रेवड़ी संस्कृति देश की राजनीति के केंद्र में आ चुकी है। दक्षिण भारत से शुरू हुई इस प्रथा को अरविंद केजरीवाल ने नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया। इसका बाद में दूसरे दलों ने अनुसरण किया। एक ओर अर्थशास्त्री और नीति विशेषज्ञ इस प्रथा की आलोचना करते हैं, तो दूसरी ओर कई नेता मतदाताओं के लिए मुफ्त चीजों की वकालत करते हैं। चुनाव में मुफ्त सुविधाओं के वादे और चुनाव अक्सर इस मायने में जुड़े होते हैं कि राजनीतिक दल अपने घोषणापत्रों में इसका वादा करते हैं, और सत्ताधारी दल अक्सर चुनाव से ठीक पहले उन्हें बांट देते हैं।

दीर्घकालिक दृष्टिकोण से यह जीवन की अच्छी गुणवत्ता से समझौता है, क्योंकि मुफ्त उपहारों की संस्कृति स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा, बुनियादी ढांचे, अनुसंधान एवं विकास आदि जैसी अन्य जरूरी आवश्यकताओं पर कम पूंजीगत व्यय को दर्शाती है। साथ ही, यह बजटीय संकट को भी जन्म देती है।

2019 में, दिल्ली स्थित एक गैर-सरकारी संगठन, एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक रिफार्म्स द्वारा भारत के 543 संसदीय क्षेत्रों में एक सर्वेक्षण किया गया था। उस सर्वेक्षण के अनुसार, 42 फीसद से अधिक मतदाता किसी विशेष उम्मीदवार को वोट देने के पीछे उम्मीदवार की कल्याणकारी योजनाओं के बजाय नकदी, शराब और मुफ्त उपहारों के वितरण को एक महत्त्वपूर्ण कारण मानते हैं।

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सरकार के राजस्व का एक बड़ा हिस्सा प्रत्यक्ष और परोक्ष करों से आता है, जिनसे सरकार को लिए गए ऋणों पर ब्याज, रक्षा, अनावर्ती व्यय, सरकारी कर्मचारियों के वेतन, सबसिडी और जनता के लिए स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा जैसी योजनाओं का भुगतान करने में मदद मिलती है। ये योजनाएं तय होती हैं और सरकार के कुल व्यय का एक हिस्सा इन पर खर्च होता है।

जानकार कहते हैं कि सबसिडी जनता के लिए भोजन, गैस और शिक्षा जैसी कुछ आवश्यक वस्तुओं पर दी जाने वाली छूट है। राज्यों को सबसिडी पर अपने खर्च के बारे में सतर्क रहने की आवश्यकता है। यदि वे अपने राजस्व का एक बड़ा हिस्सा मुफ्त सुविधाओं पर खर्च करते हैं, तो राज्य के कल्याण पर खर्च करने के लिए उनके पास कम धन बचेगा।

मुफ्त सुविधाओं की घोषणा करने की आवश्यकता तब पड़ती है जब नेता बिना किसी घोषणापत्र के अपना चुनाव अभियान शुरू करते हैं, इसलिए मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए वे मुफ्त सुविधाओं का वादा करते हैं। जानकारों के मुताबिक हर चीज की एक कीमत होती है और कुछ भी मुफ्त नहीं हो सकता क्योंकि किसी को मुफ्त वस्तु के लिए भुगतान करना पड़ता है। सरकार राजस्व से भुगतान कर रही है। ऐसा सरकारी व्यय उसके राजकोषीय घाटे को बढ़ाता है। 2006 और 2011 के तमिलनाडु विधानसभा चुनावों के दौरान, कुछ राजनीतिक दलों ने अपने चुनावी घोषणापत्र में रंगीन टेलीविजन, मिक्सी, बिजली के पंखे, लैपटाप आदि मुफ्त वितरण की योजना की घोषणा की थी।

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मद्रास उच्च न्यायालय के वकील एस सुब्रमण्यम बालाजी ने 2013 में चुनाव आयोग के खिलाफ एक याचिका दायर की थी। उनके अनुसार, पार्टियों के घोषणापत्रों में शामिल मुफ्त उपहार चुनावी अपराध थे। साथ ही, उन्होंने कहा कि ऐसी प्रथाएं संवैधानिक प्रावधानों के विरुद्ध हैं। उनका मुख्य तर्क यह था कि चुनावी घोषणापत्र में गैर-जरूरी वस्तुओं के मुफ्त वितरण का वादा जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 123 के तहत चुनावी रिश्वत के समान है।

इसलिए, उन्होंने मद्रास उच्च न्यायालय में यह कहते हुए इन योजनाओं को चुनौती दी कि राज्य द्वारा सरकारी खजाने से किया जाने वाला खर्च अनधिकृत, अनुचित और संवैधानिक आदेशों के विरुद्ध है। अंत में, न्यायालय ने कहा कि मुफ्त उपहार असमान खेल का मैदान बनाते हैं।

दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की विपक्ष द्वारा आलोचना की जाती रही कि वे बजट अधिशेष का एक निश्चित हिस्सा मुफ्त और सबसिडी वाली बिजली, पानी और महिलाओं के लिए मुफ्त बस के सफर के रूप में सुविधाएं देने में खर्च कर रहे हैं। विपक्षी दलों के नेताओं ने पंजाब चुनावों के लिए आप के घोषणापत्र पर भी सवाल उठाए, क्योंकि इसमें हर महीने 300 यूनिट मुफ्त बिजली देने की बात शामिल थी।

दिल्ली में हर महीने औसतन 47 लाख उपभोक्ताओं को बिजली सबसिडी का लाभ मिलता था, जिसमें 30 लाख उपभोक्ताओं को कुछ भी नहीं देना होता था और 17 लाख को 50 फीसद सबसिडी मिलती थी, जिसकी अधिकतम सीमा 800 रुपए थी। जब पंजाब में आम आदमी पार्टी सत्ता में आई, तो अपने वादों को पूरा करने के लिए बिजली सबसिडी नीति लेकर आई। इससे राज्य के खजाने पर कुल राजस्व का 16 फीसद से ज्यादा बोझ पड़ा।