दो दशक पहले शुरू किए गए महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) को बदलने के लिए लोकसभा और राज्यसभा में पेश किया गया विकसित भारत-रोजगार और आजीविका मिशन (ग्रामीण) गारंटी या वीबी-जी राम जी विधेयक को संसद ने पारित कर दिया। इस विधेयक का विपक्ष ने पुरजोर विरोध किया। उसने दलील दी कि यह मजदूर, किसान और गरीब विरोधी है और इसका नाम बदलकर महात्मा गांधी का अपमान किया गया है। वहीं, सरकार ने कहा कि नया विधेयक महात्मा गांधी के सपनों के अनुरूप है और इसमें रोजगार के दिनों की संख्या बढ़ाकर 125 कर दी गई है। पुरानी योजना भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गई थी और नई योजना विकसित भारत के मुताबिक है। इस योजना से ग्रामीण भारत तेजी से विकास करेगा। वीबी जी राम जी विधेयक की चिंताजनक एक बात राज्यों से जुड़ी है। उन्हें इस योजना का 40 फीसद खर्च वहन करना होगा। मुद्दे पर सरोकार की पड़ताल

सिर्फ नाम नहीं काम और दाम के ढांचे में भी बदलाव अब राज्यों पर आर्थिक बोझ बढ़ने का अंदेशा

नए विधेयक के जरिए सिर्फ मनरेगा का नाम ही नहीं बदला गया है, बल्कि इसके मूल स्वरूप को भी बदल दिया गया है। जानकार मानते हैं कि केंद्र में भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार ने नई रोजगार योजना के जरिए केंद्रीकरण का मजबूत बना दिया गया है जबकि 20 साल पुरानी योजना लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण को महत्त्व देती थी। साथ ही उसमें गांधी के नाम का उपयोग उनके ग्राम स्वराज की अवधारणा से जुड़ाव को दर्शाता था। नया पारित विधेयक केंद्र सरकार को वस्तुत: एकमात्र निर्णयकर्ता बनाकर, ग्राम स्वराज और विकेंद्रीकरण की दिशा में कोई सकारात्मक योगदान नहीं देगा।

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सरकार के समर्थकों का कहना है कि सालाना काम के दिनों की संख्या बढ़ाकर 125 करना ग्रामीण भारत के लोगों के लिए एक बड़ा लाभ है। सरकार की दलील है कि मनरेगा के तहत परिवारों को दिए गए रोजगार के आंकड़ों से साफ है कि कोविड-19 महामारी के वर्ष 2020-21 में केवल 9.5 फीसद (लगभग 72 लाख) परिवारों ने वास्तव में 100 दिन काम किया। दो वर्षों में, केवल सात फीसद परिवार ही पूरा कोटा प्राप्त कर सके।

वीबी-जी राम जी को केंद्र प्रायोजित योजना घोषित करके केंद्र सरकार ने मनरेगा जैसा प्राप्त विशेष दर्जा समाप्त कर दिया है। इसके तहत सरकार अकुशल शारीरिक श्रम के लिए मजदूरी भुगतान की पूरी लागत वहन करती थी। प्रस्तावित योजना में केंद्र और राज्यों के बीच निधि बंटवारे का अनुपात आम तौर पर 60:40 होगा। बंद हो रही योजना का एक लाभ यह था कि ग्रामीण रोजगार में पारिश्रमिक में तेजी से वृद्धि हुई थी। नई योजना में बड़ा आर्थिक बोझराज्यों को उठाना पड़ेगा। कई राज्यों की वित्तीय स्थिति मजबूत नहीं है और जीएसटी के पुनर्गठन ने उनकी आमदनी को और घटा दिया है।

इसके अलावा, जब प्रत्यक्ष नकद हस्तांतरण योजनाओं को तेजी से राजनीतिक बदलाव के रूप में देखा जा रहा है, तो यह साफ है कि बहुत कम राज्य इस नई योजना में भाग लेने के इच्छुक होंगे। इससे भी महत्त्वपूर्ण यह है कि मौजूदा कानून का मूल तत्त्व-जमीनी स्तर की मांग आधारित योजना को ही हटा दिया गया है। प्रस्तावित नया विधेयक आपूर्ति आधारित है, जिसमें केंद्र सरकार द्वारा तय की गई सीमा के भीतर आबंटन किया जाएगा। साथ ही, राज्यों को किसी भी अतिरिक्त व्यय को वहन करना होगा। तमिलनाडु और केरल ने राज्यों के हितों को नुकसान पहुंचाने का हवाला देते हुए विधेयक का विरोध किया है। नए विधेयक का एक प्रावधान, जिसका उद्देश्य बुआई/कटाई के दौरान कृषि कार्यों में बाधा न आने देना है, राज्यों से परामर्श के बाद मनरेगा में स्पष्ट रूप से शामिल किया जा सकता था।

