राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने हाल में अपनी स्थापना के सौ साल पूरे होने का जश्न मनाया है। इस अवसर पर, संघ ने अपनी पिछली उपलब्धियों पर चिंतन किया और अगले एक सौ वर्षों के लिए अपनी भावी योजनाओं को भी स्पष्ट किया। यह विश्व का सबसे बड़ा ऐसा संगठन बन गया है, जो सीधे तौर पर राजनीति में नहीं है, लेकिन उसका व्यापक असर है। देश भर में संघ की शाखाओं की संख्या 40,000 से बढ़कर 83,000 से ज्यादा हो गई है। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इसके कई ऐतिहासिक लक्ष्य – धारा 370 का उन्मूलन और राम मंदिर निर्माण – सड़क पर हुए आंदोलन से नहीं, बल्कि सरकारी कार्रवाई से पूरे हुए हैं, जो संघ और भाजपा के बीच सहज संवाद और समन्वय का संकेत है। संगठन अब पीढ़ीगत बदलाव के बीच आगे बढ़ाने का रास्ता निकालने की तैयारी में पारदर्शिता के साथ जुटा है। इसी विषय पर जायजा लेता सरोकार।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपनी स्थापना के सौ वर्ष पूरे कर लिए हैं। संघ अब विश्व का सबसे बड़ा ऐसा संगठन बन चुका है जो प्रत्यक्ष रूप से राजनीति में तो नहीं है, लेकिन दिशा तय करने में अहम भूमिका निभाता है। संघ के सदकेसरकार है देश में। यह संगठन अपने विरोधियों और समर्थकों, दोनों की सोच के केंद्र में है।

संघ का वर्तमान नेतृत्व- मोहन भागवत और उनके निकटतम सहयोगी दत्तात्रेय होसबाले- ‘निरंतर विकास’ के सिद्धांत में दृढ़ विश्वास रखते हैं। भागवत ने कई बार कहा है कि संघ में सब कुछ परिवर्तनशील है, सिवाय इस मूलभूत विश्वास के कि भारत हिंदू राष्ट्र है। होसबाले ने इसे मूल सिद्धांतों से समझौता किए बिना विकास का प्रकटीकरण कहा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में अरुण कुमार सह-सरकार्यवाह के पद पर हैं।

यह पद संघ के प्रमुख कार्यों और निर्णय लेने की प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। उन्हें अक्सर संघ और भारतीय जनता पार्टी के बीच समन्वय स्थापित करने वाली कड़ी के रूप में भी देखा जाता है, जो राजनीतिक और संगठनात्मक मामलों पर बातचीत करते हैं। संघ के प्रचारक रहे बीएल संतोष भाजपा के महासचिव हैं। यह पद भाजपा और संघ के बीच एक प्रमुख कड़ी के रूप में कार्य करता है।

दरअसल, संघ ने कभी खुद को केवल धार्मिक, सांस्कृतिक या सामाजिक संगठन के ढांचे तक सीमित नहीं रखा। यह लगभग हर जगह मौजूद रहा है। सार्वजनिक जीवन के हर क्षेत्र में, संघ ने अपने समानांतर संगठन स्थापित किए। साथ ही, इसने अपनी मजबूती भी सुनिश्चित की।

संघ एक पंजीकृत संगठन नहीं है। इसका राजनीतिक प्रभाव व्यापक है। संघ का कहना है कि वह आत्मनिर्भर संगठन है और इसके काम के लिए संगठन के बाहर से कोई पैसा नहीं लिया जाता। उसके स्वयंसेवक समाज सेवा की गतिविधियां करते रहे हैं। सामाजिक कार्यों के लिए स्वयंसेवकों ने ट्रस्ट बनाए हैं, जो कानून के दायरे में रहकर पैसा इकठ्ठा करते हैं और बैंक खाते चलाते हैं।

वर्ष 1925 में, केशव बलिराम हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की। धीरे-धीरे शाखा की परिकल्पना सामने आई। 28 मई, 1926 को नागपुर के मोहिते वाडा में, 15-20 युवकों का एक समूह एक मैदान में इकट्ठा हुआ। वे खाकी वर्दी पहने, पंक्तियों में खड़े थे और अनुशासित एकता में ऐसे अभ्यास कर रहे थे, जो देश में सत्याग्रह और विरोध की राजनीति के लिए अपरिचित थे। इस नवोदित प्रयोग के केंद्र में हेडगेवार थे, जो गांधीवादी आदर्शवाद और क्रांतिकारी राष्ट्रवाद दोनों से प्रभावित थे, लेकिन उनका मानना था कि भारत की असली समस्या कहीं और है। वह है, हिंदुओं की फूट और कमजोरी।

