समय बदल गया है। अब सीधी लड़ाई नहीं होती। युद्ध में निपुणता पर जोर दिया जाता है। दुनिया के सबसे बड़े समृद्ध देश के राष्ट्रपति तो हर युद्ध को अपने व्यवसाय की शक्ति से निपटाने की बात करते हैं। इस समय दुनिया में एक ओर रूस और यूक्रेन का युद्ध चल रहा है, तो दूसरी ओर ईरान और इजराइल के साथ युद्ध मैदान में अमेरिका के कूदने के बाद तस्वीर ही बदल गई। अस्थायी युद्ध विराम जरूर हो गया, लेकिन तबाही का मंजर दोनों देशों में दिखा। जहां तक भारत का चीन और पाकिस्तान का संबंध है, इनसे तनातनी जगजाहिर है। पाकिस्तान के हुक्मरान अपनी नेतागीरी बनाए रखने के लिए भारत विरोध की राजनीति करने के साथ कश्मीर के मसले पर हाय-तौबा मचाते रहते हैं। वे प्राय: आतंकवाद के जरिए भारत के शांत वातावरण को भंग करने की कोशिश करते हैं। चीन उनकी पीठ थपथपाता है।

डोनाल्ड ट्रंप ‘अमेरिका अमेरिकियों के लिए’ कह कर ही सत्ता में आए थे। अब उनका नया चेहरा सामने आया है। वे युद्ध करवाते हैं और फिर युद्धविराम करने के लिए अपनी व्यापारिक ताकत की आड़ लेते हैं। इसके बाद खुद को शांति का मसीहा घोषित करवाने का प्रयास भी करते हैं। विडंबना यह है कि आतंकवाद को पालने-पोसने वाले पाकिस्तान ने हाल में उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार देने की वकालत की। दरअसल, आज दुनिया का कार्य व्यवहार अपने हित साधने से ही चलता है। गिरे और कमजोर को उठाने की भावना अब लगभग खत्म हो चुकी है।

पिछड़े को थोड़ी-सी रियायतें देने वाले विश्व मंचों से जो वातावरण बना था, उन्हें भी लगभग खत्म किया जा चुका है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप तो दिन-रात अपना रंग बदलते हैं। कभी वह चीन और पाकिस्तान के प्रति बहुत कटु हो जाते हैं, कभी उनसे व्यापारिक करार करने लगते हैं। भारत, जो शुरू से अमेरिका के साथ मुक्त व्यापार समझौते की बातचीत कर रहा है, उसे अमेरिका के साथ व्यापार करने में शोषक करार दे दिया जाता है। कभी ट्रंप फरमाते हैं कि वे भारत के साथ बहुत बड़ा व्यापारिक करार करने वाले हैं।

भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्षविराम का श्रेय ले रहा अमेरिका

आज युद्ध विराम के लिए व्यापारिक दबाव बनाने का प्रयास किया जा रहा है। यूक्रेन में प्राकृतिक ऊर्जा के भंडार हैं। तीन वर्ष तक यूक्रेन को रूस से लड़वाने के बाद अमेरिका अब शांति का संदेश देने की बात करता है और साथ ही यूक्रेन से अपने समर्थन के मूल्य में उसके प्राकृतिक खनिज पदार्थों पर अधिकार भी मांग लेता है। चीन को लेकर भी ट्रंप का रुख बदला है। सत्ता संभालते ही वे उसके प्रति बहुत कटु हो गए थे। उन्होंने चीन पर 145 फीसद शुल्क लगाने की धमकी दे दी थी। अब माहौल बदल गया है। अमेरिका को अब चीन के भी प्राकृतिक दुर्लभतम खनिज चाहिए। इसलिए उनके बीच एक महत्त्वपूर्ण समझौते पर हस्ताक्षर हो गए हैं। शुल्क फिलहाल स्थगित हैं और 90 दिन गुजरने के बाद भी नई दरें घोषित नहीं हुईं, तो लगता है कि यह शुल्क संग्राम फिलहाल स्थगित रहेगा।

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अमेरिकी राष्ट्रपति ने बार-बार फरमाया है कि भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्षविराम अमेरिका ने अपनी व्यापारिक ताकत के बूते करवाया है। हालांकि भारत ने कभी इसे स्वीकार नहीं किया। दरअसल, डोनाल्ड ट्रंप को अपनी व्यापारिक शक्ति पर बहुत विश्वास है। इसलिए वह दो देशों के बीच युद्ध शुरू कराने के बाद युद्धविराम कराने की घोषणा में देर नहीं लगाते। क्या हम यह मान लें कि ईरान के पास परमाणु भंडार है? उसकी भारी खनिज शक्ति में अमेरिका की दिलचस्पी है? इसलिए इजराइल और ईरान के बीच टकराव को रोका गया। यह नई युद्ध राजनीति है। जंग अधूरी रह जाती है और व्यावसायिक हित देखते हुए अमेरिका बीच में कूद जाता है। चीन के साथ व्यापार समझौते के दूसरे ही दिन अमेरिकी राष्ट्रपति ने कह दिया कि हम एक बहुत बड़ा व्यापार समझौता भारत के साथ करने वाले हैं।

