ब्रह्मदीप अलूने
ईरान, यूरेशिया और हिंद महासागर के मध्य एक प्राकृतिक प्रवेश द्वार है, जिससें भारत, रूस और यूरोप के बाजारों तक आसानी से पहुंच सकता है। एशिया महाद्वीप की दो महाशक्तियों, भारत और चीन, की सामरिक प्रतिस्पर्धा समुद्री परिवहन और पारगमन की रणनीति पर देखी जा सकती है। चीन की ‘पर्ल आफ स्प्रिंग’ के जाल को भेदने के तौर पर चाबहार बंदरगाह के रूप में अंतत: भारत को सफलता मिल गई है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय राजनीति में ईरान की स्थिति और कूटनीतिक दांव-पेंचों के बीच यह कहा जा सकता है कि भारत की सामरिक और आर्थिक क्षमताओं की असली परीक्षा भी अब शुरू हो रही है।
दरअसल, ईरान एक ऐसा देश है, जो राजनीतिक, कूटनीतिक, आर्थिक और सामरिक प्रतिबंधों का सामना करते हुए अमेरिका विरोधी खेमों से जुड़ने के लिए हमेशा तैयार नजर आता है। 2021 में चीन ईरान के बीच रणनीतिक रिश्तों की शुरुआत हो या मध्यपूर्व में ‘प्राक्सी’ समूहों को मजबूत बनाए रखने की कोशिश, अमेरिका की चुनौतियां ईरान ने बढ़ाई हैं। इस बीच भारत अमेरिकी सहयोग बढ़ा है, हिंद महासागर से लेकर लद्दाख तक, चीन से निपटने के लिए भारत को अमेरिका की जरूरत है, ऐसे में भारत ईरान के संबंधों के दीर्घकालीन समय तक सामान्य बने रहने को लेकर गहरी आशंकाएं हैं।
ईरान चीन की ‘बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव’ का सदस्य है और वह इसे पूर्व और पश्चिम के बीच एक सेतु होने की ऐतिहासिक स्थिति को पुन: स्थापित करने के अवसर के रूप में देखता है। ईरान में परिवहन, बंदरगाहों, ऊर्जा, उद्योग और सेवाओं की विभिन्न परियोजनाओं में चीन अरबों डालर का निवेश कर रहा है तथा वह ईरान का एक मजबूत आर्थिक सहयोगी बनकर उभरा है। ईरान के पास विश्व में कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस के बड़े भंडार मौजूद है। वह अपना तेल बेचने के लिए भारत को एक बड़े बाजार के रूप में देखता है।
भौगोलिक रूप से दोनों देश निकट हैं, जो इसकी लागत को कम करता है और इससे ईरान की लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था को सहारा मिल सकता है। मगर भारत वैश्विक नियमों में बंधा हुआ एक लोकतांत्रिक और जिम्मेदार देश है, इसलिए भारत ने अमेरिकी प्रतिबंधों को देखते हुए पिछले चार वर्षों से ईरानी तेल का आयात बंद कर दिया है। इससे भारत की ऊर्जा जरूरतें प्रभावित हुई, वहीं ईरान ने भी इसे ठीक नहीं समझा।
अब चाबहार बंदरगाह को लेकर भारत और ईरान के बीच समझौता पूर्ण हो गया है, इसे सामरिक और व्यापारिक दृष्टि से भारत के लिए महत्त्वपूर्ण माना जा रहा है। इसके कई भू-राजनीतिक कारण हैं। चाबहार बंदरगाह परियोजना का विकास भारत ईरान की एक प्रमुख परियोजना है। भारत, ईरान और रूस के मध्य 16 मई 2002 को इस संबंध में एक समझौता हुआ था, जिसके द्वारा ईरान होकर मध्य एशियाई राज्यों तक निर्यात करने के लिए एक उत्तर दक्षिण गलियारे का निर्माण किया जा सके।
ईरान में कैस्पियन सागर पर बने अस्तारा, बंदर अंजाली और अमीराबाद बंदरगाह रूस के अस्ताराखान बंदरगाह से बखूबी जुड़े हैं। अरब सागर के तट पर कराची बंदरगाह, ग्वादर बंदरगाह, कांडला बंदरगाह, मुंबई बंदरगाह और चाबहार भी हैं। ओमान की खाड़ी में स्थित चाबहार बंदरगाह अब भारत के कब्जे में है। इसके साथ ही यह भी सुनिश्चित हो गया है कि ईरान के दक्षिण समुद्र तट को भारत के पश्चिमी समुद्र तट से जोड़ने का रणनीतिक दांव कामयाब हो गया है। यहीं नहीं, इस परियोजना में अफगानिस्तान का सहयोग सामरिक संतुलन बनाने में भी मददगार होगा।
