साल 1977 में जब रामविलास पासवान पहली बार रिकॉर्ड वोट से बिहार के हाजीपुर से लोकसभा का चुनाव जीतकर दिल्ली पहुंचे तो उनकी इमेज एक फायर ब्रांड नेता की बन गई थी। सियासी गलियारों से लेकर ब्यूरोक्रेसी तक में पासवान को खास तवज्जो मिलने लगी। दिल्ली आने के बाद उन्होंने अपनी पहचान और मजबूत की। दलितों के मुद्दों को प्रमुखता से उठाते, हर मंच तक जाते।
2 साल बीतते-बीतते उन्होंने दिल्ली की सियासी रणभूमि में खुद को राष्ट्रीय नेता के तौर पर स्थापित कर लिया। साल 1980 के चुनाव में पासवान दोबारा जीते और संसद पहुंचे। यूं तो पासवान ने अपनी राजनीतिक पारी की शुरुआत इंदिरा गांधी की अगुवाई वाली कांग्रेस सरकार की मुखालफ़त कर की थी। इमरजेंसी में जेल भी गए और उनके मन में इंदिरा गांधी की छवि एक तानाशाह वाली थी, लेकिन जब संसद में इंदिरा गांधी से आमना-सामना हुआ और उन्हें नजदीक से जानने का मौका मिला तो पासवान के विचार बदल गए।
हाल ही में पेंगुइन प्रकाशन से आई पासवान की जीवनी “रामविलास पासवान: संकल्प, साहस और संघर्ष” में प्रदीप श्रीवास्तव ने उनकी निजी जिंदगी से जुड़े किस्सों से लेकर सियासी सफर तक को रोचक अंदाज में पेश किया है।
साल 1980 के चुनाव के चंद दिनों बाद ही रामविलास पासवान के संसदीय क्षेत्र हाजीपुर में कुछ दलितों की हत्या कर दी गई और दबंगों द्वारा उनकी प्रॉपर्टी कब्जा ली गई। मामला पासवान तक पहुंचा। उन्होंने फौरन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को पत्र लिख हस्तक्षेप की मांग की। इंदिरा गांधी ने तत्काल कदम उठाते हुए बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र को चिट्ठी लिख दी।
इंदिरा गांधी ने अपने पत्र में लिखा था ‘मैं अपने पत्र के साथ श्री रामविलास पासवान का पत्र संलग्न कर रही हूं। यह बेहद गंभीर मामला है। तत्काल इसकी जांच करवा कर मुझे सूचित करें। साथ ही मामले में क्या कार्रवाई की गई है, इससे पासवान को अवगत कराएं।’ इंदिरा गांधी की इस त्वरित प्रतिक्रिया से राम विलास पासवान बेहद प्रभावित हुए। उन्होंने इंदिरा गांधी द्वारा भेजे गए उस पत्र को कई सालों तक अपने पास संभाल कर रखा था।