एक सदी बाद अब संघ भारत की सबसे शक्तिशाली ताकतों में से एक है, जिसकी बड़ी राजनीतिक ताकत है। दशकों के संदेह, प्रतिबंधों और हाशिए पर होने के दौर से होते हुए सत्तारूढ़ व्यवस्था के वैचारिक केंद्र के रूप में वर्तमान भूमिका तक, संघ का सफर उल्लेखनीय रहा है।

बाल गंगाधर तिलक से प्रेरित और अनुशीलन समिति से जुड़े एक चिकित्सक के रूप में हेडगेवार उत्साही कांग्रेसी कार्यकर्ता थे। गांधीजी के असहयोग आंदोलन के दौरान उन्होंने गिरफ्तारी भी दी थी। लेकिन खिलाफत आंदोलन के प्रति महात्मा गांधी के समर्थन और हिंदू-मुसलिम एकता पर कांग्रेस के जोर देने से वे निराश हुए। ‘डा हेडगेवार, परिचय एवं व्यक्तित्व में’, सीपी भिशीकर ने लिखा है, ‘मुसलमानों को जरूरत से ज्यादा सहयोग देने की गांधीजी की नीति डाक्टर साहब को स्वीकार्य नहीं थी। उन्होंने यह बात गांधी जी को भी बताई।’

भिशीकर के मुताबिक, हेडगेवार इस निष्कर्ष पर पहुंचे, ‘अगर अलगाववाद का रास्ता अपनाने वाले कट्टरपंथी मुसलमानों और उनके भड़काने वाले अंग्रेजों का सफलतापूर्वक मुकाबला करना है, तो इसका एकमात्र उपाय यह है कि हिंदू समाज, जो (भारत का) असली राष्ट्रीय समाज है, संगठित हो।’ विद्वान वाल्टर के एंडरसन और श्रीधर दामले ने ‘द ब्रदरहुड इन सैफ्रन’ (1987) में लिखा है, ‘हेडगेवार ने एक प्रशिक्षण प्रणाली तैयार की, जिसका उद्देश्य ऐसा भाईचारा स्थापित करना था जो समुदाय की भावना की खोज में संकीर्ण विरोध और सामाजिक अव्यवस्था से ऊपर उठ सके।’

हेडगेवार के नवाचारों में ऐसी भर्ती रणनीति बनाना शामिल था जो राजनीतिक अभिजात वर्ग से संरक्षण प्राप्त करने के बजाय, शिक्षित मध्यम वर्ग को ध्यान में रखती थी। हेडगेवार ने संगठन के भावी नेतृत्व को भी तैयार किया। 1940 में हेडगेवार के निधन के बाद उनके उत्तराधिकारी माधव सदाशिव गोलवलकर ने संगठन को राष्ट्रीय शक्ति में बदल दिया। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में प्राणीशास्त्र के व्याख्याता गोलवलकर, या गुरुजी, मात्र 34 वर्ष की आयु में संघ के प्रमुख बन गए। उनकी रचनाओं ‘वी आर अवर नेशनहुड डिफाइंड’ (1939) और ‘बंच आफ थाट्स’ (1966) ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को बौद्धिक आधार प्रदान किया।

गोलवलकर के नेतृत्व में, संघ केवल कुछ राज्यों में शाखाओं से बढ़कर अखिल भारतीय स्तर पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में सफल रहा। उन्होंने अविवाहित, पूर्णकालिक मिशनरियों की प्रचारक प्रणाली को देखा-समझा। यह प्रणाली संघ की रीढ़ बन गई। 1973 तक, इस प्रणाली ने ऐसे नेताओं को जन्म दिया जो आगे चलकर भारतीय राजनीति में प्रमुख पदों पर आसीन हुए, जिनमें अटल बिहारी वाजपेयी और बाद में नरेंद्र मोदी के नाम उल्लेखनीय हैं।

