9 अगस्त, 1925 को लखनऊ से लगभग 20 किलोमीटर दूर एक रेलवे स्टेशन भारत की आजादी के आंदोलन की सबसे साहसी घटनाओं में से एक का गवाह बना। उस दिन 10 लोग काकोरी स्टेशन पर सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर ट्रेन में चढ़े और थोड़ी ही देर बाद उन्होंने ट्रेन की चेन खींच दी। यह ट्रेन काकोरी से 2 किलोमीटर आगे बाजनगर नाम के गांव में जाकर रुक गई।

क्रांतिकारियों की योजना के मुताबिक उन्होंने ब्रिटिश खजाने के लिए ले जाई जा रही रकम को लूट लिया था।

इस घटना को काकोरी कांड या काकोरी ट्रेन डकैती साजिश कांड के नाम से जाना गया और इसने तत्कालीन ब्रिटिश सरकार को हिला कर रख दिया। इस घटना ने भारत की आजादी के आंदोलन को रफ्तार दी। इस साल 9 अगस्त को इस घटना को 100 साल पूरे हो गए हैं। इस मौके पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने शताब्दी समारोह का शुभारंभ किया है।

Kakori train robbery
रेल संग्रहालय के अंदर लगी शहीदों की तस्वीरें। (Source-Express)

क्रांतिकारियों ने बनाया था हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचआरए)

काकोरी कांड हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचआरए) के द्वारा की गई यह पहली बड़ी कार्रवाई थी। एचआरए राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान और सचिन्द्र नाथ बख्शी जैसे कई क्रांतिकारियों द्वारा बनाया गया संगठन था।

बिस्मिल ने डकैती की योजना बनाई थी और उनके साथ इस काम में अशफाक उल्ला खान, राजेंद्र लाहिड़ी, चन्द्रशेखर आजाद, सचिन्द्र नाथ बख्शी, केशब चक्रवर्ती, मन्मथनाथ गुप्ता, मुरारी शर्मा, मुकुंदी लाल और बनवारी लाल शामिल थे।

इन क्रांतिकारियों का मकसद ब्रिटिश सरकार को झटका देने का था। लेकिन तब एक क्रांतिकारी की बंदूक से गलती से गोली चल गई और इससे अहमद अली नाम के एक यात्री की मौत हो गई तो इससे बात बिगड़ गई।

इस मामले में न्यायाधीश आर्चीबाल्ड हैमिल्टन के विशेष सत्र न्यायालय में मुकदमा चलाया गया और इनमें से 19 लोगों को दोषी ठहराया गया। बिस्मिल, रोशन सिंह, राजेंद्र नाथ लाहिड़ी और अशफाक उल्ला खान को मौत की सजा सुनाई गई, जबकि अन्य को जेल भेज दिया गया। इनमें से पांच को काला पानी (पोर्ट ब्लेयर में सेलुलर जेल) की सजा भी सुनाई गई।

17 दिसंबर, 1927 को लाहिड़ी को गोंडा जेल में फांसी दे दी गई। 19 दिसंबर, 1927 को अशफाक उल्ला खान, रोशन और बिस्मिल को भी मौत की सजा दे दी गई। अशफाक उल्ला खान को फैजाबाद जेल में, रोशन को नैनी (इलाहाबाद) जेल में और बिस्मिल को गोरखपुर जेल में फांसी की सजा दी गई।

…बिस्मिल ने गाया था सरफरोशी की तमन्ना

बिस्मिल को अक्टूबर, 1925 में गिरफ्तार कर लिया गया था। ऐसा माना जाता है कि एचआरए के दो सदस्यों ने उन्हें धोखा दे दिया था। यह कहा जाता है कि जब उन्हें फांसी के लिए ले जाया जा रहा था तो बिस्मिल ने ‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बाजू-ए कातिल में है’ गाया था। यह आगे चलकर आजादी की लड़ाई लड़ रहे सेनानियों के लिए एक अमर गीत बन गया था।

अशफाक उल्ला खान नेपाल और फिर डाल्टनगंज (झारखंड) भाग गये थे लेकिन एक साल बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।

Chandrashekhar azad freedom fighter
स्वतंत्रता सेनानी चंद्रशेखर आजाद। (Photo Credit – Indian Express)

आजाद ने खुद को मार ली थी गोली

चन्द्रशेखर आजाद एचआरए से जुड़े अकेले प्रमुख क्रांतिकारी थे, जो गिरफ्तारी से बच निकले थे। 27 फरवरी, 1931 को इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में पुलिस से घिर जाने के बाद आजाद ने खुद को गोली मार ली थी। यह पार्क अब चन्द्रशेखर आजाद पार्क के नाम से जाना जाता है।

द इंडियन एक्सप्रेस ने काकोरी स्टेशन और क्रांतिकारियों को समर्पित शहीद स्मारक का दौरा किया। काकोरी रेलवे स्टेशन और बाजनगर के बीच की सड़क बेहद खराब स्थिति में है। काकोरी में पुराना रेलवे कार्यालय अभी भी मौजूद है और इसे संग्रहालय बना दिया गया है। इमारत के पास लगे एक नोटिस बोर्ड पर काकोरी की घटना के बारे में बताया गया है कि कुल 4,679 रुपये, एक आना और 6 पैसे लूटे गए।