ईरान भी इस नए मार्ग को लेकर काफी उत्साहित है, क्योंकि भारत से जो माल पहले पाकिस्तान होते हुए सीधे अफगानिस्तान जाता था वह अब जहाजों के जरिए पहले ईरान के चाबहार बंदरगाह पर जाएगा और फिर वहां से ट्रकों द्वारा अफगानिस्तान पहुंचेगा। चाबहार बंदरगाह के जरिए भारत अफगानिस्तान के साथ ही मध्य एशिया, रूस, पीटर्सबर्ग, मध्य एशिया का ‘लैंड लाक्ड’ इलाके तक जुड़ जाएगा। इस प्रकार इस बंदरगाह से भारत की सामरिक, आर्थिक और भू-राजनीतिक स्थिति बेहद मजबूत होने की संभावना बढ़ेगी।
चाबहार बंदरगाह भारत की आर्थिक ताकत बनने की आशा के प्रतीक के तौर पर भी देखा जा रहा है। गुजरात के कांडला बंदरगाह से केवल छह दिनों में चाबहार पहुंचा जा सकता है। वहां से रेल या सड़क के माध्यम से सामान आगे पहुंचाया जा सकता है। यही लाभ ईरान को भी होगा। भारत को ईरान से तेल, गैस और मध्य एशिया के लिए संपर्क चाहिए, ताकि पाइपलाइन के जरिए गैस लाई जा सके। मगर चाबहार बंदरगाह को लेकर भारत की दीर्घकालीन योजनाएं ईरान की जटिल धार्मिक और वैश्विक नीतियों के चलते कैसे पूरी होंगी, इसको लेकर गहरा असमंजस है।
चाबहार बंदरगाह से भारत को होने वाले फायदों के केंद्र में ईरान, अफगानिस्तान और रूस हैं। ये तीनों देश वर्तमान में कड़े वैश्विक प्रतिबंधों का सामना कर रहे हैं। अमेरिका ने लंबे समय से तालिबान को किसी भी तरह के समर्थन को अपराध घोषित कर रखा है। ऐसे में अफगानिस्तान में काबिज तालिबान और भारत के बीच सहयोग की गुंजाइश बेहद सीमित है। यूक्रेन पर हमले के बाद रूस कड़े अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों का सामना कर रहा है।
अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोपीय संघ के साथ-साथ आस्ट्रेलिया, कनाडा और जापान सहित कई देशों ने रूस पर साढ़े सोलह हजार से अधिक प्रतिबंध लगाए हैं। रूसी बैंकों की लगभग 70 फीसद संपत्ति जब्त कर ली गई और कुछ को वित्तीय संस्थानों के लिए ‘हाई स्पीड’ मैसेजिंग सेवा ‘स्विफ्ट’ से बाहर कर दिया गया। अमेरिका और ब्रिटेन ने रूसी तेल और प्राकृतिक गैस पर प्रतिबंध लगा दिया है। यूरोपीय संघ ने समुद्री रास्ते से कच्चे तेल के आयात पर प्रतिबंध लगा दिया है।
चाबहार बंदरगाह वाला ईरान भी गंभीर मानवाधिकारों के उल्लंघन और परमाणु बम बनाने की कोशिशों के कारण कई वैश्विक प्रतिबंधों का सामना कर रहा है। फिर, ईरान की कूटनीति और भारत की स्थिति में गहरे अंतर्द्वंद्व और विरोधाभास हैं। ईरान के दो सबसे बड़े शत्रु राष्ट्र अमेरिका और इजराइल भारत के महत्त्वपूर्ण आर्थिक और सामरिक साझीदार हैं। भारत और अमेरिका व्यापक रणनीतिक भागीदार हैं और दोनों के बीच सहयोग व्यापार, रक्षा, बहुपक्षवाद, खुफिया, साइबर स्पेस, नागरिक परमाणु ऊर्जा, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा जैसे कई क्षेत्रों में फैला हुआ है।
भारत और इजराइल के बीच गहरे द्विपक्षीय आर्थिक, सैन्य और रणनीतिक संबंध हैं। रूस के बाद इजराइल भारत का दूसरा सबसे बड़ा रक्षा आपूर्तिकर्ता है। दोनों देशों के बीच सैन्य और रणनीतिक संबंध आतंकवादी समूहों पर खुफिया जानकारी साझा करने और संयुक्त सैन्य प्रशिक्षण तक विस्तारित हैं।
चाबहार बंदरगाह, वैश्विक बाजार में पहुंच बढ़ाने के लिए भारत के लिए बहुत मददगार बन सकता है। मगर ईरान, चीन और रूस के साथ निरंतर आगे बढ़ रहा है। ऐसे में अमेरिका और यूरोप ईरान की ऐसी किसी भी योजना को फलीभूत नहीं होने देंगे, जिसका व्यापक लाभ उसे मिल सके। जाहिर है, चाबहार बंदरगाह के व्यापक फायदों के लिए ईरान में लोकतांत्रिक सरकार, पुतिन का पतन तथा जिनपिंग की साम्राज्यवादी आक्रामक नीतियों जैसे व्यापक परिवर्तनों की जरूरत होगी और इसकी उम्मीद फिलहाल कहीं दिखाई नहीं पड़ती। इसके साथ ही भारत ईरान के साथ सहयोग बढ़ाने को लेकर अमेरिका, इजराइल और यूरोपीय देशों से संबंध बाधित कर ले, इसकी संभावना भी बिल्कुल नहीं है।