अनिवार्य अनुशासन ने संगठन को मजबूत किया। संघ ने कई सहयोगी संगठनों को जन्म दिया, जिनमें भारतीय जनसंघ भी शामिल था, जो सीधे राजनीति से जुड़ा था। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी), वनवासी कल्याण आश्रम, भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस), विश्व हिंदू परिषद (विहिप) और भारतीय शिक्षण मंडल (बीएसएम) जैसे अन्य सहयोगी संगठनों ने आकार लिया। इन सभी ने संघ की पहुंच नए सामाजिक क्षेत्रों तक बढ़ाई।

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अगला निर्णायक बदलाव मधुकर दत्तात्रेय देवरस उर्फ बालासाहेब देवरस के नेतृत्व में आया, जिन्होंने 1973 में कार्यभार संभाला। तब तक, संघ ने मोटे तौर पर राजनीतिक अलगाव बनाए रखा था। लेकिन आपातकाल (1975-77) ने सब कुछ बदल दिया। पहली बार, संघ ने खुद को एक राजनीतिक आंदोलन में झोंका। जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में शामिल होकर संघ मुख्यधारा में आ गया। प्रभाव ऐसा रहा कि तब विपक्ष का चेहरा रहे जयप्रकाश नारायण ने खुद यह प्रसिद्ध घोषणा की थी, ‘अगर आरएसएस फासीवादी है, तो मैं भी फासीवादी हूं।’

आपातकाल ने संघ के सत्ता के साथ पहले रिश्ते का सूत्रपात किया जनसंघ के माध्यम से, जो जनता पार्टी सरकार का हिस्सा था। 1980 तक देवरस ने जनसंघ को भंग कर दिया और भारतीय जनता पार्टी का गठन कर लिया। वैचारिक रूप से, देवरस ने हिंदुत्व की अपील को व्यापक बनाया। 1974 में उन्होंने घोषणा की- ‘अस्पृश्यता को जड़ से समाप्त कर देना चाहिए।’ देवरस के दौर में संघ नागरिक राष्ट्रवाद की ओर उन्मुख हुआ। संविधानवाद, लोकतंत्र और सामाजिक कल्याण को भी इसमें शामिल किया गया। साथ ही, संघ ने विश्व हिंदू परिषद के जरिए शक्तिशाली और लोकप्रिय हिंदू प्रतीक की तलाश की – जो उन्हें भगवान राम में मिला। इसने एक ऐसे आंदोलन को गति दी, जिसकी परिणति में भारतीय राजनीति में आमूल-चूल परिवर्तन आया।

वर्ष 1994 में राजेंद्र सिंह यानी रज्जू भैया ने संघ के प्रमुख का पदभार संभाला। परमाणु भौतिक विज्ञानी और प्रोफेसर सिंह ने संघ में पारदर्शिता को संस्थागत रूप दिया, लिखित रपट और काम के सांख्यिकीय विवरण की परिपाटी लागू की। पत्रकारों और बुद्धिजीवियों से संपर्क साघा। रज्जू भैया ने कल्याण सिंह, राजनाथ सिंह, अशोक सिंघल, उमा भारती, केएन गोविंदाचार्य और मोहन भागवत जैसे नेताओं की एक पीढ़ी को मार्गदर्शन दिया। विभिन्न दलों के नेताओं के साथ उनके तालमेल ने वाजपेयी सरकार को गठबंधन की राजनीति में राहत दी।

उनका कार्यकाल भाजपा के सत्ता में आने के पहले दौर के साथ ही शुरू हुआ। 1998 के परमाणु परीक्षण ने नीतिगत मुद्दों पर संघ की बढ़ती छाप को रेखांकित किया। रज्जू भैया के नेतृत्व में संघ अब परदे के पीछे नहीं रहा – बल्कि सत्ता प्रतिष्ठान के साथ संवाद में था। हालांकि उनके उत्तराधिकारी केएस सुदर्शन को पुरानी नीतियां भा रही थीं। वर्ष 2000 में कार्यभार संभालने के बाद, सुदर्शन अडिग और वैचारिक रूप से दृढ़ थे। उन्होंने वैश्वीकरण, विनिवेश और विदेशी पूंजी का विरोध किया और स्वदेशी पर अपना ध्यान केंद्रित किया।

