गंभीर आर्थिक संकट से जूझ रहे पाकिस्तान ने हाल में सऊदी अरब के साथ एक ‘रणनीतिक पारस्परिक रक्षा’ समझौता किया है। इसके मुताबिक, दोनों देशों में से किसी पर भी अगर कोई हमला होता है, तो उसे दोनों के विरुद्ध आक्रमण माना जाएगा। यानी ऐसी स्थिति में दोनों एक-दूसरे का साथ देंगे। निश्चित तौर पर यह भारत के लिए चिंता का विषय है और माना जा रहा कि सरकार राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ-साथ क्षेत्रीय एवं वैश्विक स्थिरता पर इस समझौते के प्रभावों का अध्ययन करेगी।
यहां सवाल यह भी है कि क्या भारत से संबंधों को लेकर सऊदी अरब का नजरिया बदल गया है? अगर हाल-फिलहाल के घटनाक्रमों को देखें तो ऐसा कुछ नजर नहीं आता है। विदेश मंत्रालय का कहना है कि भारत और सऊदी अरब के बीच व्यापक रणनीतिक साझेदारी है, जो पिछले कुछ वर्षों में काफी प्रगाढ़ हुई है।
मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने का प्रयास
ताजा समझौता इस वर्ष मई में भारत और पाकिस्तान के बीच हुए सैन्य संघर्ष के चार महीने बाद हुआ है और इस दृष्टि से भारत की चिंता जायज है। पाकिस्तान के इस कदम को भारत पर रणनीतिक रूप से मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने के प्रयास के तौर पर भी देखा जा रहा है।
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मगर एक सच यह भी है कि पाकिस्तान वर्तमान में गंभीर आर्थिक संकट, महंगाई और बेरोजगारी समेत कई मोर्चे पर जूझ रहा है। ऐसे में सऊदी अरब के साथ समझौते का एक अहम मकसद वित्तीय मदद हासिल करना भी है। वहीं, सऊदी अरब के भी अपने तकाजे हैं। वह ईरान और इजरायल की तनातनी से उत्पन्न क्षेत्रीय अशांति के खतरों के विरुद्ध अपनी सुरक्षा मजबूत करना चाहता है।
कोई भी रक्षा सौदा तभी अर्थपूर्ण होता है जब वो दो बराबर की ताकतों के बीच होता है, लेकिन सऊदी अरब और पाकिस्तान के बीच समानता नहीं दिखती है। ऐसे में लगता है कि दोनों के उद्देश्य अलग-अलग हैं। हालांकि, सऊदी अरब आर्थिक मदद देकर पाकिस्तान को और मजबूत कर सकता है ताकि वह उसे सुरक्षा दे सके।
मुक्तदर खान, अमेरिका की डेलावेयर यूनिवर्सिटी में अंतरराष्ट्रीय संबंधों के प्रोफेसर
मगर भारत के संदर्भ में देखें तो सऊदी अरब यहां लंबे समय से रणनीतिक और आर्थिक संबंधों में निवेश करता रहा है। भारत, सऊदी अरब का दूसरा सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार देश है। मगर उसका नया रुख चौंकाने वाला है। जो भी हो, इस समझौते से उपजी किसी भी आशंका एवं संभावना को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता और भारत को सतर्क रहकर भविष्य के लिए अपनी रणनीतियां तय करनी होंगी।
भारत-सऊदी अरब संबंध
दोनों देशों के बीच राजनयिक संबंध 1947 में स्थापित हुए। 2006 में सऊदी किंग भारत आए थे और दोनों मुल्कों के बीच ‘दिल्ली घोषणापत्र’ पर हस्ताक्षर किए गए। इसके बाद 2010 में तत्कालीन प्रधानमंत्री डा मनमोहन सिंह सऊदी अरब की यात्रा पर गए और इस दौरान ‘रियाद घोषणापत्र’ पर हस्ताक्षर हुए। 2016 में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सऊदी अरब दौरे पर गए थे, उन्हें सऊदी अरब के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘किंग अब्दुलअजीज सैश’ से नवाजा गया था।
अगर व्यापार की बात करें तो, सऊदी अरब का दूसरा सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार भारत ही है। वहीं, सऊदी अरब भारत का पांचवां सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है। इंडियन काउंसिल आफ वर्ल्ड अफेयर्स में वरिष्ठ रीसर्च फेलो फज्जुर रहमान सिद्दीकी कहते हैं कि सऊदी मीडिया में इस समझौते को संयमित तरीके से पेश किया जा रहा है। वहां न तो भारत का जिक्र किया जा रहा है और न ही कोई दावा दिख रहा है। वह कहते हैं, पाकिस्तान की मीडिया में भारत के संदर्भ में बातें हो रही हैं।
पाकिस्तान और सऊदी अरब के बीच रक्षा समझौता कतर पर इजरायल के हमले के बाद हुआ है। इस हमले के बाद अब अमेरिका पर यहां के मुल्कों का भरोसा कम हो रहा है। सऊदी अरब भी यहां नए साझेदार खोज रहा है। उसके पास पैसा है लेकिन एक मजबूत सेना नहीं है। अमेरिका पर अब खाड़ी के देशों को भरोसा नहीं है।
फज्जुर रहमान सिद्दीकी इंडियन काउंसिल आफ वर्ल्ड अफेयर्स में वरिष्ठ रिसर्च फेलो
अमेरिका के रवैये के कारण हुआ समझौता?
अब तक अमेरिका ने कतर और सऊदी अरब जैसे देशों को सुरक्षा की गारंटी दी थी और इन देशों को लगता था कि अगर कभी इन पर हमला होगा तो अमेरिका इन्हें बचाने के लिए जरूर आएगा। लेकिन अमेरिका ने यहां भी इन देशों के साथ अपने इस भरोसा को तोड़ दिया और जब इजरायल ने नौ सितंबर को कतर पर हमला किया तो अमेरिका ने उसकी कोई मदद नहीं की और इसी बात ने मिडिल ईस्ट के मुस्लिम देशों को परेशान कर दिया और वो ये सोचने लगे कि अगर परमाणु संपन्न अमेरिका नहीं होगा तो वो किस देश से सुरक्षा की गारंटी का सौदा करेंगे। और इसी सवाल के बीच पाकिस्तान और सऊदी अरब के बीच रक्षा समझौता हुआ।
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