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नए विधेयक में ग्रामीण परिवारों के लिए प्रति वित्तीय वर्ष गारंटीकृत रोजगार को 100 दिनों से बढ़ाकर 125 दिन करने का प्रस्ताव है। लेकिन यही एकमात्र अंतर नहीं है। यह अंतर प्रस्तावित विधेयक में महात्मा गांधी के नाम के न होने तक ही सीमित नहीं है, जिसकी राहुल गांधी और प्रियंका गांधी जैसे कांग्रेस नेताओं ने आलोचना की है। सरकार का कहना है कि नया विधेयक विकसित भारत 2047 के दृष्टिकोण के अनुरूप है, वहीं विपक्ष का तर्क है कि नया विधेयक मनरेगा के अधिकार-आधारित मूल सिद्धांतों को कमजोर करता है। यह निर्णय लेने की प्रक्रिया को केंद्रीकृत करता है और श्रमिकों के अधिकारों को कमजोर करता है। विधेयक पारित होने के बाद भारत के ग्रामीण रोजगार ढांचे में क्या बदलाव आएंगे, इसे आसानी से और स्पष्ट रूप से समझने के लिए यहां प्रमुख अंतर बताए गए हैं।

वीबी-जी राम जी से गारंटी कार्यदिवस बढ़ेंगे

वीबी-जी राम जी विधेयक में सबसे प्रमुख बिंदुओं में से एक ग्रामीण परिवारों के लिए वित्तीय वर्ष में गारंटी रोजगार को 100 दिन से बढ़ाकर 125 दिन करना है। कागजों पर, यह लाभ का विस्तार और इस बात की स्वीकृति प्रतीत होती है कि मनरेगा के तहत 100 दिन की सीमा अक्सर न्यूनतम गारंटी के बजाय एक कठोर सीमा के रूप में कार्य करती थी।

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सत्ता पक्ष के विधेयक समर्थकों का तर्क है कि यह सुधार लंबे समय से चली आ रही कमियों को दूर करता है, विशेष रूप से कमजोर समूहों के लिए, और वन क्षेत्रों में या सूखे के दौरान अनुसूचित जनजाति परिवारों के लिए अतिरिक्त दिनों जैसी पिछली छूटों पर आधारित है। सरकार का यह भी दावा है कि संशोधित संरचना से काम की पूवार्नुमान क्षमता और योजना में सुधार होगा। हालांकि, आलोचकों का कहना है कि मनरेगा की ताकत केवल दिनों की संख्या में ही नहीं, बल्कि काम मांगने के अधिकार में निहित थी। उनका तर्क है कि नए ढांचे के तहत, गारंटीकृत दिन गारंटीकृत पहुंच में तब्दील नहीं हो सकते, क्योंकि रोजगार श्रमिकों की मांग के बजाय पूर्व अनुमोदित योजनाओं से जुड़ा हुआ है। विपक्षी नेताओं ने चेताया है कि कार्यदिवसों की संख्या के बारे में अधिक संख्यात्मक वादा करने से वास्तविक कार्यदिवसों की संख्या कम हो सकती है।

पूर्ण केंद्रीय वित्त पोषण से बदलाव का प्रतीक है

वीबी-जी राम जी योजना के अंतर्गत एक महत्त्वपूर्ण संरचनात्मक परिवर्तन केंद्र और राज्यों के बीच साझा वित्त पोषण की शुरुआत है। मनरेगा में, मजदूरी का घटक पूरी तरह से केंद्र से वित्तपोषित था। इससे एकरूपता सुनिश्चित हुई और राज्यों पर वित्तीय बोझ कम हुआ।