दुनिया का सबसे बड़ा बाजार है भारत

याद रखा जाए कि जब अमेरिका ने शुल्क संग्राम छेड़ा था और ‘जैसे को तैसा की नीति’ अपनाने का संदेश दिया था, तभी भारत ने मुक्त व्यापार समझौते की बात की थी। अब चीन के साथ समझौते के बाद भारत के साथ समझौते की बात करना और नए रास्ते खुलने की बात करना, शायद इस सच्चाई पर निर्भर करता है कि भारत दुनिया का सबसे बड़ी आबादी वाला देश है। यह दुनिया के लिए बहुत बड़ा मांग बाजार पेश कर रहा है। चीन के साथ समझौता उसके बाजार से मांग बटोरने के साथ-साथ उसके प्राकृतिक खनिजों को प्राप्त करने की इच्छा हो सकती है। याद रहे कि ट्रंप एक बड़े कारोबारी भी हैं। इसलिए वे चीन के बाद भारत के साथ समझौता चाहते हैं। मगर यह समझौता भारत की कृषि की कीमत पर नहीं होना चाहिए।

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अमेरिका में मक्का जैसी फसलों की बहुत उपज होती है। इसको बेचने के लिए भारतीय बाजार का उपयोग अमेरिका करता है, तो भारतीय किसानों का क्या होगा? व्यापार समझौते में भारत के लिए कृषि और दुग्ध क्षेत्र में अमेरिका को शुल्क रियायतें देना मुश्किल है। भारत ने अब तक किसी भी व्यापार समझौते में अपना दुग्ध क्षेत्र नहीं खोला, क्योंकि अपने देश में पालन-पोषण के लिए वैसे भी यह कम पड़ता है। इसके अतिरिक्त अमेरिका औद्योगिक वस्तुओं, इलेक्ट्रिक वाहनों, पेट्रो रसायन उत्पादों और कृषि उत्पादों पर भी रियायत मांग रहा है। उधर, हम कपड़ा, रत्न-आभूषण, परिधान, प्लास्टिक, रसायन और तिलहन जैसे श्रम प्रधान क्षेत्रों में अमेरिका से रियायत मांग रहे हैं ताकि इन रोजगारपरक उद्योगों का विकास हो सके और भारत की बेरोजगारी का भी हल निकलने की गुंजाइश पैदा हो जाए।

अब ट्रंप कह रहे हैं कि भारत और अमेरिका के बीच द्विपक्षीय व्यापार वार्ता देर से चल रही है, अब हम समझौते के करीब है। वे यह भी बता रहे हैं कि हमने चीन से समझौता कर लिया है, लेकिन हर किसी से नहीं करेंगे। हालांकि वे धमकी भी दे रहे हैं कि अगर भारत के साथ उनकी यह व्यापार वार्ता सिरे न चढ़ी तो अपनी वस्तुओं पर 25, 35 या 45 फीसद शुल्क भुगतान के लिए तैयार हो जाएं। यह एक अजब दुनिया है जिसमें भौगोलिक लड़ाइयां इसलिए कराई जाती हैं, ताकि डरा-धमका कर व्यापारिक समझौते किए जा सकें। पिछले कुछ वर्षों में दुनिया में चलने वाली लड़ाइयों को जब हम गंभीरता से देखते हैं, तो पाते हैं कि इन युद्धों के पीछे संलिप्त देशों के अपने व्यापारिक हित रहे।

अमेरिका जैसे समृद्ध देशों पर व्यापारिक हितों के लिए युद्ध करवाने के आरोप लगते रहे हैं। यह नहीं भूलना चाहिए कि अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों ने हथियारों की बड़ी-बड़ी फैक्टरियां लगा रखी हैं और वे अपने हथियारों की बिक्री के लिए चाहते हैं कि कहीं न कहीं युद्ध चलता रहे। यूक्रेन को रूस से लड़ सकने का सामर्थ्य इन्हीं देशों से मिला। अब पाकिस्तान की ओर से भारत के विरुद्ध छद्म युद्ध इन हथियारों से ही लड़ा जा रहा है। इसके पीछे भी कुछ देश हैं।