मा किया था। 2024 में वे अमेठी में किशोरी लाल से हार क्या गईं, पार्टी में उनकी स्थिति बदल गई। उम्मीद तो उन्हें यही रही होगी कि पार्टी राज्य सभा के रास्ते उन्हें केंद्र में मंत्री बनाए रखेगी। मीडिया में कभी दिल्ली में मुख्यमंत्री का चेहरा होने के कयास लगे तो कभी पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए जाने की अटकलें। लेकिन कुछ हाथ लगा नहीं। स्मृति जब प्रमोद महाजन के सौजन्य से 2003 में भाजपा में शामिल हुई थीं तो जसवंत सिंह ने उन्हें आगाह किया था कि दिल्ली बहुत क्रूर है लिहाजा अपना सियासी प्रबंध और छवि प्रबंधन बनाए रखना। लगता है कि शिखर पर पहुंचने के बाद जसवंत सिंह की चेतावनी भूल गईं स्मृति।