नया विधेयक मनरेगा माडल से अलग है। इसमें राज्यों को निधि का अधिक हिस्सा देना अनिवार्य है। इसमें केंद्र और राज्य के बीच 60:40 के अनुपात में निधि विभाजन का प्रस्ताव है, जो केंद्र-प्रधान 90:10 (पूर्वोत्तर, हिमालयी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के लिए) और 75:25 माडल से अलग है। सरकार का तर्क है कि इससे सहकारी संघवाद को बढ़ावा मिलेगा और स्थानीय विकास प्राथमिकताओं के साथ बेहतर तालमेल स्थापित होगा। सरकार का कहना है कि राज्यों को योजना के परिणामों पर अधिक स्वामित्व प्राप्त होगा।

विपक्षी दलों ने इसका विरोध करते हुए कहा कि इससे वित्तीय सहायता के बिना ही सारी जिम्मेदारी राज्यों पर आ जाएगी। उन्होंने चेतावनी दी कि गरीब राज्यों को निधि की आवश्यकताओं को पूरा करने में कठिनाई हो सकती है। इससे असमान कार्यान्वयन और वेतन भुगतान में देरी हो सकती है। आलोचकों ने यह भी कहा कि इससे ग्रामीण संकट और बढ़ेगा व केंद्र को वितरण पर अधिक नियंत्रण मिलेगा, जबकि उसकी अपनी देनदारियां सीमित हो जाएंगी। न केवल विपक्षी दलों ने, बल्कि भाजपा की प्रमुख सहयोगी और आंध्र प्रदेश में सत्ताधारी तेलगु देशम पार्टी के सदस्यों ने भी प्रस्तावित विधेयक के बारे में चिंता व्यक्त की।

कृषि माह के दौरान विराम का प्रस्ताव

पहली बार, रोजगार विधेयक में एक प्रावधान शामिल किया गया है। इसके तहत बुआई और कटाई के व्यस्त समय में ग्रामीण क्षेत्रों में 60 दिनों तक रोजगार को स्थगित किया जा सकता है। इसका घोषित उद्देश्य कृषि श्रमिकों की पर्याप्त उपलब्धता सुनिश्चित करना और महत्त्वपूर्ण कृषि अवधियों के दौरान श्रम की कमी को लेकर किसानों की शिकायतों को हल करना है।

सरकार का तर्क है कि इससे ग्रामीण रोजगार और कृषि उत्पादकता में संतुलन बना रहेगा। पहले भी इसी तरह की चिंताएं उठाई गई हैं, और कुछ नीति निमार्ताओं ने व्यस्त समय के दौरान मनरेगा के काम पर प्रतिबंध लगाने की मांग की थी। आलोचकों का तर्क है कि इस तरह का व्यापक प्रतिबंध लचीलेपन को कमजोर करेगा और क्षेत्रीय विविधताओं की अनदेखी करेगा। जानकारों के अनुसार मनरेगा की मांग ऐतिहासिक रूप से कृषि चक्रों के आधार पर घटती-बढ़ती रही है, और श्रमिक तब खेती का काम चुनते हैं, जब मजदूरी अधिक होती है। उनका कहना है कि अनिवार्य रोक से श्रमिकों के विकल्प और सौदेबाजी की शक्ति कम हो जाती है, न कि श्रम बाजार की वास्तविक समस्याओं का समाधान होता है।

नई योजना आपूर्ति, जबकि मनरेगा मांग आधारित

मनरेगा को वैश्विक स्तर पर इसकी मांग आधारित और अधिकार आधारित संरचना के लिए मान्यता प्राप्त थी। इससे ग्रामीण परिवारों को आवश्यकता पड़ने पर काम ढूंढने और रोजगार न मिलने पर मुआवजा पाने की सुविधा मिलती थी। वीबी-जी राम जी विधेयक इस सिद्धांत से एक विचलन का प्रतीक है। नई प्रणाली के तहत, पूर्व अनुमोदित ग्राम पंचायत योजनाओं के माध्यम से रोजगार सृजित किया जाएगा। इन योजनाओं को प्रखंड, जिला और राज्य स्तर पर समेकित किया जाता है और राष्ट्रीय अवसंरचना ढांचे में एकीकृत किया जाता है। सरकार ने कहा कि इससे कार्यकुशलता, परिसंपत्ति सृजन और राष्ट्रीय अवसंरचना लक्ष्यों के साथ तालमेल में सुधार होगा।

