स्वतंत्रता संग्राम के अमर नायक चंद्रशेखर आजाद मरते दम तक अंग्रेजों के हाथ नहीं आए थे। 27 फरवरी 1931 को जब इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में पुलिस ने चंद्रशेखर आजाद को घेर लिया तो उन्होंने अकेले ही मोर्चा संभालते हुए सीधी टक्कर ली थी। तीन तरफ से फायरिंग के चलते उनकी जांघ में गोली लग गई लेकिन उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के हाथों पकड़ा जाना स्वीकार नहीं किया और अपनी ही पिस्तौल से खुद को गोली मार ली थी।
23 जुलाई 1906 को झाबुआ जिले के भाबरा गांव में जन्में चंद्रशेखर आजाद ने भारत को स्वतंत्र करवाने के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिये थे। आजाद के निधन के बाद उनकी पिस्तौल को उस अंग्रेज अफसर (जॉन नॉट बावर) को गिफ्ट कर दिया गया था, जो उस मुठभेड़ में शामिल था। बीबीसी हिंदी की एक रिपोर्ट के मुताबिक जॉन नॉट बावर के रिटायर होने के बाद सरकार ने चंद्रशेखर आजाद की पिस्तौल उन्हें उपहार में दे दी थी और वो उसे अपने साथ लेकर इंग्लैंड चले गए।
बाद में इलाहाबाद के कमिश्नर मुस्तफी, जो बाद में लखनऊ विश्वविद्यालय के कुलपति भी हुए, उन्होंने बावर को पिस्तौल वापस लौटाने के लिए पत्र लिखा, लेकिन बावर ने उन्हें कोई जवाब नहीं दिया। इसके बाद लंदन में भारतीय उच्चायोग की कोशिशों के बाद बावर पिस्तौल इस शर्त पर लौटाने के लिए तैयार हुए कि भारत सरकार उनसे लिखित अनुरोध करे। सरकार ने जॉन नॉट बावर की शर्त मान ली, जिसके बाद 1972 में चंद्रशेखर आजाद की पिस्तौल वापस भारत लौटी।
चंद्रशेखर आजाद की पिस्तौल को 27 फरवरी 1973 को लखनऊ संग्रहालय में रखा गया था। लेकिन इलाहाबाद संग्रहालय बनने के बाद आजाद की पिस्तौल को वहां के एक विशेष कक्ष में रखा गया है।
पिस्तौल को नाम दिया था ‘बमतुल बुखारा’: चंद्रशेखर आजाद ने अपनी पिस्तौल को बमतुल बुखारा नाम दिया था। इसका निर्माण अमेरिकन फायर आर्म बनाने वाली कोल्ट्स मैन्युफैक्चरिंग कंपनी ने 1903 में किया था। ये प्वाइंट 32 बोर की हैमरलेस सेमी आटोमेटिक पिस्टल थी और इसमें आठ बुलेट की एक मैगजीन लगती थी। इसकी मारक क्षमता 25 से 30 यार्ड थी। इस पिस्तौल की खासियत यह है कि इसे चलाने पर धुआं नहीं निकलता था।