हालांकि चोरी की गई यह रकम बेहद कम थी लेकिन यह ब्रिटिश सरकार के खिलाफ यह एक बड़ा विद्रोह था।

बचाव पक्ष के वकील जो आजादी के बाद मुख्यमंत्री बने

आजादी के बाद यूपी के पहले और तीसरे मुख्यमंत्री क्रमश: गोविंद बल्लभ पंत और चंद्र भानु गुप्ता, इस मामले में बचाव पक्ष के वकील थे, जबकि कांग्रेस के सदस्य जगत नारायण मुल्ला अभियोजन पक्ष की ओर से अदालत में पेश हुए थे। मुल्ला 1921 में आगरा और अवध के संयुक्त प्रांत में मंत्री बनाए गए थे।

Ashfaqullah Khan
Ashfaqullah Khan

मुल्ला के बेटे को बनाया गया था जज

जगत नारायण मुल्ला बाद में कांग्रेस छोड़कर लिबरल पार्टी में शामिल हो गए थे और 1938 में उनकी मौत हो गई थी। उनके बेटे आनंद नारायण मुल्ला काकोरी मामले में उनकी कानूनी टीम का हिस्सा थे, उन्हें अगस्त, 1954 में इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज के रूप में पदोन्नत किया गया था।

आनंद नारायण मुल्ला 1967 में लखनऊ से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में लोकसभा का चुनाव जीते और 1972 में कांग्रेस के टिकट पर राज्यसभा सांसद बने। लेकिन विपक्ष ने कांग्रेस को याद दिलाया कि आनंद नारायण मुल्ला ने काकोरी मुकदमे में ब्रिटिश सरकार के लिए काम किया था।

8 अप्रैल, 1973 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने मुल्ला की कविता की पुस्तक ‘स्याही की बूंद’ का विमोचन किया था। पुस्तक में एक दोहा था- खून-ए-शहीद से भी है कीमत में कुछ सिवा; फनकार के कलाम की सियाही एक बूंद। इसे लेकर 18 अप्रैल, 1973 को यूपी विधानसभा में हंगामा हुआ और सदस्यों ने आरोप लगाया कि यह शहीदों का अपमान है।

कांग्रेस की ओर से आरोप लगाया गया कि मुल्ला को स्वतंत्रता सेनानियों के खिलाफ काम करने के लिए सम्मानित किया गया था। हालांकि तत्कालीन मुख्यमंत्री कमलापति त्रिपाठी ने जगत नारायण मुल्ला का बचाव किया था और कहा था, “वह एक वकील थे, उन्होंने वकालत की थी। वह कांग्रेस के महासचिव थे और लिबरल पार्टी में भी थे। उनकी वकालत के कारण उन्हें देशद्रोही नहीं कहा जाना चाहिए।”

सचिन्द्र नाथ बख्शी ने सुनाई घटना

काकोरी ट्रेन डकैती मामले के दोषियों में से एक सचिन्द्र नाथ बख्शी ने सदन में इस बारे में जुड़ी एक घटना सुनाई। बख्शी 1969 में वाराणसी दक्षिण से भारतीय जनसंघ के विधायक चुने गए।

सचिन्द्र नाथ बख्शी ने कहा, ‘एक दिन विशेष न्यायाधीश लंच के लिए गये हुए थे और अशफाक उल्ला और मैं अदालत में मौजूद थे। जगत नारायण मुल्ला (काकोरी मामले में अभियोजन पक्ष के वरिष्ठ वकील) वहां आए और मैं उनसे बात कर रहा था। अशफाक उल्ला ने उन्हें (मुल्ला को) नहीं पहचाना। मैंने उनका परिचय कराया और अशफाक उल्ला से कहा कि वह एक दोहा सुनाएं।

अशफाक ने कहा- ‘चलो यारों एक रिग थिएटर दिखाएं तुमको नया लिबरल, जो चांद सिम-ओ-जर के टुकड़ों पर, नया तमाशा दिखा रहा है। लखनऊ में रिग थिएटर वह जगह थी, जहां काकोरी मुकदमा चलाया गया था और अब यह जनरल पोस्ट ऑफिस है।

अदालत से बाहर निकल गए मुल्ला

बख्शी ने बताया कि अशफाक का दोहा उस महंगी कानूनी फीस को लेकर था जो जगत नारायण मुल्ला ने मुकदमे के दौरान ली थी। हर दिन 500 रुपये और अपने बेटे के लिए 100 रुपये। उन दिनों यह एक बड़ी राशि थी। जगत नारायण मुल्ला इस तंज से नाराज हो गए और वह अदालत छोड़कर बाहर निकल गए।

विपक्ष के सदस्यों ने सदन में आनंद नारायण मुल्ला की किताब पर प्रतिबंध लगाने की मांग की और कुछ सदन से बाहर चले गए। लंच के बाद जब सदन दोबारा शुरू हुआ तो विपक्षी कांग्रेस (ओ) और एसएसपी (संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी) के सदस्यों ने नारे लगाए। इंकलाब जिंदाबाद के नारों के बीच स्थगन प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया गया।

अंत में, तत्कालीन मुख्यमंत्री कमलापति त्रिपाठी ने इस मुद्दे पर विचार करने का वादा किया। इस घटना के दो महीने के भीतर, 12 जून 1973 को पीएसी में विद्रोह के कारण इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने त्रिपाठी की सरकार को बर्खास्त कर दिया था।