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VB-G RAM G

आलोचकों का तर्क है कि इससे ग्रामीण रोजगार का स्वरूप पूरी तरह बदल जाएगा और यह नौकरशाही नियोजन पर निर्भर आपूर्ति आधारित कार्यक्रम बन जाता है। उन्होंने चेतावनी दी कि नई योजना कार्य के कानूनी अधिकार को कमजोर करता है और निर्णय लेने की प्रक्रिया को केंद्रीकृत करता है। इससे स्थानीय स्वायत्तता और श्रमिकों की सक्रियता कम हो जाती है।

देश में, काम करने का अधिकार मुख्य रूप से भारतीय संविधान के अनुच्छेद 41 के तहत राज्य नीति के एक निर्देशक सिद्धांत के रूप में व्यक्त किया गया है, जो राज्य को नागरिकों के लिए रोजगार सुनिश्चित करने का मार्गदर्शन करता है। साथ ही, इसे मनरेगा जैसे कानूनों के माध्यम से व्यावहारिक रूप दिया गया है। यह ग्रामीण क्षेत्रों में मजदूरी आधारित रोजगार की गारंटी देता है। इसके अलावा, न्यायपालिका ने अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार की व्याख्या में आजीविका के अधिकार को शामिल किया है। इससे संवैधानिक व्याख्या के माध्यम से काम करने के अधिकार को सुदृढ़ किया गया है।

दायरे को सीमित करना

नई योजना अनुमत कार्यों के दायरे को जल सुरक्षा, मुख्य ग्रामीण अवसंरचना, आजीविका से संबंधित परिसंपत्तियों और जलवायु लचीलेपन सहित चार क्षेत्रों तक सीमित करती है। हालांकि इसका उद्देश्य दीर्घकालिक विकास को प्राथमिकता देना है, लेकिन उसके प्रावधान पंचायतों को स्थानीय जरूरतों के प्रति प्रतिक्रिया देने के लिए पहले प्राप्त लचीलेपन को कम करते हैं, जो इन चार श्रेणियों से बाहर आते हैं। एक और विवाद का मुद्दा योजना का नाम बदलना है, जिसके तहत महात्मा गांधी का नाम हटा दिया गया है। सरकार ने जोर देकर कहा कि विधेयक गांधीवादी सिद्धांतों को समाहित करता है और समावेशी विकास का लक्ष्य रखता है। हालांकि, विपक्ष का कहना है कि यह बदलाव एक वैचारिक बदलाव है। यह उस सर्वसम्मत सहमति से अलग है जो कभी मनरेगा का आधार थी।

दुनिया के लिए प्रेरणा बन गया था मनरेगा

बीस साल पहले, भारत ने राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम शुरू करके एक तरह से दुनिया को राह दिखाई थी। यह विचार पूरी तरह से नया नहीं था। महाराष्ट्र ने साल 1970 के दशक की शुरुआत से ही अपनी रोजगार गारंटी योजना के साथ रास्ता दिखाया था। लेकिन मनरेगा ने इस विचार को बहुत आगे बढ़ाया और दुनिया के लिए प्रेरणा बन गया। यह पार्टी लाइन से परे एक राष्ट्रीय पहल थी, जिसे संसद में सर्वसम्मति से समर्थन मिला था।

छह साल बाद, 2011-12 में, महत्त्वपूर्ण प्रमाण सामने आए कि कार्यक्रम काफी सफल रहा था। उस समय, मनरेगा ने आधिकारिक तौर पर पांच करोड़ ग्रामीण परिवारों के लिए प्रति वर्ष दो करोड़ से अधिक व्यक्ति दिवस का रोजगार सृजित किया था। लगभग आधी श्रमिक महिलाएं थीं, और 40 फीसद से अधिक अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति से संबंधित थे। इन आधिकारिक आंकड़ों की पुष्टि स्वतंत्र घरेलू सर्वेक्षणों द्वारा बड़े पैमाने पर की गई, जिनमें राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण का 68वां दौर और विशेष रूप से दूसरा भारतीय मानव विकास सर्वेक्षण शामिल है। ग्रामीण मजदूरी अभूतपूर्व दर से बढ़ रही थी। कुछ अध्ययनों से यह भी पता चलता है कि मनरेगा ने उत्पादक कार्यों को विस्थापित करने के बजाय, आर्थिक दक्षता और कुल उत्पादन पर सकारात्मक प्रभाव डाला था।