अमेरिका में अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ्लॉयड के निधन के बाद रंगभेद के खिलाफ शुरू हुआ विरोध सड़क से अब खेल के मैदान तक पहुंच गया है। फुटबॉल से लेकर क्रिकेट तक मैच शुरू होने से पहले या मैच के दौरान प्लेयर घुटनों के बल बैठकर विरोध जता रहे हैं। ऐसा नहीं है कि रंगभेद क्रिकेट के मैदान पर कभी नहीं हुआ है। 1993 में भारत में इंग्लैंड के खिलाड़ी के साथ ऐसा हुआ था। इतना ही नहीं उस मुकाबले में दर्शकों ने विनोद कांबली को गालियां भी दी थी। लेखक विनोद ग्रोवर उस मैच को देखने गए हुए थे। उन्होंने हमारे सहयोगी अखबार द इंडियन एक्सप्रेस में आंखों देखी बयां की।

वरुण ग्रोवर के मुताबिक, ‘‘1993 में लखनऊ के केडी सिंह बाबू स्टेडियम में इंडियन बोर्ड प्रेसिडेंट-11 और दौरे पर आई इंग्लैंड की टीम के बीच तीन दिवसीय अभ्यास मुकाबला था। मैच 8 जनवरी से 10 जनवरी तक खेला गया था। उस मैच में सभी विनोद कांबली को देखने के लिए गए थे। कांबली ने स्कूली क्रिकेट में सचिन के साथ रिकॉर्ड साझेदारी की थी। इंग्लैंड के खिलाफ सीरीज में उनका डेब्यू होना था। भारतीय टीम पहले बल्लेबाजी करने उतरी। 21 साल के कांबली बेहतरीन फॉर्म में थे। उन्होंने ताबड़तोड़ बल्लेबाजी की, लेकिन 61 रन के निजी स्कोर पर चोटिल होकर मैदान से बाहर जाने लगे।’’

ग्रोवर ने आगे लिखा, ‘‘जैसे ही कांबली पवेलियन की ओर चले स्टेडियम के एक स्टैंड से उन्हें दर्शक गालियां देने लगे। लोग उन्हें आलसी कहने लगे। इतना ही नहीं जाति का नाम लेकर गाली दे रहे थे। उस समय भारत में कांबली जैसे उभरते हुए सितारे के खिलाफ दर्शकों के इस रवैये ने सबको हैरान कर दिया। कांबली देश के सबसे बेहतरीन क्लब से आते थे। बाद में उन्होंने मुंबई में इंग्लैंड के तीसरे टेस्ट में दोहरा शतक भी जड़ा था।’’ कांबली ने भारत के लिए 17 टेस्ट में 54 की औसत से 1084 रन बनाए थे। 227 रन उनका उच्चतम स्कोर था। 104 वनडे में उन्होंने 32.6 की औसत से 2477 रन बनाए। टेस्ट में उनके नाम 4 और वनडे में 2 शतक है।

इतना ही नहीं उस मुकाबले में कांबली के अलावा इंग्लैंड के प्लेयर को भी नस्लभेद का शिकार होना पड़ा था। विनोद ग्रोवर ने लिखा, ‘‘जल्द ही हमने देखा कि इंग्लैंड से आए गुयाना-मूल के प्रसिद्ध तेज गेंदबाज क्रिस लुईस को दर्शकों के एक वर्ग द्वारा स्टैंड्स में गाली दी जा रही थी। उन्हें कालू कहा जा रहा था। यह एक तरह से नस्लीय टिप्पणी है। डार्क स्किन वाले लोगों का मजाक उड़ाना एक बुराई है, जो भारत में एक प्रकार से सांस्कृतिक गुण के तौर में सामने आया है। लेकिन मुझे अभी भी यह अजीब लगता है कि जिस खेल की हम सभी पूजा करते हैं, उसका एक अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी भी इससे अछूता नहीं रहा है।’’