लोकपाल बिल पर एक बार फिर कड़वी बहस शुरू हो गई है। विपक्ष डरा हुआ है। उनके मन में इसे लेकर बेचैनी है। विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी ने वादा किया था कि वो लोकपाल बिल आएगी। बिल अब दिल्ली विधानसभा में पेश हो चुका है। विपक्ष यह जानता है कि वो इसे रोकने की हालत में नहीं है। इसलिए वो लोगों के बीच गलतफहमी पैदा करने की कोशिश कर रहा है। दुर्भाग्य की बात यह है कि कभी हमारे साथी रहे लोग ऐसी कोशिश करने वाले लोगों की मदद कर रहे हैं। शायद वे ऐसा राजनीतिक एकांतवास खत्म करने के लिए कर रहे हैं। वे लोकपाल पर जारी बहस को जीतने के लिए गाली गलौज पर उतारू हो गए हैं। यह देखना बेहद दुखद था कि प्रशांत भूषण हमारे युवा और बेहद काबिल साथी राघव चड्ढा को एक टीवी डिबेट के दौरान बुरा भला कहते रहे। प्रशांत भूषण के लिए मेरे मन में हमेशा से बेहद सम्मान रहा है। हालांकि, उस दिन मैं उनके बर्ताव से भौचक्का रहा गया। मैं उनकी दलीलों को सुनकर स्तब्ध था।
प्रशांत भूषण की दलील का केंद्रबिंदु यही था कि दिल्ली लोकपाल को केंद्रीय मंत्रियों और कर्मचारियों के भ्रष्टाचार की जांच नहीं करनी चाहिए। क्या मैं पूछ सकता हूं कि वे ऐसा क्यों कह रहे हैं? मैं उनकी मंशा को लेकर कोई आरोप नहीं लगाना चाहता, लेकिन कुछ तथ्यों को रखने से खुद को रोक नहीं पा रहा हूं। मुझे याद है कि भूषण एक दिन दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल के कमरे में कुछ कागजात लेकर पहुंचे थे। उन्होंने कहा, ”अरविंद, तुम्हें कृष्णा-गोदावरी बेसिन मुद्दे को लेकर रिलायंस के चीफ मुकेश अंबानी और मनमोहन कैबिनेट में मंत्री वीरप्पा मोइली और मुरली देवड़ा के खिलाफ एफआईआर जरूर करवानी चाहिए।” केजरीवाल ने कागजात देखे और इसके लिए तैयार हो गए। एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में केजरीवाल ने इसका एलान किया और केंद्रीय मंत्रियों के खिलाफ दिल्ली सरकार की एंटी करप्शन ब्रांच ने एफआईआर दर्ज कर ली। 1960 से ही एंटी करप्शन ब्रांच को केंद्रीय मंत्रियों और कर्मचारियों के खिलाफ जांच करने के अधिकार रहे थे, लेकिन 2014 में नरेंद्र मोदी सरकार ने इसे जानबूझकर वापस ले लिया।
भूषण वही शख्स हैं, जिन्होंने कृष्णा-गोदावरी बेसिन केस में दिल्ली सरकार की ओर से हाईकोर्ट में बहस की। सवाल यह है कि अगर केंद्रीय मंत्रियों के भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों की जांच करना एसीबी के लिए कानूनी और नैतिक तौर पर सही है तो यही शक्तियां दिल्ली के लोकपाल को क्यों नहीं मिलनी चाहिए? मजबूत लोकपाल की जरूरत इसलिए भी है क्योंकि एसीबी और दूसरी सरकारी एजेंसियां भ्रष्टचार पर लगाम कसने में नाकाम रही हैं। इस शक्ति के बिना लोकपाल एसीबी से भी कमजोर हो जाएगा। भूषण ऐसा क्यों चाहते हैं? क्या मुझे ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि वे मोदी कैबिनेट के मंत्रियों को बचाने की कोशिश कर रहे हैं? मुझे यह अंदाजा क्यों नहीं लगाना चाहिए कि उनके मन में कांग्रेस के प्रति एक नफरत और मोदी सरकार की तरफ एक खास झुकाव है? मुझे ऐसा क्यों नहीं कहना चाहिए कि उनकी दलीलें उतनी पाक साफ नहीं हैं, जितना कि वे दिखाने की कोशिश कर रहे हैं?
सिलेक्शन कमेटी में सदस्यों की संख्या सात से घटाकर चार करने को लेकर बीजेपी से लेकर प्रशांत भूषण तक असहमत हैं। उनका कहना है कि इससे लोकपाल की आजादी पर असर पड़ेगा। मैं हैरान हूं। कमेटी में जो चार सदस्य हैं, उनमें सीएम, दिल्ली के चीफ जस्टिस, स्पीकर और विपक्ष के नेता हैं। कोई यह जरूर कह सकता है कि सीएम और स्पीकर का राजनीतिक झुकाव एक हो सकता है, लेकिन यह कहना कि बाकी दो सदस्य भी सीएम से निर्देश लेंगे, सही नहीं है। हालांकि, यह बहस अब खत्म हो जानी चाहिए क्योंकि सरकार कमेटी में सात सदस्य रखने से जुड़े अन्ना हजारे के सुझावों को मान गई है।
लोकपाल को हटाए जाने के प्रावधान पर भी लोगों को समस्या हैं। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों को हटाने के लिए जो प्रावधान हैं, वही लोकपाल के लिए भी हैं। ऐसे में इन पर सवाल क्यों उठाए जा रहे हैं? सवाल यह भी पूछा जा रहा है कि 2014 का मूल बिल क्यों नहीं पेश किया गया? इसका जवाब बेहद सीधा है। हमारा संविधान और न्यायशास्त्र बेहद गतिमान है। जजों की नियुक्ति पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश को ध्यान में रखते हुए इस बिल का ड्राफ्ट तैयार किया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने प्रस्तावित कमेटी में नियुक्त किए जाने वाले सिविल सोसाइटी के सदस्यों की पारदर्शिता और आजादी से काम करने को लेकर सवाल उठाए थे। सच्चाई यही है कि बीजेपी और कांग्रेस, दोनों के पास लोकपाल पर कुछ कहने का नैतिक अधिकार नहीं है। दोनों ने मिलकर 2014 में दिल्ली विधानसभा में लोकपाल बिल पास नहीं होने दिया था। इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है कि बिल के राह में रोड़े अटकाने वाले बीजेपी और कांग्रेस के विधायकों को लोगों ने चुनावों में सजा दी। यह वही कांग्रेस है, जिसने अन्ना हजारे के 2011 में हुए आंदोलन के दौरान संसद में किए गए अपने वादे की इज्जत नहीं की। ये वही मोदी हैं, जिन्होंने सत्ता में आने के 18 महीने बाद भी लोकपाल नियुक्त नहीं किया। ये वही राजनीतिक वर्ग है, जिसने 1966 से अब तक 9 बार संसद में लोकपाल से जुड़ा बिल पेश होने के बावजूद इसे कानून का रुप लेने नहीं दिया। और आखिरकार जब लोगों के दबाव में यह कानून पास हुआ तो महज कागज का एक टुकड़ा साबित हुआ। यह तो तय है कि बीजेपी और कांग्रेस, दोनों ही दिल्ली में लोकपाल नहीं चाहते। हालांकि, इससे बड़ा सवाल यह है कि हमारे पुराने दोस्त उनकी मदद क्यों कर रहे हैं?
(लेखक आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता और पूर्व पत्रकार हैं)