वाजपेयी सरकार के साथ प्रतिदिन टकराव होता रहता था। इनमें सुदर्शन द्वारा कैबिनेट की नियुक्ति को प्रभावित करने के लिए अंतिम समय में हस्तक्षेप करना, भारतीय मजदूर संघ और स्वदेशी जागरण मंच के द्वारा सरकार की आर्थिक नीतियों पर प्रतिदिन हमला, यह घोषणा करना कि भारतीय संविधान को ब्रिटिश मूल्यों पर आधारित होने के कारण खारिज कर दिया जाना चाहिए, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारक गोविंदाचार्य द्वारा वाजपेयी को मुखौटा कहना और अंतत: 2005 में सुदर्शन द्वारा यह घोषणा करना शामिल था कि वाजपेयी और आडवाणी को युवा नेतृत्व के लिए रास्ता बनाना चाहिए। वर्ष 2009 में मोहन भागवत संघ प्रमुख बने। वे गोलवलकर के बाद सबसे युवा नेताओं में से एक थे। उनके कार्यकाल में संघ को सबसे बड़ी राजनीतिक विजय मिली, नरेंद्र मोदी का उदय हुआ और केंद्र की सत्ता में भाजपा पूर्ण प्रभुत्व में आई।

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भागवत ने संघ के स्वरूप को आधुनिक बनाया है। उन्होंने बदलाव और जरूरत को देखते हुए कई कदम उठाए। मसलन, गोलवलकर के लेखन के पुराने अंशों से दूरी बनाना, मनुस्मृति के जातिवादी अंशों को खारिज करना, एलजीबीटी अधिकारों को मान्यता देना, हिंदुओं से हर मस्जिद के नीचे शिवलिंग न ढूंढ़ने का आग्रह करना (काशी और मथुरा को छोड़कर), पुरुष-प्रधान संघ में महिलाओं की भागीदारी की अपील करना, और जातिगत भेदभाव के विरुद्ध सामाजिक समरसता कार्यक्रम शुरू करना। उन्होंने अगस्त 2025 की अपनी व्याख्यान शृृंंखला में कहा, ‘हिंदुस्तान का हिंदू राष्ट्र होना संघ का स्थिर मत है, लेकिन वह अन्य सभी विषयों पर अपने विचारों को संशोधित करने के लिए तैयार है।’

उनके नेतृत्व में, देश भर में संघ की शाखाओं की संख्या 40,000 से बढ़कर 83,000 से ज्यादा हो गई है। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इसके कई ऐतिहासिक लक्ष्य – धारा 370 का उन्मूलन और राम मंदिर निर्माण – सड़क पर हुए आंदोलन से नहीं, बल्कि सरकारी कार्रवाई से पूरे हुए हैं, जो संघ और भाजपा में सहज संवाद और समन्वय का संकेत है।

भागवत अब संगठन को पीढ़ीगत बदलाव के बीच आगे बढ़ाने का रास्ता निकालने की तैयारियों में जुटे हैं। हिंदी पट्टी में व्याप्त हिंदुत्ववादी आख्यान ने हिंदू हित के कई असंबद्ध ध्वजवाहकों को जन्म दिया है। जैसे-जैसे संघ भारतीय राजनीति पर हावी होता जा रहा है, भागवत के लिए ऐसी ताकतों पर लगाम लगाना एक चुनौती होगी।

इस साल मोहन भागवत की व्याख्यान शृंखला ने संगठन के विचार और संस्कृति में आ रहे परिवर्तन को स्पष्ट रूप से चित्रित किया है। पिछले 25 वर्षों में भागवत का सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान – पहले सरकार्यवाह के रूप में और फिर सरसंघचालक के रूप में – संगठनात्मक गतिविधि में अधिक खुलापन लाना रहा है।

आज संघ का 90 फीसद हिस्सा शाखा से बाहर का है। इसके लिए व्यापक समाज के साथ अधिक जुड़ाव और सामंजस्य की आवश्यकता है, एक ऐसी आवश्यकता जिसे भागवत ने पूरी लगन से समझा और कार्यान्वित किया। देवरस और बाद में केएस सुदर्शन जैसे नेता मुसलिम और ईसाई नेताओं से मिलते थे। भागवत ने इसे औपचारिक और अनौपचारिक मुलाकातों के माध्यम से आगे बढ़ाया। भागवत का भारत के लिए दृष्टिकोण संघ के 21वीं सदी के विस्तार को दर्शाता है। अपनी शताब्दी के अवसर पर जब यह संगठन राष्ट्रीय मंच पर केंद्र में है, इसकी आवाज आत्मविश्वास से भरी है और इसका दृष्टिकोण सभी 1.45 अरब भारतीयों को शामिल करने के लिए विस्तृत हो रहा है।